खानदानी जमाइयों का ससुर

ये है हमारा लाला। लाला इसका असली नाम नहीं है। यह तो इसका ‘बोलता’, ‘घर का’ नाम है। वास्तविक नाम तो बृजभूषण शर्मा है। मकानों/भवनों की छतों पर ‘जल रोधी लेप’ लगाने (रूफ वाटरप्रूफिंग) का काम करता है। ईश्वर की कृपा से जरूरतें पूरी हो रहीं है। सो, पैसों के लिए जान नहीं झोंकता। सम्बन्धों को पूँजी मानता है इसलिए कभी-कभी घर में घाटा भी खा लेता। हर सीजन में कुछ लोग ‘आप तो अपनेवाले हो’ का वास्ता देकर भुगतान करने से हाथ जोड़ लेते हैं। लाला को घाटे का नहीं, सामनेवाले का, बात से पलट जाने का दुःख होता है। कहता है - ‘पैसा तो आनी-जानी चीज है। जितना तकदीर में होगा, उससे कम-ज्यादा नहीं होगा। नहीं देना था तो कोई बात नहीं। पर पहले ही बता देते! इस तरह झूठ बोलना अच्छी बात नहीं।’

लाला रतलाम रहता था। रतलाम में था तो इसने हमें अपने परिवार में शामिल कर रखा था। हमारा छोटा बेटा तथागत तो मानो इसकी ही गोद में बड़ा हुआ। इधर रात घिरती, उधर तथागत का दिन उगता। मेरी उत्तमार्द्धजी को नींद सताती। तब लाला ही तथागत को गोद में लिए, आधी-आधी रात तक हिलराता-दुलराता था। 

गए कई बरसों से लाला इन्दौरवासी हो गया है। लेकिन रतलाम से नाता नहीं टूटा। रतलाम आना-जाना बना रहता है। फर्क इतना पड़ा कि आने से पहले जाने का कार्यक्रम बना कर आता है। इसलिए हर बार मिलना नहीं हो पाता। जब कभी गुंजाइश होती है, मिलने घर जरूर आता है।

कल हम पति-पत्नी इन्दौर जाने के लिए भिण्ड एक्सप्रेस में बैठे तो लाला डिब्बे में मानो प्रकट हुआ। हम ‘सुखद आश्चर्य’ से उसकी शकल देखने लगे तो हँसते हुए बोला - ‘बैठने की जगह ढूँढ रहा था। आप दोनों पर नजर पड़ी तो तलाश खतम।’ उसने अपना झोला-झण्डा रखा और हम लोग रेल चलने से पहले ही बतियाने लगे।

मुझे लगा था, लाला धन्धे-पानी का कोई काम लेकर आया होगा। पूछने पर बोला - ‘नहीं। धन्धे-पानी का कोई काम नहीं था। आम के पौधे पहुँचाने आया था। हर बार तो सुबहवाली रेल से आ जाता हूँ। आज काम ज्यादा देर का नहीं था। इसलिए देर से आया और पौधे सौंप कर फटाफट स्टेशन आ गया। सुबह जल्दी आता तो मिलने घर पर जरूर आता।’ 

मुझे लगा, लाला ने नर्सरी का नया काम शुरु कर दिया है। घुमा-फिराकर पूछताछ करने लगा तो हँसकर बोला - ‘कोई नया धन्धा-वन्धा शुरु नहीं किया। अब क्या नया धन्धा शुरु करना? अभी जो काम है, उसी से फुरसत नहीं मिल रही।’ और उसके बाद जो कुछ उसने बताया वह सचमुच में तनिक अनूठा और अविश्वसनीय लगा। ‘अविश्वसनीय’ इसलिए कि जो उसने किया है, कर रहा है और इसे भविष्य में जारी रखने का इरादा जताया, उसके लिए हम सब उपदेश तो देते हैं लेकिन जब अपनी बारी आती है तो फौरन पल्ला छुड़ा लेते हैं।

