सनातन और जैन धर्म से जुड़े कुछ संगठनों में सक्रिय मेरे कुछ मित्र इन दिनों मुझ पर कुपित और मुझसे नाराज हैं। वे लोग ईदुज्जुहा के मौके पर दी जाने वाली, बकरों की कुर्बानी के विरुद्ध चलाए जाने वाले अभियान में मेरी भागीदारी चाहते थे। मैंने इंकार कर दिया। उनमें से एक ने मुझे हड़काते हुए पूछा - ‘आप बकरों की बलि के समर्थक हैं?’ मैंने कहा कि मैं केवल बकरों की बलि का ही नहीं, ऐसी किसी भी बलि-प्रथा का विरोधी हूँ। ऐसी किसी प्रथा को मैं न तो धर्म के अनुकूल मानता हूँ और न ही सामाज के। यदि कोई धर्म या समाज ऐसा करने की सलाह देता है तो मैं उस धर्म को धर्म नहीं मानता और न ही ऐसे समाज को समाज ही मानता हूँ। ऐसी परम्पराओं के समर्थक मुझे मनुष्य ही नहीं लगते।
आज यदि सर्वाधिक अधर्म हो रहा है तो धर्म के नाम पर ही। धर्म के नाम पर किए किसी आह्वान का विरोध करना तो दूर, उससे असहमति जताना भी आज सर्वाधिक जोखिम भरा काम होग या है। ऐसे आह्वान के औचित्य पर जिज्ञासा जताना ही आपको धर्म विरोधी घोषित करने के लिए पर्याप्त है। और आप यदि स्थानीय स्तर पर कोई छोटे-मोटे ‘सेलिब्रिटी’ हैं तो आपके विरुद्ध वक्तव्यबाजी, नारेबाजी, और आपके निवास पर तोड़-फोड़ अवश्यम्भावी है। मैं ऐसी तमाम दुर्घटनाओं (या कहिए कि सार्वजनिक सम्मान) से बच गया।
धर्म मेरे लिए कभी भी सार्वजनिक, सामूहिक विषय नहीं रहा। मैं पहले ही क्षण से इसे नितान्त व्यक्तिगत मामल मानता हूँ। मेरी सुनिश्चित धारणा है कि सामूहिक, सामाजिक या कि सांगठानिक धर्म कभी किसी का भला नहीं करता-न व्यक्ति का, न समाज का और न ही खुद का। ऐसे में बात यदि किसी समाज या धर्म से जुड़ी हो तो मेरी सुनश्चित धारणा है कि ऐसी किसी भी कुरीति या कुपरम्परा से मुक्ति का संघर्ष उस धर्म या समाज से जुड़े लोगों को ही करना पड़ता है। इसलिए, इदुज्जुहा पर बकरों की बलि बन्द करने को लेकर यदि कोई अभियान चलाया जाना है तो यह इस्लाम मतावलम्बियों द्वारा ही चलाया जाना चाहिए। मुझ जैसे बाकी लोग उनके समर्थन में मैदान में आ सकते हैं किन्तु आगे तो उन्हीं लोगों को आना पड़ेगा और आगे बने रहना भी पड़ेगा।
सनातन धर्म या कि हिन्दू धर्म की सती प्रथा, बाल विवाह, पशु बलि जैसी अनेक कुरीतियों, कुपरम्पराओं का विरोध करने के लिए इस धर्म के लोग ही सामने आए। दक्षिण भारत में चल रही ऐसी ही कुछ परम्पराओं का विरोध भी इस धर्म के ही लोग कर रहे हैं। वे लोग न्यायालय में भी जा रहे हैं। किसी धार्मिक परम्परा का विरोध जब उस धर्म से इतरधर्मी लोग करते हैं तो वह पहली ही नजर में अनुचित हस्तक्षेप होता है। इसीलिए मैंने इदुज्जहा पर दी जाने वाली, बकरों की बलि प्रथा के विरोधी अभियान से जुड़ने से मना कर दिया।
मेरे इस जवाब पर मुझे हड़कानेवाले मित्र ने तृप्ति देसाई का हवाला दिया जिसने मुम्बई की बन्दर मस्जिद में महिलाओं के प्रवेश की लड़ाई लड़ी और जीती। मैंने समझाने की कोशिश की कि तृप्ति का अभियान केवल हिन्दू या मुसलमान महिलाओं के लिए नहीं था। तृप्ति की लड़ाई, धार्मिक आधार पर महिलाओं के साथ किए जा रहे भेदभाव को लेकर थी। बन्दर मस्जिद से पहले वह शनि मन्दिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर सफल-संघर्ष कर चुकी थी। इसीलिए बन्दर मस्जिद में महिलाओं के प्रवेश को लेकर उसके अभियान को धर्मिक हस्तक्षेप नहीं माना गया।
