हमारे नेता महान् हैं। हम उन पर गर्व करें या उनकी खिल्ली उड़ाएँ, वे महान् हैं। एक ही मुद्दे पर, एक ही समय में, समान अधिकारपूर्वक परस्पर विपरीत और विरोधी राय जाहिर करने का दुसाध्य काम सहजता से कर लेना उन्हें महान् बनाता है। एक और बात उन्हें महान् बनाती है। उन्हें हम पर आकण्ठ विश्वास रहता है कि उनकी तमाम परस्पर विरोधी बातों को हम आँख मूँद कर सच मान लेंगे। वैसे, उन्हें महान् कहने और मानने में हमारी ही भलाई भी है। वे हमारी ही कृति हैं। कोई जमाना रहा होगा जब ‘यथा राजा तथा प्रजा’ वाली कहावत लागू होती रही होगी। अब तो ‘यथा प्रजा तथा राजा’ वाली उक्ति लागू होती है। इसलिए हमारा भला इसी में है कि हम अपने नेताओं को महान् कहते और मानते रहें।
यह सब कहने की जरूरत नहीं हुई होती यदि अखबारों से वाबस्ता नहीं हुआ होता। यही गलती हो गई। यह बड़ी विचित्र स्थिति है कि अखबार न देखो तो दिन भर बेचैनी बनी रहती है कि अखबार नहीं देखे। और देख लो तो दिन भर खुद पर गुस्सा आता रहता है कि अखबार देखने में वक्त क्यों जाया किया? न भी देखते, पढ़ते तो जीवन व्यर्थ नहीं हो जाता। यह दशा लगभग रोज ही रहती है किन्तु कोई एक पखवाड़े से कुछ अधिक ही अनुभव हो रही है। लगभग एक पखवाड़े से इन्दौर में हूँ। छोटे बेटे के पास। करने-धरने को कुछ नहीं। फुरसत ही फुरसत। दूरियाँ इतनी कि किसी से मिलने जाने की कल्पना में ही थकान आने लगती है। महानगरों की दूरियाँ नापने के लिए आपके पास तीन चीजों में से कोई एक होनी चाहिए। पहली-खुद का वाहन। यह न हो तो दूसरी-आपकी जेब में इतने पैसे हों कि आप टैक्सी/ऑटो रिक्शा का खर्च वहन कर सकें। और यह भी न हो तो तीसरी-आपके पास इतना धैर्य और समय हो कि आप जन-वाहन (पब्लिक ट्रांसपोर्ट) की प्रतीक्षा कर सकें। तीसरी स्थिति में आपके पास वह सहन शक्ति भी होनी चाहिए कि आप जन-वाहन की भीड़ और उससे उपजी दूसरी परेशानियाँ सहन कर सकें। मैंने खुद को पहली दो स्थितियों के लिए निर्धन और तीसरी के लिए असहाय-असमर्थ पाया। सो खुद को घर में ही कैद किए रहा। ऐसे में अखबार ही सहारा बने रहे।
इन पन्द्रह दिनों में बाकी सारे समाचार तो बदलते रहे किन्तु दो समाचार स्थायी स्तम्भ की तरह प्रति दिन नजर आए-पहला, सड़कों पर बैठे आवारा पशु और दूसरा-महानगर में, विभिन्न मुख्य मार्गों पर लगे अवैध हार्डिंग। ये दोनों ही मुझे यातायात में समान रूप से बाधक लगते हैं। आवारा पशु प्रत्यक्ष रूप से और होर्डिंग अप्रत्यक्ष रूप से। दोनों ही शहर की खूबसूरती को समान रूप से नष्ट करते हैं। अन्तर केवल इतना है कि होर्डिंग कमाई का जरिया बनते हैं, आवारा पशु नहीं। पन्द्रह दिनों में एक दिन भी ऐसा नहीं गुजरा जब अखबारों ने सड़कों पर बैठे आवारा पशुओं और अवैध होर्डिंगों के फोटू नहीं छापे। किस सड़क पर, कितनी दूरी में कितने अवैध होर्डिंग लगे हैं और कहाँ-कहाँ कितने-कितने आवारा पशु बैठे नजर आए, सब कुछ बड़े चाव से सचित्र छापा और उससे भी अधिक चाव से प्रशासन की उदासीनता तथा जन प्रतिनिधियों के मन्तव्य छापे। यही सब पढ़-पढ़ कर मुझे अपने नेताओं की महानता पर गर्व होता रहा।