लाला के आँगन में आम का एक पेड़ है। उस पर ‘मुरब्बा-आम’  आते हैं। मुरब्बा-आम याने जो खट्टे नहीं होते। उसके पड़ौसी सज्जन के आँगन में भी आम का एक पेड़ है। उस पर ‘केसर आम’ आते हैं। हर बरस की तरह इस बरस भी आम के मौसम में पक्षियों के खाये आम मिट्टी में गिरे। इस बरस बरसात कुछ अधिक ही हुई तो उनमें से कोई बीस-बाईस गुठलियाँ अंकुरित हो, पौधे बन गईं। ये पौधे आते-जाते लाला की आँखों में खुब गए। रतलाम के पास सैलाना में एक निजी वाटर पार्क की वाटरप्रूफिंग के लिए गया तो वहाँ खूब सारी खुली जमीन देखकर मालिक से पूछ बैठा - ‘मेरे पास आम के कुछ पौधे हैं। आप यहाँ लगाओ तो मैं ला दूँगा।’ मालिक ने कहा - ‘आपने तो मेरे मन की बात कह दी। फरक यही रहा कि मैं दो-चार महीने बाद पौधे लगाता। आपने आज ही कह दिया। आप पहुँचा दीजिएगा।’ उसी वाटर पार्क के लिए, आम के पाँच पौधे पहुँचाने के लिए लाला आज रतलाम आया था - गाँठ का रोकड़ा लगा कर और अपना कीमती समय निकाल कर। लाला ने इसके लिए सामनेवाले से धेला भी नहीं लिया। लाला ने कहा - ‘पौधे देखकर उनके चेहरे पर जो खुशी आई, वह देखकर मुझे तो मानो कुबेर का खजाना मिल गया भाई सा’ब!’

मुझे अच्छा तो लगा किन्तु अचरज भी हुआ। पूछा, ऐसा और भी कहीं किया है? लाला ने बताया कि दो जगह और उसने आम के पाँच-पाँच पौधे पहुँचाए हैं। इन्दौर में ही खण्डवा मार्ग स्थित आईटी पार्क में और हातोद स्थित, औद्योगिक केन्द्र विकास निगम के औद्योगिक परिसर में। ऐसा नही हुआ कि वह अपने किसी काम के लिए जा रहा था और पौधे भी साथ लिए चला गया। दोनों जगह वह केवल पौधे पहुँचाने के लिए अपना समय निकाल कर, भाड़े का वाहन लेकर गया। उसके पास अभी पाँच-सात पौधे और हैं जिनके लिए वह ‘सुपात्र’ देख रहा है। ‘सुपात्र’ याने वे सज्जन जो इन पौधों को लगाकर भूल न जाएँ।

यह सब सुनाते हुए लाला के चेहरे पर मानो होली के सारे रंग बरस रहे थे। उसकी खुशी अवर्णनीय थी। वह इस तरह सुना रहा था जैसे कोई बेटियों का बाप अपनी बेटियों को खानदानी हाथों में सौंपकर अपनी खुशी और निश्चिन्तता बयान कर रहा हो।

हम दोनों उसके चेहरे में देव-दर्शन कर रहे थे। उसे खूब-खूब बधाइयाँ दीं। हमारी हर बधाई पर वह संकुचित हो रहा था - ‘मैंने ऐसा क्या कर दिया कि आप मुझे बधाइयाँ दे रहे हैं। मैंने पौधे ही तो पहुँचाए हैं! और किया ही क्या है?’

लाला से विदा हुए लगभग चौबीस घण्टे होनेवाले हैं। उसके इस विनम्र जवाब का कोई जवाब मुझे अब तक नहीं सूझा है। आपके पास कोई जवाब हो (या आप उससे पौधे लेना चाहते हों) तो आप उससे मोबाइल नम्बर 96858 22767 पर बता दीजिएगा। जवाब या पौधे की जरूरत न भी हो तो एक अच्छा काम करनेवाले भले आदमी को बधाई देकर उसे उत्साहित तो आप कर ही सकते हैं।

पौधे विकसित करने और बाँटने का यह क्रम वह बनाए रखना चाह रहा है। मुमकिन है, अगले बरस वह दुगुने-तिगुने पौधे तैयार करे।
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