जुलाई महीने में भी ऐसा ही हुआ था। स्कूली बच्चों को, मध्याह्न भोजन में अण्डा भी दिया जाता है। निस्सन्देह, अण्डा उन्हीं बच्चों को दिया जाता है जो अण्डा खाते हैं। जो बच्चे अण्डा नहीं खाते, उन्हें नहीं दिया जाता। मेरे हिसाब से यह अच्छी व्यवस्था है। मेरे कस्बे के अनेक लोगों को यह अच्छा नहीं लगता। मैं खुद चूँकि मांसाहार विरोधी हूँ इसलिए मुझे भी अच्छा नहीं लगता। किन्तु दूसरे क्या खाएँ, यह निर्धारण भी नहीं करता। ‘जीव दया’ के पक्षधर कुछ लोग मेरे पास आए। वे स्कूलों में अण्डा दिए जाने पर प्रतिबन्ध लगवाने के अभियान में मेरी भागीदारी चाहते थे। मैंने विनम्रतापूर्वक इंकार कर दिया। मैं अपना धर्म मानूँ, यह मेरी इच्छा। किन्तु सामनेवाला मेरा धर्म माने, यह आग्रह मैं भला कैसे कर सकता हूँ? मेरा धर्म और नियन्त्रण मुझ तक सीमित है। दूसरों पर अपना धर्म आरोपित करना या अरोपित करने का आग्रह करना ही अपने आप में अधर्म है। मैंने कहा-‘मैं खुद अण्डा नहीं खाता हूँ। खाऊँगा भी नहीं। किन्तु आपके अभियान में शरीक नहीं होऊँगा।’ वे नाराज होकर, मुझे नफरतभरी नजरों से देखते हुए लौटे। वे सब मुझे अधर्मी घोषित कर गए। मेरी हँसी चल गई। जो कृपालु मेरे पास आए थे, उनमें से तीन के परिजन मांसाहर करते हैं। यह बात वे खुद भी जानते हैं। वे अपने परिजनों से मांसाहार त्याग का आग्रह नहीं कर पा रहे। अपने राजनीतिक प्रभाव और वोट बैंक की राजनीति के तहत उन्होंने, मुख्यमन्त्री से आश्वासन हासिल कर लिया कि मेरे कस्बे के स्कूली बच्चों को अण्डा नहीं दिया जाएगा। वे सब खुश हैं किन्तु मुझे अभी भी यह अधार्मिक कृत्य ही लग रहा है।
कोई धर्म ऐसा नहीं है जिसमें कुछ न कुछ अनुचित, आपत्तिजनक न हो। इदुज्जुहा पर बकरों की बलि भी मुझे ऐसी ही एक अनुचित, आपत्तिजनक बात लगती है। मैंने अपने कुछ इस्लाम मतावलम्बी मित्रों से बात की थी। मुझे यह जानकर सुखद आश्चर्य हुआ कि उनमें से अधिकांश लोग इस कुर्बानी को अनुचित मानते हैं और इससे मुक्ति के लिए, समाज की जाजम पर अपने स्तर पर, जूझ रहे हैं। इसके साथ ही साथ यह भी मालूम हुआ कि मुहर्रम के अवसर पर ताजिये निकालने के विरोध में भी एक अभियान मुसलमानों में चल रहा है। इस अभियान के समर्थकों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। ऐसे सारे लोग आपस में मिलकर एक काम लगातार कर रहे हैं-निराश होकर, थककर न बैठने का। वे सब जानते हैं कि ऐसे बदलाव आसानी से, जल्दी नहीं आते। धर्मान्धता और कट्टरता आसानी से छूटनेवाले व्यसन नहीं। इनसे मुक्ति पाने में पीढ़ियाँ खप जाती हैं। तीन तलाक के विरोध में उठनेवाली आवाजें मुसलिम समुदाय में आज बढ़ती भी जा रही हैं और अधिक प्रगाढ़ भी होती जा रही हैं। किसी (इस्लाम मतावलम्बी) ने कभी सोचा था कि महिलाएँ अपना खुद का मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड बनाएँगी? लेकिन हम देख रहे हैं आज यह संस्था अस्तित्व में आ गई है।
दरअसल, गुलामी से मुक्ति के अभियान का विचार किसी गुलाम के मन में ही आ सकता है। वही ऐसा कोई मुक्ति अभियान चला सकता है है क्यों उसमें अनुभूत सचाई का ताकत होती है। वह लड़ाई बनावटी नहीं, सौ टका ईमानदार होती है। उसमें मुक्ति की छटपटाहट होती है, किसी के प्रति नफरत नहीं होेती। और इतिहास गवाह है कि ईमानदारी और प्रेम से चलाए अभियान अपनी मंजिल तक पहुँचते हैं।
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(भोपाल से प्रकाशित दैनिक ‘सुबह सवेरे’ के दिनांक 15 सितम्बर के अंक में छपा)
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