मैं शायद प्रकृति से ही ‘उदासी’ हूँ। खुद को आशावादी मानता, कहता हूँ लेकिन जल्दी उदास हो जाता हूँ। शायद इसीलिए दीपावली से एक दिन पहले की सुबह भी मन में कहीं दीवाली नहीं आ पा रही है।
त्यौहार का मेरे लिए एक ही अर्थ होता है-पूरा परिवार दो-चार दिन एक साथ बैठे, अपने सुःख-दुःख कहे, सबके सुख-दुःख पूछे, बतियाए, हँसी-ठिठोली करे। यह सब करने के लिए रुपये-पैसों की जरूरत नहीं होती। जरूरत होती है केवल समय की और ऐसी मनोदशा की। मैं विपन्नता के साथ बड़ा हुआ लेकिन मेरी परवरिश ऐसे ही वातावरण में हुई। विपन्नता ने त्यौहारों की खुशी कभी हलकी नहीं की। हमारे पास कुछ नहीं होता था लेकिन त्यौहार की खुशियाँ भरपूर होती थीं। बाजार जाने की हैसियत नहीं होती थी किन्तु खुशियों के लिए बाजार नहीं जाना पड़ता। बैठे-बैठाए ही मिल जाती हैं। जितनी चाहो, उतनी।
इस समय घर में हम दोनों पति-पत्नी ही हैं। बच्चों की राह देख रहे हैं। दोनों बेटे नौकरी में हैं। बड़ा बेटा कल रात छोटे बेटे के पास पहुँच गया है। यहाँ से कुल सवा सौ किलो मीटर दूर हैं। लेकिन देर रात में आएँगे। साथ-साथ। छोटे बेटे को छुट्टी इसी शर्त पर मिली है कि वह तीन दिनों का काम अग्रिम रूप से करके आए। दोनों आज रात आएँगे और दो दिनों बाद, भाई दूज की सवेरे निकल जाएँगे। आएँगे बाद में, जाने की सुनिश्चितता पहले कर। हमें स्कूल से पूरे बीस दिनों की छुट्टी मिलती थी-दशहरे से दीपावली तक। अब सब कुछ बदल गया है। स्कूल-कॉलेज अब भारतीयता के केलेण्डर से नहीं, प्रतियोगी परीक्षाओं के केलेण्डर से चलते हैं।
लेकिन ऐसी दशा मुझ अकेले की नहीं। मोहल्ले में सब मुझ जैसे ही नजर आ रहे हैं। स्कूली बच्चे गिनती के रह गए हैं। बडे़ बच्चों की मौजूदगी न तो नजर आ रही है न ही महसूस हो रही है। पड़ौस में अक्षय की बिटिया साक्षी तो आ गई है लेकिन सामने विनीता और संजय, बेटे वेदान्त की प्रतीक्षा कर रहे हैं। वेदान्त को अभी-अभी ही, ‘ढंग-ढांग’ के पेकेज वाली नौकरी मिली है। नई-नई नौकरी में तो छुट्टी की बात सोची ही नहीं जा सकती। मिल जाए तो ठीक। वर्ना इधर माँ-बाप, उधर बच्चा। खुश हों न हों, जैसे बन पड़े, त्यौहार मना लो।
मेरे कस्बे में दीपावली का त्यौहार पाँच दिनों का होता है-धन तेरस से भाई दूज तक। मेरी गली के कोने में, अतिक्रमण कर बनाए मकान में रह रहे सरदार परिवार के बच्चों ने कल पटाखे छोड़ कर पूरी गली को दीपावली त्यौहार की शुरुआत कर अहसास कराया। गली में यही एक कच्चा मकान है। परिवार में सत्रह सदस्यों वाली चार गहस्थियाँ हैं। आर्थिक सन्दर्भो में गली का सबसे कमजोर परिवार है यह। लेकिन केवल उसी परिवार के बच्चों ने पटाखे फोड़े। बाकी सब परिवारों ने उन्हें देखा या छूटते पटाखों की आवाजें सुनीं। मैंने सच ही सोचा था-खुशियाँ बाजार में नहीं मिलतीं। घर बैठे मिल जाती हैं। जितनी चाहो, उतनी। समृद्धि और खुशियों का कोई सम्बन्ध नहीं। गली का सबसे कमजोर परिवार कल गली का सबसे धनवान परिवार साबित हो रहा था।