आवारा पशुओं को हटानेवाले मामले में में तमाम जन प्रतिनिधियों ने भरपूर उत्साह दिखाया और प्रशासन को पूरी-पूरी सहायता देने की बात कही। सबके शब्द जरूर अलग-अलग थे किन्तु सन्देश एक ही था-प्रशासन आवारा पशुओं को फौरन हटाए। हम किसी भी पशुपालक की सिफारिश नहीं करेंगे और यदि कभी हम खुद फोन करें या हमारे नाम से कोई और फोन करे तो उस पर ध्यान न दें, कड़ी से कड़ी कार्रवाई कर नागरिकों को राहत दिलाए।
किन्तु अवैध होर्डिंगों को हटाने के मामले में एक भी जन प्रतिनिधि एक बार भी इतना उदार नहीं हो पाया। ऐसा लगा, बेचारे सब के सब बहुत ही मजबूर किसम के लोग हैं। एक ने भी नहीं कहा कि अवैध होर्डिंग के विरुद्ध कार्रवाई करने पर उन्हें कोई असुविधा नहीं होगी। इन होर्डिंगों पर इन नेताओं के समर्थकों ने अपने-अपने नायकों के चित्रों सहित खुद के चित्र छपवा रखे हैं। जब उनसे, अपने समर्थकों को इस तरह अवैध होर्डिंंग लगाने से रोकने के लिए कहा गया तो मानो सबके सब बेचारे, लाचार, अपने-अपने कार्यकर्ताओं के बँधुआ हो गए। सबके जवाब एक से बढ़कर एक जैसे रहे। एक ने कहा कि वे जन्म दिन मनाने के पक्षधर कभी नहीं रहे। अपने कार्यकर्ताओं को ऐसे होर्डिंग-बैनर लगाने से मना करते हैं किन्तु वे (कार्यकर्ता) हैं कि मानते ही नहीं। इन नेताजी ने आश्वस्त किया कि वे भविष्य में अपने कार्यकर्ताओं को रोकने का प्रयास करेंगे। दूसरे ने बड़ी ही बेचारगी में कहा कि उन्होंने तो कहा है कि वे (कार्यकर्ता) उनके फोटूवाले बैनर-होर्डिंग न लगाएँ लेकिन वे हैं कि मानते ही नहीं। तीसरे इन दोनों से एक कदम आगे निकले। बोले कि वे खुद तो होर्डिंग लगाते नहीं किन्तु कार्यकर्ता (उनसे) बिना पूछे फोटूवाले बैनर-पोस्टर लगा देते हैं। यह अच्छी बात नहीं है और इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए सामूहिक प्रयास किए जाने चाहिए। चौथे ने खुद को सबसे जोड़ा और कहा कि धार्मिक आयोजनों के नाम पर कार्यकर्ता ऐसे बैनर-पोस्टर लगा देते हैं। इस मामले में लोगों को जागरूक करने की जरूरत है।
दोनों विषयों पर प्रशासकीय अधिकारी भी अलग-अलग मुद्राओं में नजर आए। आवारा पशुओं के मामले में हिटलरी मुद्रा और तेवर अपनानेवाले अफसर अवैध होर्डिंगों के मामले में सुविधावादी भाषा में सामने आए। सबका जवाब लगभग एक ही रहा कि उनका अमला तो रोज ही इन्हें हटाता है किन्तु रोज ही नए भी लग जाते हैं। इसलिए कार्रवाई होती रहने के बावजूद स्थिति वैसी की वैसी ही नजर आती है। जिनसे बात की गई उन तमाम अफसरों ने एक सावधनी (या कहिए कि चतुराई) यह बरती कि इस स्थिति के लिए एक ने भी किसी नेता को जिम्मेदार नहीं बताया और न ही किसी ने किसी नेता से सहायता माँगी। मानो सबको सब कुछ पता हो।
