भीख का कटोरा और ‘नेट लॉस’



आज दादा की पहली बरसी है। पूरा एक बरस निकल गया उनके बिना। लेकिन कोई दिन ऐसा नहीं निकला जब वे चित्त से निकले हों। उनकी मौजूदगी हर दिन, हर पल अनुभव होती रही। वे मेरे मानस पिता थे। मुझमें यदि कुछ अच्छा, सन्तोषजनक आ पाया तो उनके ही कारण। वे दूर रहकर भी मुझ पर नजर रखते थे। मेरे बारे में कुछ अच्छा सुनने को मिलता तो फोन पर सराहते थे। कुछ अनुचित सुनने को मिलता तो सीधे मुझे कुछ नहीं कहते, खबर भिजवाते थे - ‘बब्बू से कहना, उसके इस काम से मुझे अच्छा नहीं लगा। पीड़ा हुई। यह उसे शोभा नहीं देता।’ मैं कहता - ‘सराहना तो सीधे करते हैं और खिन्नता औरों के जरिए जताते हैं! ऐसा क्यों दादा?’ वे कहते - ‘इसलिए कि तू जान सके कि तेरे इस गैरवाजिब की जानकारी मुझसे पहले औरोें को है। इसलिए कि तू इस कारण अतिरिक्त फिकर कर सके और खुद को सुधार सके।’

दादा को याद करने का कोई बहाना जरूरी नहीं। उनके रहते हुए भी और उनके न रहने के बाद भी। उन्हें भूला ही नहीं जा सकता। जाग रहा होऊँ तब भी और सो रहा होऊँ तब भी। वे मुझे कभी अकेला नहीं रहने देते। 

इन दिनों चुनाव चल रहे हैं। हमारे चुनाव बरस-दर-बरस मँहगे होते जा रहे हैं। संसद में करोड़ोंपतियों की संख्या हर बरस बढ़ती जा रही है। राजनीति आज पूर्णकालिक पारिवारिक धन्धा हो गया है। यह सब देख-देख मुझे उनकी वह बात याद आती है जो उन्होंने 1969 में, सूचना प्रकाशन राज्य मन्त्री बनने के ‘लगभग’ फौरन बाद कही थी। ‘लगभग’ इसलिए कि राज्य मन्त्री बनने के फौरन बाद ही वे  व्यस्त हो गए थे। मेरा भोपाल जाना बहुत-बहुत कम होता था। जब भी जाता, वे सदैव व्यस्त मिलते। लेकिन एक बार, एक पूरा दिन उन्हें खाली मिल गया। उस दिन उन्होंने खूब बातें की थीं। 

राज्य मन्त्री बनने पर उन्हें पूरे देश से बधाई सन्देश मिले थे। सचमुच में ‘बोरे भर-भर कर।’ अपनी आदत के मुताबिक उन्होंने उस प्रत्येक पत्र का जवाब दिया था जिस पर भेजनेवाले का पता था। वह धन्यवाद-पत्र कविता की शकल में था। उसकी पंक्तियाँ थीं - 

एक और आशीष मुझे दें माँगी या अनमाँगी।
राजनीति के राज-रोग से मरे नहीं बैरागी।।

हम दोनों, शाहजहानाबाद स्थित सरकारी बंगले ‘पुतली घर’ के लॉन में बैठे थे। मैंने दादा से पूछा था - ‘दादा! आप तो प्रबल इच्छा शक्ति के धनी हैं। आपको यह डर क्यों?’ खुद में खोये-खोये उन्होंने जवाब दिया था - ‘डर नहीं। राजनीति में कभी-कभी वह भी करना पड़ जाता है जिसके लिए अपना मन गवाही नहीं देता। यहाँ पग-पग पर फिसलन है। ऐसे हर मौके पर मेरा मन मुझे टोकता रहे, इसके लिए मुझे सबकी  शुभ-कामनाएँ चाहिए। मेरी पूँजी तो मेरी प्राणदायिनी कलम है। तेने केवल दो पंक्तियाँ ही कही। दो पंक्तियाँ और हैं।’ मुझे वे पंक्तियाँ याद आ गईं -

मात शारदा रहे दाहिने, रमा नहीं हो वामा।
आज दाँव पर लगा हुआ है, एक विनम्र सुदामा।।

दादा बोले - ‘यह सुदामापन ही मुझे जिन्दा बनाए रखता है, ताकत देता रहता है। जिन लोगों ने मुझे यहाँ भेजा है, उनसे मैंने मदद माँगी है  िकवे मुझे सुदामा बने रहने में मेरी मदद करें। मेरी चिन्ता करें।’

बात मेरी समझ से बाहर होने लगी थी। मैंने कहा - ‘मैं उलझन में पड़ता जा रहा हूँ।’ सुनकर दादा ने भेदती नजरों से मुझे देखा और बोले - ‘मेरी-तेरी मानसिक निकटता पूरा परिवार जानता है। अब जो मैं तुझे कहने जा रहा हूँ, बहुत ध्यान से सुनना। मुन्ना-गोर्की (मेरे दोनों भतीजे) अभी बहुत छोटे हैं। बच्चे हैं। बई और दा’जी (माँ-पिताजी) घर तक ही सिमटे हैं और रहेंगे। एक तू ही है जो इधर-उधर घूमता नजर आएगा। (उस समय मेरी अवस्था बाईस बरस थी) तेरे पास अभी कोई काम-धन्धा भी नहीं है। मुझ तक पहुँचने का तू आसान जरिया है। इसलिए तुझसे कह रहा हूँ। एक-एक शब्द ध्यान से सुनना और गाँठ बाँध लेना।’

