यह ऐसा संस्मरण है जिसे मैं आसमान पर लिख देना चाहता हूँ।
उज्जैन-बड़नगर के लगभग ठीक बीच में एक कस्बा आता है - इंगोरिया। यहाँ के और बड़नगर के जामफल इस अंचल में बहुत प्रसिद्ध हैं। कस्बों के नाम से बेचे जाते हैं। यह संस्मरण इसी इंगोरिया से जुड़ा है।
यह इसी शनिवार की बात है। अपने समधीजी, मेरी बहू प्रिय नीरजा के पिताजी और मेरे भतीजे प्रिय गोर्की के ससुरजी आदरणीय श्री जे. बी. लाल (श्री जुगल बिहारी लालजी सक्सेना) के दाह संस्कार के बाद उत्तमार्द्धजी के साथ भोपाल से लौट रहा था। हमारी टैक्सी उज्जैन पार कर बड़नगर की तरफ बढ़ रही थी। अचानक ही मुझे याद आया - रास्ते में ही इंगोरिया आता है। मेरे साले प्रिय देवेन्द्र और मुकेश जब भी अपने दुपहिया से रतलाम आते हैं तो इंगोरिया के जामफल जरूर लाते हैं। याद आते ही ड्रायवर से कहा कि इंगोरिया में गाड़ी रोक ले।
इंगोरिया पहुँचते-पहुँचते चार-साढ़े चार बज रहे थे। सूरज अस्ताचलगामी हो चला था। झुटपुटा होने लगा था। बस स्टैण्ड पर जामफल के पाँच-सात ठेले खड़े थे। ड्रायवर ने एक ठेले के सामने गाड़ी रोकी। कोई बाईस-पचीस वर्षीय युवक के इस ठेले पर बहुत थोड़े जामफल बचे थे। दूसरे ठेलों पर नजर दौड़ाने के बजाय मैंने इसी नौजवान से बात शुरु की -
(मैं यथासम्भव मालवी बोली में ही बात करता हूँ। मुझे इसमे आनन्द भी आता है और सामनेवाला पहले ही बोल से पूरी तरह सहज हो जाता है।)
- कई रे भई! कई भाव दिया जामफल? (क्यों भाई! जामफल क्या भाव दिए?)
- पचास रिप्या किलो बाबूजी। (पचास रुपये प्रति किलो बाबूजी।)
- ने दो किलो लूँ तो? (अगर में दो किलो जामफल लूँ तो?)
- तो बाबूजी! पेंतालीस रिप्या। (तो बाबूजी पैंतालीस रुपये प्रति किलो।)
- ने मूँ तीन किलो लूँ तो? (और अगर मैं तीन किलो जामफल लूँ तो?)
इस बार उसने अविलम्ब जवाब नहीं दिया। थोऽऽड़ा सा हिचकते हुए (मानो, जोखिम ले रहा हो) बोला -
- तो बाबूजी! चालीस रिप्या लगई लीजो। (तो बाबूजी! चालीस रुपये प्रति किलो के भाव से ले लेना।)
- ओर जो मूँ चार किलो लूँ तो? (और यदि मैं चार किलो जामफल लूँ तो?)
मेरा सवाल सुनकर इस बार वह तनिक घबरा गया। उलझन की पूरी इबारत उसके चेहरे पर साफ-साफ उभर आई। भाव और कम न करने पर (कम से कम तीन किलोग्राम जामफल का) ग्राहक हाथ से निकल सकता है। लेकिन भाव और कम भी तो नहीं किया जा सकता! ‘क्या करूँ? क्या न करूँ?’ वाली उलझन और गाढ़ी हो गई। कुछ पल लगे उसे फैसला लेने में। वह बोला तो जरूर लेकिन उसे शायद खुद ही समझ नहीं आ रहा था कि उसके बोलने में घबराहट ज्यादा है या दृढ़ता। हाँ, उसकी आवाज बहुत धीमी जरूर हो गई थी। इतनी धीमी कि सुनने न सुनने का अन्तिम निर्णय मानो मुझ पर छोड़ दिया हो -
- अबे बाबूजी! चालीस ती नीचे ओर नी जई सकूँ। (अब बाबूजी! चालीस रुपये किलो से कम तो नहीं कर सकूँगा।)
- वा! चार किलो देई दे। (तो फिर, चार किलोग्राम जामफल दे दे।)
मेरी बात सुनकर वह उछलते-उछलते बचा। कुछ इस तरह मानो पूरी चाबी भरा खिलौना बन गया हो।
जामफल बहुत ज्यादा नहीं थे। छाँटने का जिम्मा मैंने उसी को दे दिया। वह उत्साह से छाँटने लगा। इस बीच मैंने एक जामफल उठा कर खाना शुरु कर दिया और कहा कि तोल में से एक जामफल कम कर ले। वह बोला - ‘लो बाबूजी! कई वात कर दी आपने? एक जामफल ती कई फरक पड़े। ने आपने तो खायो। वेच्यो थोड़ी!’ (आपने भी क्या बात कर दी बाबूजी! एक जामफल से क्या फर्क पड़ना? वैसे भी आपने तो खाया ही तो है। बेचा थोड़े ही है?)