मेरे कस्बे का महालक्ष्मी मन्दिर अब पूरे देश में पहचाना जाने लगा है। कल एनडीटीवी इण्डिया पर उसका समाचार प्रमुखता से प्रसारित किया गया। चेनल ने दिल्ली से अपना सम्वाददाता खास तौर पर भेजा था। मान्यता है कि धन तेरस पर यहाँ धन जमा कराने पर वह कई गुना होकर लौटता है। आज अखबार बता रहे हैं कि कल सुबह साढ़े पाँच बजे से ही मन्दिर के सामने कतार लग गई थी। लगभग डेड़ किलो मीटर लम्बी। कतार में महिलाओं की संख्या अत्यधिक थी। महा लक्ष्मी के सामने कतार में खड़ी गृह लक्ष्मियाँ। पुरुष बहुत कम। सबने अपनी-अपनी हैसियत से नगदी, जेवर, रत्न जमा कराए। देश भर के बारह सौ से अधिक ‘श्रद्धालुओं’ ने एक सौ करोड़ रुपयों से अधिक मूल्य की नगदी, हीरे-जवाहरात, आभूषण जमा कराए। खबर के मुताबिक मध्य प्रदेश के लोगों ने तो ‘श्रद्धा’ जताई ही, महाराष्ट्र, गोवा, राजस्थान, बिहार, गुजरात सहित अन्य राज्यों के लोगों ने भी यथाशक्ति, यथा-अपेक्षा ‘श्रद्धा’ जताई। इन सबको मन्दिर की ओर से जमा सामग्री के टोकन और ‘कुबेर पोटलियाँ’ दी गईं। पोटलियाँ तो ये लोग ‘लक्ष्मी-शगुन’ के रूप में रखेंगे, भाई दूज को टोकन देकर अपनी-अपनी ‘श्रद्धा’ प्राप्त कर लेंगे और पाँच दिनों के निरन्तर ‘लक्ष्मी स्पर्श’ से अपनी ‘श्रद्धा’ साल भर में कई गुना हो जाने की प्रतीक्षा करेंगे। मैंने अपने पत्रकार मित्रों का टटोला तो मालूम हुआ कि कस्बे का या मध्य प्रदेश का एक भी नामचीन पैसेवाला कतार में नहीं था। सबके सब, आपके-हम जैसे लोग ही थे। जानकर मैंने अपने परिचय क्षेत्र के एक ‘लक्ष्मी-पुत्र’ को फोन किया। जवाब मिला कि उन्हें कतार में खड़े होने की न तो जरूरत है और न ही उन्हें इसमें विश्वास है। वे दिन-रात अपने काम से मतलब रखते हैं। कोशिश करते हैं कि उनकी तिजोरियाँ ‘फुल केपिसिटी’ में भरी रहें और हर साल नई तिजोरी खरीदने की जरूरत पड़ती रहे। मैंने पूछा - ‘और खुशियाँ?’ जवाब मिला - ‘अब त्यौहार के दिन क्या झूठ बोलूँ बैरागीजी! सच्ची बात तो यह है कि खुशियाँ तो गरीबों के पास ही हैं। वे तो स्टील की एक कटोरी खरीद कर ही खुश हो जाते हैं और हम हवाई जहाज खरीद लें तो भी खुश नहीं हो पाते। लछमीजी की रखवाली की चिन्ता ने हमारी सारी खुशियाँ छीन रखी हैं। हमारी, खुशी की तिजोरी तो खाली की खाली ही है।’ यह लक्ष्मी किसी को चैन की नींद नहीं सोने देती। जिसके पास नहीं है, वह ब्राह्म मुहूर्त से कतार में खड़ा है। जिसके पास है, वह इसे बनाए रखने की चिन्ता में सो नहीं पा रहा। मुझे फिर अपनी ही बात याद आने लगती है - खुशियाँ बाजार में नहीं मिलतीं।