दादा की बात सुनकर मैं, जो तनिक पसर कर बैठा था, सीधा हो गया, खिसक कर उनकी ओर झुक गया। उस दिन दादा ने जो कहा, वह अब भी मेरे जीवन का पाथेय बना हुआ है। मैं निश्चय ही बड़भागी हूँ जो मुझे यह अमूल्य जीवन निधि मिली। दादा ने कहा - “ये जो मुझे मिनिस्ट्री मिली है ना, यह जितनी अचानक मिली है उससे अधिक अचानक कभी भी चली जाएगी। यह टेम्परेरी है। क्षण भंगुर। इसलिए, इस टेम्परेरी चीज पर कभी इतराना, घमण्ड मत करना। मुझसे काम करवाने के लिए तेरे पास बड़े-बड़े, आकर्षक ऑफर आएँगे। जब भी तेरे पास लालच भरा ऐसा कोई प्रस्ताव आए तब याद कर लेना - अपन ने भीख के कटोरे से जिन्दगी शुरु की है। जब तक कटोरा हाथ में न आ जाए, तब तक अपना कोई ‘नेट लॉस’ नहीं है। बस! इतने में सब समझ ले।”

दादा का उस दिन का कहा, इस पल तक जस का तस मेरी पोटली में बँधा हुआ है। दादा के इस जीवन सूत्र ने जो हौसला, अभावों, प्रतिकूलताओं से से जूझने का जो जीवट दिया, विचलित कर देनेवाले पलों में संयमित रहने का जो सम्बल दिया वह सब अवर्णनीय है। 

जैसी दादा ने कल्पना की थी, उनके मन्त्री काल में मेरे पास खूब ‘ऑफर’ आए। ऐसे-ऐसे कि ‘दलीद्दर’ धुल जाते। लेकिन तब भीख का कटोरा बेइज्जत हो जाता। लेकिन मुझे सन्तोष है कि दादा की सीख ने मुझे उस कटोरे की इज्जत बरकरार रखने की ताकत दी।

ऐसी ताकत जिसके पास हो वह न तो गरीब होता है न ही कमजोर। मैं वही हूँ। मेरे दादा की वजह से।
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(यहॉं दिया चित्र 12 अप्रेल 2018 का है। उस दिन हम हमारी भानजी प्रतिभा-विनोद की बिटिया के विवाह प्रसंग पर मन्दसौर में इकट्ठे हुए थे। चित्र मैंने ही लिया था।)

12 comments:

  1. वाह!क्या बात है!बहुत सुंदर और अविस्मरणीय श्रद्धार्पण......
    दादा अमर है!अमर रहेंगे!!उन्होंने मेरे संघर्षों को भी अपनी कलम की भूमिका से अमर कर दिया!हमारी तरफ से अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि!

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  2. श्रुद्धेय दादा को मेरा सप्रेम नमन

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  3. कोटि कोटि नमन । प्रार्थना कि सबके भाग्य में ऐसे बड़े भाई हों ।

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  4. दादा को नमन । आजकल राजनीति में ऐसे नेता और मंत्री मिलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है । कुबेर का ख़ज़ाना बन गई है राजनीति । राज करों, नीति भूल जाओ । यही बना दी गई है नीयति ।

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  5. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (14-05-2019) को "लुटा हुआ ये शहर है" (चर्चा अंक- 3334) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  6. दादा से मुझे अपार स्नेह मिला,मेरे बीमार होने पर वे मेरी कुशलक्षेम हेतु घर पधारे।दादा को हमने जहाँ आमंत्रित किया उन्होंने सहर्ष अपनी सहमति प्रदान की।वे हमारे बारे में जब भी कुछ अच्छा सुनते बड़े खुश होते,उनसे जब भी मिलते कुछ सीखकर ही लौटते एक नई ऊर्जा से भरकर।हमारा वह अक्षय स्त्रोत हमसे छिन गया है लेकिन उनकी जीवटता और ऊर्जा हमारा मार्गदर्शन करती है,करती रहेगी।उनकी स्मृति को शत शत नमन।

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  7. सदैव की। भांति ही बहुत रोचक और शिक्षाप्रद। जय हो। । ।विनम्र स्मरण।

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  8. मुझे आपके छोटे छोटे संस्मरण बहुत ही सुखद महसूस होता है

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  9. "नेट लॉस"....जीवन को खुलेपन से जीने के सूत्र दादा ने कमाल ही दिए हैं। अक्सर खो जाने के भय में जकड़े हम भूल जाते हैं कि जीवन हमारे हाथ से फिसलकर दूसरों का गुलाम हुआ जा रहा है। यूँ औरों के हाथों की कठपुतली होंते समय " नेट लॉस" को याद कर लें तो जिंदगी अपनी शर्तों पर जी पाएं।
    श्रध्येय दादा को चरण वंदन।
    - आलोक

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  10. सार्थक और प्रभावी
    दादा को नमन

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  11. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 112वीं जयंती - सुखदेव जी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.