भारत: धनाढ्यों द्वारा नियन्त्रित धार्मिक गरीबों का देश

पाटीदार समुदाय की कुलदेवी है उमिया देवी। ‘विश्व उमिया धाम मन्दिर’ निर्माण हेतु गत दिनों अहमदाबाद में सम्पन्न हुई बैठक में पाटीदार समाज ने केवल तीन घण्टों में 150 करोड़ रुपये जुटा लिए। याने प्रति मिनिट 84 लाख रुपये। मुम्बई के दो पटेल भाइयों ने इक्यावन करोड़ रुपये देने की घोषणा की। यह, इस बैठक में घोषित की गई सबसे बड़ी रकम है। पूरी परियोजना एक हजार करोड़ रुपयों की है। यदि यही गति और मनोदशा बनी रही तो शेष 6 बैठकों में समूची परियोजना की रकम जुटा ली जाएगी। यह वही पाटीदार समाज है जिसे आरक्षण दिलाने के लिए हार्दिक पटेल संघर्षरत हैं। ऐसे आँकड़ों पर हार्दिक कहते हैं कि पाटीदार समुदाय में गरीबों की संख्या अधिक है। ऐसी आर्थिक हैसियतवाले पाटीदार तो गिनती के ही हैं। हार्दिक सच ही कहते होंगे।

एक समुदाय के एक मुनि का देहावसान हो गया। उनकी अर्थी में कन्धा देने की बोलियाँ लगीं। सबसे आगे, दाहिना कन्धा देने से शुरु हुई बोलियाँ खत्म हुईं तो कुल रकम आठ करोड़ हुई। उल्लेखनीय बात यह रही कि एक के बाद एक, ये सारी बोलियाँ एक ही भक्त के नाम पर खत्म हुईं। एक व्यक्ति तो अर्थी उठा नहीं सकता! निश्चय ही इस भक्त ने, कन्धे देने का अपना अधिकार अन्य भक्तों को देने का सौजन्य बरता होगा।

दिल्ली के एक साई भक्त ने गए दिनों शिरड़ी पहुँच कर, डेड़ किलो वजन का सोने का हार साई बाबा को चढ़ाया। इस हार का मूल्य बयालीस लाख रुपये आँका गया। यह हार साई बाबा की मूर्ति को भिन्न-भिन्न उत्सवों-प्रसंगों पर ही पहनाया जाएगा। 

अखबारों में छपे ऐसे समाचार पढ़ते-पढ़ते हर बार उक्ति याद आ जाती है - ‘भारत, निर्धनों का धनाढ्य देश है।’ लगता है, इस उक्ति में सुधार किया जा सकता है - ‘भारत, धनाढ्यों द्वारा नियन्त्रित धार्मिक गरीबों का देश है।’

हम पाँच-सात ‘मूर्ख मित्र’ जब भी मिल बैठते हैं तो चकित भाव से ऐसे समाचारों पर चर्चा करते हैं। सामूहिक धर्म का सामाजिक अवदान हमें अब तक समझ नहीं आया। जाति आधारित आरक्षण का विरोध करते हुए आर्थिक आरक्षण की बात कही जाति है। कहा जाता है कि हर जाति, समुदाय में आर्थिक पिछड़े लोग हैं। लेकिन धर्म के नाम पर जब, कुछ ही घण्टों में जुटाए जानेवाले ऐसे भारी-भरकम आँकड़े सामने आते हैं तो सहसा ही मन में विचार आता है - अपनी ही जाति, अपने ही समुदाय के आर्थिक पिछड़ों की याद इन लोगों को क्यों नहीं आ पाती? शिक्षा, अवसर, रोजगार जैसे आधारभूत जीवनदायी उपक्रम अपने ही समुदाय के वंचितों, उपेक्षितों को उपलब्ध कराने में इनकी रुचि क्यों नहीं हो पाती?

प्रख्यात भाषाविद्, कवि-साहित्यकार डॉक्टर जय कुमार जलज के यहाँ बैठा था। वे किसी से बात कर रहे थे। मैं मूक श्रोता था।  बातों ही बातों में जलजी ने बताया, एक सन्त-मुनि से उन्होंने कहा कि उनके (सन्त-मुनि के) समाज के अनेक युवा लड़के/लड़कियाँ मुम्बई, पुणे, बेंगलुरु, चैन्ने, हैदराबाद जैसे विभिन्न महानगरों में नौकरीपेशा बने हुए हैं। वहाँ वे अकेले रहते हैं और स्थितियाँ ऐसी बन जाती हैं कि वे चाहकर भी अपने परिवार की धार्मिक परम्पराएँ नहीं निभा पाते। समाज के धनाढ्य लोग यदि मन्दिरों-मठों पर धन लगाने के बजाय, अपने ही समुदाय के ऐसे बच्चों के लिए समुचित आवास व्यवस्था उपलब्ध करा दें तो न केवल बच्चों को ‘परदेस’ में ढंग-ढांग का ठिकाना मिल जाएगा बल्कि, परिवार से दूर रहनेवाले वे बच्चे अपने परिवार/समुदाय की खान-पान, पूजा-पाठ, देव/मन्दिर-दर्शन जैसी पारम्परिक धार्मिकता से भी जुड़े रहेंगे। जलजजी का सुझाव था कि यह व्यवस्था निःशुल्क न हो। बच्चों से ‘नो प्रॉफिट-नो लॉस’ आधार पर भुगतान लिया जाए। जलजी ने सन्त-मुनि से आग्रह किया कि वे (सन्त-मुनि)  उनके समाज के धनाढ्य लोगों से ऐसा करने का आग्रह करें। सुनकर सन्त-मुनि ने विचार की प्रशंसा तो की किन्तु कहा कि उनका काम केवल धर्मोपदेश देना है, ऐसा आग्रह करना, ऐसी सलाह देना नहीं। जलजी की बात सुनकर मैं खुद को रोक नहीं पाया। पूछ बैठा कि वे सन्त-मुनि किस समाज/समुदाय के थे। जलजी ने हँसते हुए जवाब दिया - ‘वे मेरे समुदाय के भी थे आपके समुदाय के भी। साधु, सन्त, मुनि किसी विशेष जाति, समाज, सम्प्रदाय के नहीं होते। वे तो समग्र मनुष्य समाज के होते हैं।’