मैं जब यह सब लिख रहा हूँ तो मेरी उत्तमार्द्धजी पास ही बैठी हैं। टोक रही हैं-‘यह सब क्या है? आप यदि खुश नहीं हो पा रहे हैं तो बाकी सबको तो खुश होने दें! क्यों अपनी मनहूसियत फैलाकर सबका त्यौहार खराब कर रहे हैं?’ मुझे बुरा नहीं लगा। उल्टे, मेरी आत्मा प्रसन्न हो गई। वे नहीं जान रहीं कि उन्होंने मुझे एक जीवन-सूत्र फिर से याद दिला दिया है। उन्हें यह कष्ट नहीं है कि मैं खुश नहीं हूँ। उन्हें चिन्ता है कि (मेरे इस लिखे को) पढ़नेवाले उदास न हो जाएँ। अपनी खुशी से पहले दूसरों की खुशी की चिन्ता करना ही सबसे बड़ी खुशी होती है। हम किसी को खुश भले ही न कर सकें, किसी को दुःखी नहीं करें। यही बहुत बड़ी बात है।
दुःख ही स्थायी है। मनुष्य का जन्मना साथी। मनुष्य कहीं इसीलिए तो रोता हुआ पैदा नहीं होता? कहीं इसीलिए तो सुख की तलाश में आजीवन नहीं भटकता रहता है? निश्चय ही हम सब ‘कस्तूरी मृग’ हैं। कस्तूरी गंध की तलाश में व्याकुल, जंगल-जंगल भटक रहे। उत्तमार्द्धजी को धन्यवाद। उन्होंने तो इसी क्षण से मेरी दीवाली शुरु कर दी।
बच्चों को जब आना होगा, आ जाएँगे। जब जाना होगा, चले जाएँगे। वे जब तक रहेंगे, उनके रहने का सुख भोगूँगा। चले जाएँगे तो उदास नहीं होऊँगा। अब मैं गुदगुदी की फुलझड़ियाँ, मुस्कुराहटों के अनार और ठहाकों के पटाखे फोड़ूँगा। इस पल से हर पल दीवाली। खुशियाँ बाजार में जो नहीं मिलतीं!
हम में से हर एक के पास यह खजाना है। हम एक बार खुद को टटोल तो लें!
आप सबको दीपावली और नूतन वर्ष की हार्दिक बधाइयाँ, अभिनन्दन और अकूत मंगल कामनाएँ।
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दैनिक 'सुबह सवेरे' (भोपाल) ने मेरी इस पोस्ट के कुछ अंशों का आज,
19 अक्टूबर 2017 को अपने मुखपृष्ठ पर इस तरह प्रकाशित किया।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (20-10-2017) को
ReplyDelete"दीवाली पर देवता, रहते सदा समीप" (चर्चा अंक 2763)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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दीपावली से जुड़े पंच पर्वों की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन कार्तिक पूर्णिमा ~ देव दीपावली और गुरु पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteकहते हैं कवि रहीम संपन्न थे और दान शील ! खुश थे . कबीर संपन्न नहीं थे पर खुश थे . संपन्न होने से ख़ुशी आये जरुरी नहीं है . ख़ुशी जाये ये भी जरुरी नहीं है .दोनों का अंदाज फकीराना था .जीने का फकीराना अंदाज ही ख़ुशी है .तुम्हारा लेख लाजवाब है .ख़ुशी के मायने बताने वाला ही है .शायद लोग समझें ...............
ReplyDeleteअर्जुन पंजाबी ,मनासा
कैसे करे आने वाली dev uthni ekadshi पे तुलसी की पूजा
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