रोज-रोज के गाँधी (1)

 

 डॉ. वीरेन्द्र सिंह

लोग कहते हैं: ‘बहुत कठिन है गाँधी की राह पर चलना।’ डॉ। वीरेन्द्र सिंह कहते हैं: ‘बहुत आसान है यदि आप रोज-रोज उनकी तरफ चलते हैं।’ अपने ऐसे ही प्रयोगों की सरल डायरी लिखी है उन्होंने ‘गांधी-मार्ग’, जिसके कुछ पन्ने ‘गांधी-मार्ग’ के पाठकों के लिए धारावाहिक।


दैनिक समस्याओं के समाधान के बहुत से तरीके हैं, गाँधी-मार्ग भी उनमें से एक तरीका है। गाँधी-मार्ग का आधार है सत्य। सत्य या सच्चाई क्या है? विचार, वाणी और व्यवहार की एकरूपता ही सत्य है।

बचपन से ही गाँधीजी के बारे में सुना था। भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन में उनकी अहम भूमिका थी लेकिन यह भी सुना था कि देश के बँटवारे में भी उनकी सहमति थी।

महात्मा गाँधी के सचिव महादेव देसाई के पुत्र नारायण देसाई गाँधी-कथा कहने के लिए जून 2006 में जयपुर आए थे। सप्ताह भर चलने वाली इस कथा में मैं अपने मित्र एवं भाई धर्मवीर कटेवा के निजी आग्रह पर, अपनी पत्नी सरिता के साथ वहाँ गया। सोचा था कि कुछ समय सुनकर लौट आएँगे। लेकिन ज्यों ही नारायण भाई का उद्बोधन शुरू हुआ, मैं उसमें डूबता चला गया। इतना अच्छा लगा कि न केवल उस दिन बल्कि रोजाना शाम तीन घण्टे क्लिनिक की छुट्टी कर हमने यह कथा सुनी। गाँधीजी के प्रति मेरी श्रद्धा प्रबलतर होती गई और मैं समझ सका कि गाँधीजी न केवल राजनीतिज्ञ थे अपितु समाज सुधारक होने के साथ-साथ आध्यात्मिक एवं सात्विक वृत्तियों के पोषक थे।

जिस तरह से देश की आजादी के आन्दोलन को गाँधीजी का नेतृत्व मिला, उसी तरह आजादी के बाद भी उनका नेतृत्व मिलता तो देश के नवनिर्माण की तस्वीर कुछ और ही होती। लेकिन भगवान को शायद यह मंजूर नहीं था।

बचपन से ही मैं आदर्शों की ओर आकर्षित होता रहा हूँ। लेकिन मेरी प्रवृत्ति गाँधी-मार्ग के अनुरूप है, इसका ज्ञान मुझे गाँधी-कथा में जाकर ही हुआ। मैंने गाँधी-मार्ग को आचरण में उतारने का फैसला किया।

जयपुर के एस.एम.एस. मेडिकल कॉलेज में विभिन्न पदों पर कार्य करते हुए, पिछले कुछ वर्षों के प्रयोगों के बाद, आज मेरा दृढ़ विश्वास है कि चिन्तामुक्त जीवन एवं परिवार में अनुशासन लाने के लिए गाँधी-मार्ग एक अच्छा उपाय हैं। मैंने इसके कुछ प्रयोग अपनी दिनचर्या में किए जिन्हें आप तक पहुँचा रहा हूँ। इन प्रयोगों से मिली सफलता से मुझे एक अनूठा सन्तोष प्राप्त हुआ। मुझमें तथा दूसरों में आए बदलावों ने मेरे विश्वास को निरन्तर बल प्रदान किया है।

मेरे प्रयोग की शुरुआत ‘सात्विकता: एक पहल’ कार्यक्रम से हुई। शुरुआत की स्लाइड में एक लड़के की कहानी बताई जाती है कि कैसे वह लड़का छठवीं कक्षा में 48 में से 47वें स्थान पर रहा, बोर्ड की परीक्षा में फेल हो गया, और-तो-और पिता के पैसे चुराकर बीड़ी भी पीता था। अगली स्लाइड में दर्शक युवाओं से प्रश्न होता है: ‘आप अपने को इस छात्र से अच्छा समझते हैं या बुरा?’ मैं पूछता था: ‘जो अपने को इस लड़के से अच्छा समझते हैं, वे हाथ खड़ा करें।’

लगभग सभी छात्र हाथ खड़ा कर बताते कि इस कहानी वाले लड़के से वे अच्छे हैं। अगली स्लाइड: ‘वह लड़का कोई और नहीं, महात्मा गाँधी हैं।’ फिर मैं छात्रों से पूछता कि आप सभी गाँधी से अच्छे हैं तो महात्मा गाँधी क्यों नहीं बन सकते? एक बुरा लड़का महात्मा गाँधी बना, तो उनकी बातों को अपना कर आप गाँधीजी से भी ज्यादा सफल हो सकते हैं।’

