दुर्जनों का सम्मान


मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि अन्ततः हम लोग चाहते क्या हैं? हम सोचते कुछ हैं, बोलते कुछ हैं और करते कुछ और हैं। हमारे संकटों का कारण कहीं हमारी अस्थिरचित्तता तो नहीं?

मेरे कस्बे से प्रकाशित हो रहे साप्ताहिक ‘उपग्रह’ में मैं मेरा स्तम्भ ‘बिना विचारे’ नियमितप्रायः है। कभी ‘उपग्रह’ के लिए जो लिखता हूँ उसे अपने ब्लॉग पर पोस्ट बना लेता हूँ तो कभी अपनी किसी पोस्ट को अपने स्तम्भ का लेख। इसी क्रम में, वरुण के बच जाने से उपजी खुशी शीर्षकवाली मेरी पोस्ट ‘उपग्रह’ में छपी। लगभग बीस लोगों ने फोन पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की। ऐसी प्रत्येक प्रतिक्रिया की शुरुआत प्रसन्नता से और समाप्ति खिन्नता से हुई। एक, दो नहीं, पूरे अठारह लोगों ने रीमा के प्रति न केवल सहानुभूति व्यक्त की अपितु उसकी वास्तविकता उजागर करने के लिए मुझे उलाहने दिए। अल्पाधिक सबका कहना यही रहा कि मैंने उसकी फजीहत कर दी। वह बेचारी तो अब मुँह दिखाने काबिल भी नहीं रही। बेचारी एक औरत जैसे-तैसे अपनी नौकरी कर रही है और मैं हूँ कि चौराहे पर उसकी बेइज्जती कर दी। एक बात और प्रायः प्रत्येक ने कही कि कामचोरी, आलस्य और बेशर्मी कौन नहीं कर रहा? दिल्ली से लेकर देहात तक चारों ओर यही दशा है। ऐसे में रीमा की वास्तविकता उजागर कर मैंने ‘बेचारी एक औरत’ पर अत्याचार ही किया।

कुल दो लोगों (मनासा से अर्जुन पंजाबी और बृजमोहन समदानी) ने रीमा का पक्ष नहीं लिया। दोनों ने आश्चर्य व्यक्त किया कि कोई कर्मचारी ऐसा भी हो सकता है? मैंने दोनों को रतलाम आने का न्यौता दिया और कहा - ‘जब जी चाहे, बिना पूर्व सूचना दिए रतलाम आ जाओ। रीमा के साथ चाय पीलेना और मेरे लिखे की हकीकत उसी से पूछ लेना।’ दोनों को अविश्वासभरा दुख हुआ।

रीमा का बचाव करनेवाले सब लोगों से मैंने कहा कि आचरण का बखान शब्दशः सच है किन्तु रीमा और वरुण की वास्तविक पहचान छुपा ली गई है। दोनों के नाम और विभाग बदल दिए गए हैं। मुझे यदि रीमा की फजीहत करनी होती तो मैं ऐसा नहीं करता। मेरी भावना और कोशिश यही रहती है कि मैं यदि किसी का सम्मान बढ़ा नहीं सकूँ तो मेरे कारण उसके सम्मान में कमी भी न हो। मैं तो वैसे भी ‘सद्भावनाकांक्षी’ हूँ। रीमा के समस्त समर्थकों ने मेरी इस सूचना पर राहत भरी साँस ली और मुझे साधुवाद दिया।

ऐसे प्रत्येक व्यक्ति से मैंने पूछा कि वरुण के बारे में उसकी क्या राय है? उत्तर में प्रत्येक ने मुक्त कण्ठ से वरुण की प्रशंसा की और कहा कि वे समस्त शासकीय कार्यालयों की प्रत्येक कुर्सी पर वरुण को बैठे देखना चाहेंगे। मैंने पूछा - ‘किन्तु आपने तो वरुण की बात ही नहीं की। उसके बारे में तब ही कुछ कह रहे हैं जब मैंने आपसे पूछा।’ अधिकांश लोग मौन रहे किन्तु दो-एक ने विचित्र उत्तर दिया। कहा - ‘तो इसमें कौन सी अनोखी बात है? ईमानदारी से काम करना तो उसकी आधारभूत जिम्मेदारी है। फिर, वह अपनी मर्जी से ईमानदारी बरत रहा है, किसी के कहने से नहीं।’ मैंने पूछा - ‘और ईमानदारी निभाना रीमा की आधारभूत जिम्मेदारी नहीं? वरुण को तो कोई नहीं कह रहा किन्तु रीमा को तो उसके अधिकारी, सहकर्मी बराबर टोकते रहते हैं फिर भी वह कामचोरी, मक्कारी, बेशर्मी अपनाए हुए है?’ उत्तर में बचते हुए ऐसे लोगों ने कहा -‘आप तो पीछे पड़ जाते हो। किन्तु बेचारी औरत जात के साथ आपने अच्छा नहीं किया।’

ये सारी बातें मैं भूल जाना चाहता हूँ किन्तु भूल नहीं पा रहा। कामचोरों, बेईमानों से हम सब दुखी और सन्तप्त हैं। उनसे मुक्ति चाहते हैं। चाहते हैं कि उन्हें कामचोरी का दण्ड मिले। किन्तु अवसर आने पर कामचोरों की हिमायत करने में बिना देर किए जुट जाते हैं। प्रथमतः तो किसी कामचोर, बेईमान की पहचान हो नहीं पाती। और यदि होती है तो इस तरह उसका बचाव करने लगते हैं। वह भी सज्जनों की उपेक्षा करते हुए!

सयानों से सुनता आया हूँ कि जो समाज सज्जनों का सम्मान और दुर्जनों का धिक्कार नहीं करता, वह कभी उन्नति नहीं कर सकता।

हम क्या कर रहे हैं?

दुर्जनों का सम्मान?
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6 comments:

  1. दुर्जनों का सम्मान ही नई राष्ट्रीय निति है.

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  2. वाह रे कलजुग्! कौव्वे मोती खा रहे हैं और बेचारे हँसों को दाना तिनका भी नसीब नहीं हो रहा....

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  3. Who is at Fault??
    Rather who should be held responsible for this ...

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  4. अपराधियो को इज़्ज़त, अंतकवादियो को सम्मान, भ्रष्टाचारी को मान, चोरो और डाकुओ को उच्च पद वा देश की बागडोर अरे भाई यही तो हमारे देश की परंपरा है तो फिर क्यो ना रीमा की तरफ़दारी करेंगे लोग. वाह रे इंडिया वाह

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  5. विष्णु जी,
    एक लेखक के लिए अपने आसपास के सत्य और पाठकों की संवेदनशीलता के बीच में संतुलन बिठाना कठिन काम है. शुभकामनाएं!

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