दस-दस, पन्द्रह-पन्द्रह दिनों तक चलनेवाले इन धार्मिक आयोजनों/समारोहों पर करोड़ों रुपये खर्च होते हैं। हजारों आबाल-वृद्ध नर-नारी इनमें प्रतिदिन शामिल होते हैं। अपने अमूल्य मानव श्रम के अनेक घण्टे इनमें खपाते हैं। लेकिन बदले में पाते क्या हैं - यह समझना हर बार कठिन ही हुआ। श्रद्धा और आस्था के तर्क हर बार ऐसी जिज्ञासाओं को ‘चिर-कुमारी’ बनाए रखते हैं। ऐसा एक बार नहीं, अनेक बार हुआ है कि प्रवचनों से लौटते हुए लोगों से मैंने, सोद्देश्य पूछा - ‘कैसा लगा आपको?’ उत्तर मिला - ‘बहुत सुन्दर व्याख्यान था महाराजजी का।’ मैंने पूछा - ‘क्या कहा महाराजजी ने?’ जवाब मिला - ‘यह तो याद नहीं। लेकिन बहुत सुन्दर व्याख्यान दिया महाराजजी ने।’ यह जवाब देते समय उनकी प्रसन्नता देखते ही बनती थी।

मुझे सामूहिक धर्म की एक ही उपयोगिता अनुभव हुई - दुःखी आदमी अपना दुःख भूल जाता है। अपने असफल प्रयत्नों की समीक्षा से बचने में, ऐसी भीड़, आदमी की बड़ी मदद करती है। वह अपने आसपास अपने ही जैसे अनेक असफलों को देख शायद राहत पाता है - ‘मैं अकेला ही ऐसा नहीं हूँ।’ अपने समान ही दूसरों को असफल, अधूरा, व्यथित, पीड़ित देख-देख कर उसे अपना दुःख कम अनुभव होने लगता होगा। पिछले जन्म के कर्म-फल भुगतने की भयानक कथाएँ सुनते-सुनते, अपना अगला जन्म सुधारने की सोचते हुए वह अपना कष्टदायक वर्तमान भूल जाता होगा। यही उसके लिए बड़ी राहत होती होगी। इसके अतिरिक्त और कोई व्यक्तिगत प्राप्ति मुझे तो नजर नहीं आती।

लेकिन इन्दौर के राजनेताओं द्वारा आयोजित धार्मिक समारोहों में जरुर कुछ व्यक्तिगत प्राप्तियाँ मैंने देखी हैं। वहाँ महिलाओं को साड़ियाँ, घरु उपयोग के बर्तन, स्वादिष्ट-मँहगी मिठाई के डिब्बे व्यक्तिगत स्तर पर मिल जाते हैं। लेकिन इनमें से ऐसा कुछ भी नहीं जो आदमी की जिन्दगी सँवार दे। ऐसे सामूहिक धार्मिक आयोजन मुझे तो, आदमी को जड़ होने की सीमा तक यथास्थितिवादी बनाते लगते हैं। कभी-कभी तो, पीछे ले जानेवाले भी लगते हैं। धर्म तो मनुष्य की आत्मोन्नति का श्रेष्ठ उपकरण है। यह व्यक्ति को कर्मठ, पुरुषार्थी बनता है। किन्तु सामूहिक धर्म तो मुझे आदमी को अकर्मण्य, भाग्यवादी बनाता अनुभव होता है। 

राजनीति ने इस स्थिति में ‘कोढ़ में खाज’ जैसा ही काम किया है। लोगों की धार्मिकता राजनेता के लिए सोने का अण्डा देनेवाली मुर्गी है। धार्मिक भीड़ नेता को वोट-धन से मालामाल करती है। भोपाल के एक नेता गए दो-तीन बरसों से, अपने विधान सभा क्षेत्र में ‘सामूहिक रक्षा बन्धन’ मना रहे हैं। पूछा जा सकता है कि यह ‘भ्रातृ भाव’ केवल अपने क्षेत्र की महिलाओं तक ही सीमित क्यों? इसका एक ही जवाब है - ‘यह भ्रातृ-भाव नहीं, वोट-भाव है।’ 

धर्म और राजनीति के घातक घालमेल को वाजिब ठहरानेवालों की कमी नहीं है। ये सब चतुर लोग हैं। इनका धर्म पूरी तरह से ‘सोद्देश्य और स्वार्थप्रेरित’ होता है। तनिक ध्यान से देखिए। धर्म-यात्राएँ, यज्ञ, कथा आयोजित करानेवाला नेता रक्षा बन्धन तो सामूहिक मनाता है, लेकिन लक्ष्मी पूजन सदैव अकेला ही करता है। अपने घर की लक्ष्मी पूजा में अपने एक भी मतदाता को शामिल नहीं करता। 

लक्ष्मी व्यक्तिगत है। बाकी सब सामूहिक है। यही धर्म है।
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दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल, 30 अगस्त 2018

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (31-08-2018) को "अंग्रेजी के निवाले" (चर्चा अंक-3080) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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