इसके बाद लक्ष्य-निर्धारण, आत्मनिरीक्षण, कोई गलती दोबारा नहीं होने देने का तरीका, अन्याय के प्रतिरोध का हथियार सत्याग्रह जैसी बातों पर छात्रों के साथ चिन्तन किया जाता है। करीब एक घण्टे के कार्यक्रम उपरान्त, छात्रों को एक प्रयोग दिया जाता है। सबको सौ रुपये दिए जाते हैं: ‘इसमें से तुम्हें 50 रुपये स्वयं पर तथा 50 रुपये किसी अनजान, जरूरतमन्द व्यक्ति पर खर्च करने हैं।’ फिर उन्हें बताना होता है कि स्वयं पर खर्चने पर या किसी की मदद करने पर, ज्यादा खुशी किसमें मिली? बड़े अच्छे-अच्छे खत हमें मिले। एक खत इस प्रकार था:

“मैं जीवन में ‘काम अपना बनता, भाड़ में जाए जनता’ मानता था। आपसे जब 100 रुपये मिले तब एक ही बात दिमाग में थी कि मौज करूंगा! घर जाते समय रास्ते में एक गाय मिली - लंगड़ाती हुई चल रही थी। उसके एक पाँव से खून भी बह रहा था। अचानक मुझे सूझा कि गाय की मदद करूँ। पास ही दवा की एक दुकान थी। मैं दुकान पर गया और मरहमपट्टी का सामान खरीदा। दुकानदार परिचित थे। उन्होंने पूछा: ‘किसको चोट लगी है?’ मैंने बताया कि गली खड़ी एक घायल गाय की पट्टी करनी है। 

उन्होंने सामान दे दिया। जब मैंने पैसे पूछे तो कहाः ‘ले जाओ, पैसे नहीं लूँगा।’ मैं चकित हुआ। पहले दर्जनों बार सामान खरीदते समय, जब भी मैं इनसे मोल-भाव करता तो 1-2 रुपये कम करवाने में भी मुझे बहुत जोर लगाना पड़ता था। आज ऐसे दुकानदार ने पैसे नहीं लेने की बात कही? मैंने जबरदस्ती उन्हें 20 रुपये दिए। मैं गाय की पट्टी करने लगा। रास्ते चलते तीन-चार लोग मेरी मदद को आगे आ गए। मुझे बड़ा ही आश्चर्य हुआ। मैं तो मानता था कि कोई किसी की मदद नहीं करता। अब मानता हूँ कि मदद करने में न केवल ज्यादा खुशी मिलती है बल्कि दूसरे भी मदद के लिए आगे आते हैं।”

वर्षों से स्कूली बच्चों के लिए यह कार्यक्रम आयोजित किया जाता है। एक ग्राम अच्छी बात जीवन में अपनाना, एक क्विण्टल उपदेश से ज्यादा उपयोगी है। गाँधीजी की इसी मान्यता का प्रयोग हम करते हैं: ‘गलती पकड़े जाने पर गलती करने वाले से चर्चा अवश्य करनी चाहिए। संभव है, चर्चामात्र से गलती करने वाला परिष्कार कर ले।’

गाँधीजी जब 13 साल के थे तो उन्होंने अपने दोस्तों को एक पार्टी दी। लेकिन एक दोस्त को आमन्त्रित करना भूल गए। अगले दिन उस दोस्त ने शिकायत की। गाँधीजी ने इसे एक बड़ी गलती माना। मन में ग्लानि हुई। ‘ऐसी चूक फिर न हो, इसके लिए क्या करूं?’ उन्होंने तीन महीनों के लिए अपना सबसे चहेता फल आम न खाने का संकल्प किया।

गाँधीजी ने अपने जीवन में गलतियाँ तो कीं परन्तु उन्हें कभी दोहराया नहीं। एक गलती दो बार नहीं की। उनका तरीका था- प्रायश्चित।

एस.एम.एस. अस्पताल में अधीक्षक पद पर रहते हुए मैंने प्रायश्चित की इस विधि का प्रयोग किया। प्रत्येक प्रयोग तीन चरणों में हुए। पहले चरण में गलती करने वाला स्वीकार करता था कि गलती हुई और ग्लानि महसूस करता था। दूसरे चरण में दोबारा वह गलती न करने का संकल्प लेता था और तीसरे चरण में प्रायश्चित करता था।