जामफल इतने कम थे कि छाँटते-छाँटते, तीन जामफल बाकी बचे रहे और बाकी सब चार किलो के तोल में चढ़ गए। उसने वे तीन जामफल भी चार किलो में शरीक कर दिए - ‘अबे ई तीन जाम कणीने वेचूँगा? आप लेई पधारो।’ (अब ये तीन जामफल किसे बेचूँगा? आप ले जाइये।) और, उसने एक-एक किलो जामफल की चार थैलियाँ मेरी ओर सरका दी। एक जामफल मैं खा चुका था और तीन जामफल उसने अधिक दे दिए थे। कम से कम चार सौ ग्राम वजन तो रहा होगा ही होगा इन अतिरिक्त जामफलों का। मुझे यह अच्छा नहीं लगा। मैं इनका अधिकारी नहीं था। थैलियाँ मैंने कार में बैठी उत्तमार्द्धजी को थमाई और मुड़ कर दो सौ रुपये उसे थमाए। बाकी रकम मुझे लौटाने के लिए उसने जेब में से छुट्टे नोट निकाले। मैंने उसे रोका - ‘रेवा दे रे भई! पचास का भाव ती दो सो वेईग्या।’ (रहने दे भाई! पचास रुपये प्रति किलोग्राम के भाव से दो सौ रुपये हो गए।)
वह ठिठका। अविश्वास भाव से मुझे देखा। लेकिन अगले ही पल चालीस रुपये मेरी ओर बढ़ाते हुए बोला - ‘नी बाबूजी! चालीस को भाव वेई ग्यो थो।’ (नहीं बाबूजी! चालीस का भाव तय हो गया था।) मैंने कहा - ‘ऊ तो मने यूँईऽज वात करी थी।’ (वो तो मैंने बस यूँऽही बात की थी।) अब तक वह सामान्य हो चुका था। पूरी तसल्ली से बोला - ‘आपकी वात आप जाणो। मूँ म्हारी वात जाणूँ ने मने चालीस को भाव वतायो थो।’ (आपकी बात आप जानें। मैं अपनी बात जानता हूँ और मैंने चालीस रुपये प्रति किलोग्राम का भाव बताया था।)
अतिरिक्त चार जामफलों का वजन मुझ पर अब तक बना हुआ था। मैंने कहा - ‘अच्छा! चाल! आधी वात थारी ने आधी वात म्हारी। पेंतालीस का भाव ती बाकी पईशा देई दे।’ (अच्छा! चल! आधी बात तेरी मान और आधी बात मेरी मान। पैंतालीस रुपये प्रति किलोग्राम के भाव से बाकी रुपये दे दे।) तब तक दस-दस के चार नोट वह मेरी ओर बढ़ा चुका था। इस बार वह तनिक अधिक मजबूती से बोला - ‘भलेई ठेलो लगऊँ बाबूजी पण हूँ तो वेपारी! ओर वेपार में आप जाणोऽई हो, वात को मान राखणो चईये। सच्चो वेपारी ऊईऽज जो आपणी वात पे कायम रे। म्हारा माल को भाव म्हने ते करियो। अणी वास्ते, भाव तो चालीस कोईऽज लागेगा बाबूजी।’ (भले ही ठेला लगाता हूँ बाबूजी! पर हूँ तो व्यापारी! और व्यापार में तो आप जानते ही हैं बाबूजी कि बात का मान रखना चाहिए। सच्चा व्यापारी वही जो अपनी बात पर कायम रहे। मेरे माल का भाव मैंने तय किया। इसलिए भाव तो बाबूजी! चालीस रुपये प्रति किलोग्राम का ही लगेगा।)