आदमी खुद से अधिक प्यार किसी को नहीं करता। और वह आदमी यदि नेता हो तो यह स्थिति तो उसे ‘सोने पर सुहागा’ वाली लगती होगी। कौन नेता होगा जिसे अपना नाम, अपना फोटू, अपना प्रचार न सुहाए? इसके विपरीत, वार्ड स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर के प्रत्येक नेता की इच्छा यही होती है कि दसोें दिशाओं में उसका नाम गूँजे, चारों ओर वही नजर आए। अवैध होर्डिंग उनकी यह इच्छा पूरी करते हैं सो इनका विरोध कैसे और क्यों करें? बिना किसी कोशिश के जब मन की मुराद पूरी हो रही हो तो या तो चुप रहो या दूध पीती बिल्ली की तरह आँखें मूँदे आत्म-भ्रम में जीते रहो। कार्यकर्ता जिन्दाबाद।
यह सब सोचते हुए मुझे मेरे कॉलेज के दिनों का एक साथी बड़ी शिद्दत से याद हो आया। सन् 1967-68 में, कॉलेज के छात्र संघ चुनावों में वह उम्मीदवार था। जीत-हार से उसे कोई लेना-देना नहीं था। केवल मजे लेने के लिए उम्मीदवार हो गया था। अपने प्रचार के लिए उसने अद्भुत ‘नवोन्मेषी विचार’ (इन्नोवेटिव आईडिया) अपनाया था। कस्बे में उसे जहाँ-जहाँ सड़कों पर भैंसें नजर आईं, उन सब पर उसने अपने नाम सहित वोट की अपील लिखवा दी। भैंसों की एक विशेषता है कि वे तेज नहीं दौड़तीं। धीमे-धीमे टहलती हैं। अपने मतदाताओं से मिलने के लिए जब दूसरे उम्मीदवार घर-घर जा रहे होते तब मेरा वह मित्र घर बैठा रहता और टहलती भैंसें पूरे कस्बे में उसका प्रचार करती रहतीं। प्रचार का यह अभिनव विचार तब स्थानीय अखबारों में खूब जगह पाए रहा। मैंने ईश्वर को धन्यवाद दिया कि आज के किसी नेता या किसी नेता के किसी कार्यकर्ता को यह ‘नवोन्मेषी विचार’ नहीं आया। वर्ना आवारा पशुओं के विरुद्ध की जानेवाली कार्रवाई को लेकर भी हमार नेताओं के जवाब वे ही होते जो अवैध होर्डिंगों को लेकर हैं।
किन्तु तब भी वे महान् ही होते। आखिर वे हमारे नेता हैं और हमने ही तो उन्हें बनाया है!
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जैसे जन तैसे प्रतिनिधि ...
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (04-09-2016) को "आदमी बना रहा है मिसाइल" (चर्चा अंक-2455) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "प्रेम से पूर्वाग्रह तक “ , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteधन्यवाद।
Deleteबहुत सुन्दर ।
ReplyDeleteधन्यवाद।
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Deleteधन्यवाद।
Deleteधन्यवाद।
Deleteएक बहुत पुरानी कहावत है कि इंसान वही पाता है जिसके वो लायक होता है. हमारे नेता हमारे द्वारा चुने हुए हैं, इसलिए जो हम डिज़र्व करते हैं हमें मिला है. वही चुनी हुई सरकार का हाल है और जब सरकार राम भरोसे, तो व्यवस्था की तो भैंस ही हाफ़िज़ है. आपके मित्र के What an Idea Sir ji को कोपीराईट करवा लेना चाहिए. ये आइडिया अगर हमारे नेताओं के दिमाग में गया तो सारी सड़कें भैंसों से भर जाएँगी!
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया आलेख है! मनोरंजक अन्दाज़ में गहरी बात कही है आपने!
शुभ दिन की मंगलकामनाएं
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