० मैं अपनी पत्नी के साथ एक बार दोस्त डॉ. सन्दीप निझावन की बेटी की शादी में गया। बारात आने में देर हुई, सो वरमाला में भी देरी हुई। मेरी पत्नी सरिता वरमाला तक रुकना चाहती थी। रात्रि 11ः30 बज चुके थे। मेरे एक मित्र डॉ. निर्मल जैन भी हमारे साथ थे। इसलिए मैं जल्दी घर लौटना चाहता था। मेरा मन देखकर पत्नी मेरे साथ घर लौट आई। घर वापसी पर सरिता मुझे कुछ दुखी दिखाई दी। वरमाला एक नये तरीके से आयोजित की गई थी और सरिता की हार्दिक इच्छा थी उसे देखने की। मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ। पत्नी के प्रति अपनी संवेदनहीनता पर आत्मग्लानि हुई। प्रायश्चित स्वरूप मैंने एक महीने के लिए अपनी पसन्दीदा आइसक्रम नहीं खाने का निर्णय लिया। मुझे अपनी पत्नी की इच्छाओं के प्रति अधिक संवेदनशील बनने की प्रेरणा मिली।

० ० अस्पताल में इमरजेंसी बहुत महत्वपूर्ण विभाग है। वहाँ रेजिडेण्ट्स एवम् मेडिकल ऑफिसर्स के अलावा सहायक प्रोफेसर स्तर के सीनियर डॉक्टरों की ड्यूटी रहती है। सीनियर डॉक्टर अक्सर ड्यूटी पर नहीं रहते थे। अस्पताल के अधीक्षक के तौर पर मैंने ड्यूटी रिपोर्ट का फॉर्म बनाया और समय-समय पर उसकी जाँच भी की जाने लगी।

रात्रि पारी में एक सहायक प्रोफेसर ड्यूटी पर नहीं आए। वे नेत्र विभाग के थे। बुलाने पर उन्होंने बताया कि ऑपरेशन थियेटर में लेट हो गए। ‘लेकिन इमरजेंसी ड्यूटी का अपना महत्व है।’ मैंने कहा। ‘गलती हो गई सर! आगे ऐसा नहीं होगा।’ वे बोले।

मैंने पूछा, ‘गलती का प्रायश्चित क्या करोगे?’ ‘कैसा प्रायश्चित? मैं समझा नहीं, सर!’ तब मैंने गाँधीजी के प्रायश्चित वाली बात उन्हें समझाई। जब मैं यह बता रहा था तभी उनके चेहरे पर ग्लानि के भाव प्रकट होने लगे।

००० कार्डियो-न्यूरो इमरजेंसी के एक कम्पाउण्डर ड्यूटी पर नहीं आए। कारण पूछा तो, उन्होंने माफी माँग कर गलती दोबारा नहीं दोहराने की बात कही। ‘प्रायश्चित क्या करोगे?’ उन्होंने रक्तदान की इच्छा प्रकट की। ए/बी वार्ड के बेड नं. 8 पर एक बूढ़े बाबा थे जिनको रक्त की जरूरत थी लेकिन परिवार में कोई रक्तदान करने वाला नहीं था। उनसे परिचय करवाते हुए रोगी से कहा गया कि कम्पाउण्डर साहब अपना रक्त देकर आपकी मदद करना चाहते हैं।

बाबा बिस्तर में घुटनों के बल बैठ गए। दोनों हाथ जोड़, चेहरे पर कृतज्ञता के पूरे भाव लाकर बोले: ‘बाऊजी! आप भगवान हैं। मैं आपका अहसान कभी नहीं चुका पाऊँगा।’ फिर अपने कृषकाय हाथों से एक थैली, जो पास के स्टूल पर पड़ी थी, उठाई और कहा, ‘मैं आपको कुछ नहीं दे सकता लेकिन यह बर्फी का टुकड़ा लीजिए।’ हतप्रभ दिनेश ने बाबा के काँपते हाथों से बर्फी का टुकड़ा अपने मुँह में रख लिया। दिनेश भावविह्वल हो उठे थे और उनकी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी थी। दिनेश ने पहले भी अपनों के लिए रक्तदान किया था लेकिन एक अनजान के लिए जब उन्होंने रक्तदान किया तो पाया कि इस बार उन्हें पहले से कई गुना अधिक खुशी मिली। वे अपनी ड्यूटी के प्रति ज्यादा संवेदनशील बने।

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(अगले अंक में कुछ और पन्ने)

द्विमासिक ‘गांधी-मार्ग’  के, मई'जून 2022 के अंक से साभार




3 comments:

  1. वाह वाह!मार्मिक अभिव्यक्ति।

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    1. ब्‍लॉग पर पधाने के लिए और टिप्‍पणी करने के लिए बहुत-बहुत धन्‍यवाद।

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  2. बहुत-बहुत धन्‍यवाद।

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