मेरी आँखें भर आईं। छाती में हवा का गोला भर गया। बोलना कठिन हो गया। कुछ बोलने के लिए लम्बी साँस लेना जरूरी हो गया। लेकिन लम्बी साँस भी न ले पा रहा। कुछ पल लगे मुझे। फिर बड़ी मुश्किल से बोला - ‘चल! योई सई। पण वणा तीन जामफलाँ का पईसा तो लेई ले!’ (चल! यही सही! लेकिन उन तीन जामफलों के पैसे तो ले ले!) चालीस रुपये लिए, मेरी ओर बढ़ा हुआ उसका हाथ अब भी हवा में ही था। मेरी बात सुनकर उसने तनिक खिन्नता से कहा - ‘या कई वात वी बाबूजी? वी तीन जामफल आपने तो मांग्या नी था! मने आपणी मर्जी ती ताकड़ी में मेल्या था। वणां का पईसा केसे लेई लूँ? नी बाबूजी! वणा का पईसा तो बिलकुल नी लेई सकूँ। वी तो आपका वेई ग्या।’ (यह क्या बात हुई बाबूजी? वो तीन जामफल आपने तो माँगे नहीं थे! मैंने अपनी मर्जी से तराजू में रखे थे। उनके पैसे कैसे ले लूँ? नहीं बाबूजी! उनके पैसे तो बिलकुल नहीं ले सकता। वे जामफल तो आपके हो गए।)
मेरे छोटे बेटे से भी छोटे उस नौजवान ने मेरे सारे रास्ते बन्द कर दिए थे। अब मेरे सामने बाईस-पचीस बरस का, जामफल के ठेलेवाला, देहाती लड़का नहीं, अपनी बात का धनी, भविष्य का बहुत बढ़ा, अपनी बात का धनी, ईमानदार व्यापारी खड़ा था। मैंने एक छोटे से, ठेलेवाले को दो सौ रुपये दिए थे लेकिन बहुत बड़े व्यापारी ने मुझे बाकी रकम लौटाई थी। मैंने चुपचाप अपने चालीस रुपये लिए और गाड़ी में बैठ गया।
मैं सहज, सामान्य नहीं था। इस भावाकुलता में उसका नाम पूछना ही भूल गया। खुद से बचने के लिए मन को समझाया - इस रास्ते पर आखिरी यात्रा नहीं है यह। आना-जाना बना रहेगा। तब उससे नाम पूछ लूँगा। उसके साथ एक फोटू भी खिंचवाऊँगा। सबको यह किस्सा सुनाते हुए उसका फोटू दिखाऊँगा और कहूँगा - ‘इसे देखो! धन्ना सेठों, नेताओं और अफसरों की बेईमानियों के नासूर के मवाद की दुर्गन्ध से यह नौजवान देश को मुक्ति दिलाएगा। इसकी ईमानदारी का मलय-पवन हमारी प्राण-वायु बनेगा।
सोच रहा हूँ, अगले बरस दीपावली पर घर में बच्चे जब लक्ष्मी पूजन करेंगे तब उनसे कहूँगा - ‘उसके’ लौटाए, दस-दस के इन चार नोटों की पूजा करो। ये ही सच्ची लक्ष्मी हैं।
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हर बार ही कि तरह उम्दा
ReplyDeleteउपवरवाले के कैमरे में सब दर्ज होता है बैरागी साहेब ।इसका हिसाब किताब तुरंत उसके यह डेबिट क्रेडिट हो जाता है ।उसकी निष्ठा और ईमान को नमन ।आपके विचारों विचारों का आत्मीय स्वागत ।बहुत सुंदर उल्लेख है ।प्रेरणादायक ।व्यापार और व्यवहार के अपने नियम है जिनका पालन करना हमारा धर्म है । जय श्री कृष्ण ।राधे राधे ।
ReplyDeleteबेहद प्रभावी,प्रेरक और स्मरणीय।
ReplyDeleteरोचक और अविस्मरणीय संस्मरण
ReplyDeleteरोचक और अविस्मरणीय संस्मरण
ReplyDeleteकोटिश: धन्यवाद।
ReplyDeleteमालवा में बिताया गया -लगभग छः दशकों पूर्व का - सरल-सीधा जीवन फिर से याद आ गया.
ReplyDeleteसुन्दर। सच तो ये है कि नई सभ्यता और भ्रामक विकास ने हमें भ्रष्ट कर दिया है। आप मूल भरतीय चरित्र से मिले हैं। लेकिन भागती दुनिया ऐसे लोगों को सम्मान की दृष्टि से कहाँ देखती है।
ReplyDeleteबहुत सुंदर रोचक तरीके से लिखा है आपने यह प्रेरक प्रसंग !सादर ।
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