कल शाम हम चारों पहले तो हतप्रभ हुए, फिर उदास और फिर निराश। बैठे तो थे ‘वक्त कटी’ के लिए। किन्तु पता नहीं, एक दूसरे की टाँग खिंचाई करते-करते, कब और कैस हमारा ‘फुरसतिया चिन्तन’ गम्भीर अन्त पर पहुँच गया। कुछ इस तरह मानो ‘शान्तता कोर्ट चालू आहे’ साकार हो गया।
कड़ाके की सर्दी चल रही है। पारा चार डिग्री तक लुड़क गया है। ढेर सारा काम निपटाना है किन्तु कोई काम करने का जी नहीं कर रहा। ऐसी ही मनःस्थिति में हम चारों, सड़क किनारे, मनोज के चाय ठेले पर मिल बैठे। चारों के चारों साठ पार - याने चारों के चारों ‘श्रेष्ठ आदर्श बघारु।’ कॉलेज के दिनों की अपनी-अपनी आदिम हरकतों का गर्व-गौरव बखान करते-करते हम, प्रशासन द्वारा चलाए जा रहे ‘अतिक्रमण हटाओ अभियान’ पर आ गए। बाजना बस स्टैण्ड, लक्कड़पीठा, चाँदनी चौक, न्यू रोड़, सैलाना रोड़, कोर्ट चौराहा, छत्री पुल, बाल चिकित्सालय आदि इलाकों की शकलें बदल गईं। सड़कें अचानक ही चौड़ी हो गईं। जिन सड़कों, चौराहों से निकलने के लिए ‘पीं-पीं’ करते हुए सरकस और कसरत करनी पड़ती थी, वहाँ से अब, हार्नों के शोरगुल के बिना ही ‘सर्र’ से निकला जा सकता था। साफ-सुथरा कस्बा देख कर अब लग रहा है कि पहले यही कस्बा गितना गन्दा और विकृत बना हुआ था।
किन्तु इस सुन्दरता को उजागर करने के लिए हजारों नहीं तो सैंकड़ों लोगों को तो अपने-अपने रोजगार के लिए नई जगहें तलाश करनी पड़ेंगी। विस्थापितों ने सरकार से नई जगह माँगनी शुरु कर दी है।
अचानक ही यह तथ्य उभर कर सामने आया कि अतिक्रमण हटाने और कस्बे को सुन्दर बनाकर यातायात सुगम बनाने का यह अभियान पूरी तरह से ‘प्रशासकीय’ है। इसमें ‘शासन’ याने हमारे निर्वाचित जन प्रतिनिधि कहीं दिखाई नहीं दे रहे - न तो अभियान का समर्थन करते हुए और न ही विस्थापितों को वैकल्पिक जगहें दिलाने के लिए। जिन्हें हटाया गया उनके प्रतिवाद-प्रतिकार में भी याचना ही प्रमुख है, आक्रोश नहीं। और तो और, अतिक्रमण हटाने में प्रशासन द्वारा पक्षपात बरतने का पारम्परिक आरोप भी नहीं लगा।
हम लोग धीरे-धीरे निष्कर्ष पर पहूँच रहे थे। हमें लगने लगा कि ‘शासन’ याने निर्वाचित जनप्रतिनिधियों ने अपनी भूमिका बिलकुल ही नहीं निभाई। उनके जरिए ‘जन अभिलाषाओं का प्रकटीकरण’ होता है किन्तु हमें लग रहा था उन्होंने ‘अपनेवालों की अभिलाषाओं’ की चिन्ता की। उन्होंने ‘अपनेवालों’ को उपकृत किया और ऐसा करने में व्यापक जन हितों की अनदेखी और उन पर कुठाराघात किया। उन्होंने ‘अपनेवालों’ को अतिक्रमण करने के लिए प्रोत्साहन, खुली छूट भी दी और राजनीतिक संरक्षण भी। कस्बे को विकृत-विरूप किया। व्यापक जनहितों की रक्षा करने के अपने न्यूनतम उत्तरदायित्व को वे सब भूल गए। तुर्रा यह कि ये सबके सब ‘नगर का विकास’ करने की दुहाई देकर चुने गए थे।
इसके ठीक विपरीत, जो ‘प्रशासन’ मनमानी, अधिकारों के दुरुपयोग, लोगों की बातें न सुनने जैसे पारम्परिक आरोपों से घिरा रहता है उसी प्रशासन ने मानो जनभावनाएँ समझीं और तदनुरूप कार्रवाई कर सरकारी जमीन को अतिक्रमण मुक्त कराया, कस्बे की सुन्दरता लौटाई और लोगों को सुगम यातायात उपलब्ध कराने की कोशिश की। उल्लेखनीय बात यह रही कि इन कोशिशों में प्रशासन ने समानता बरती। न तो किसी को छोड़ा और न ही किसी को अकारण छेड़ा। इस समानता और निष्पक्षता के कारण ही तमाम निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की बोलती बन्द रही। एक भी माई का लाल मैदान में नहीं आया।
तो क्या अब ‘जनभावनाओं का प्रकटीकरण’ हमारे अफसर करेंगे? तब, हमारे जनप्रतिनिधि क्या करेंगे? वे अनुचित, अनियमितताओं, अवैधानिकताओं को प्रोत्साहित-संरक्षित करेंगे? और, उनकी इन हरकतों से मुक्ति पाने के लिए हमें अफसरों के दरवाजे खटखटाने पड़ेंगे? उन अफसरों के, जो जनसामान्य से दूर रहने, मनमानी करने, भ्रष्टाचार कर अपनी जेबें भरने जैसी बातों के लिए जाने-पहचाने जाते हैं और बदनाम हैं? तो क्या, हमारे जनप्रतिनिधियों और अफसरों ने अपनी-अपनी भूमिकाएँ बदल ली हैं?
हम चारों ही अचकचा गए। हमारी बोलती बन्द हो गई। हम एक दूसरे की ओर देख रहे थे - चुपचाप।
शायद हम चारों, एक दूसरे से पूछने से बच रहे थे - यह लोकतन्त्र का कैसा स्वरूप है?
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जन अभिलाषाओं के प्रकटीकरण के स्थान पर नेताओं की मन-अभिलाषाओं के नग्न स्वरूप का विद्रूप चित्रण रह गया है, लोकतन्त्र।
ReplyDeleteक्या कहूँ इस पर.....
ReplyDeleteआपको और आपके परिवार को मकर संक्रांति के पर्व की ढेरों शुभकामनाएँ !"
ReplyDeleteऐसे सुधार जनहितकारी, आवश्यक और अवश्यम्भावी हैं। परंतु विकास के पथ में मानवीय पहलूओं को नकारा नहीं जाना चाहिये। याद रहे कि कुछ इंसानों की सुविधा के सुधार अन्य इंसानों की (ईमानदार/न्यायसम्मत) रोज़ी की कीमत पर नहीं हो सकते हैं।
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