“कौन सा आयोजन कर रहे हैं? कब कर रहे हैं?”
“कोई आयोजन नहीं कर रहा।
“अकेले नहीं कर रहे तो आप कुछ लोग मिल कर कर रहे हैं?”
“नहीं। न तो मैं अकेला कोई आयोजन कर रहा हूँ और न ही हम कुछ लोग मिल कर कोई आयोजन कर रहे हैं।”
“तो फिर किसी संस्था के किसी आयोजन की तैयारी कर रहे हैं?”
“नहीं। किसी संस्था के किसी आयोजन की भी तैयारी नहीं कर रहा हूँ।”
“तो फिर यह लिस्ट किसलिए?”
“कौन सी लिस्ट?”
“यही। पतों और मोबाइल नम्बरों सहित नामों की लिस्ट। आपके टेबल पर पड़ी है।”
“अच्छा! वह लिस्ट? वह तो बस! यूँ ही।”
“वाह! यूँ ही कैसे? इस लिस्ट में कुछ नाम कटे हुए हैं और कुछ पर टिक का निशान लगा हुआ है!”
“यह लिस्ट मैंने नहीं बनाई।”
“आपने नहीं बनाई? तो किसने बनाई?”
“पाठकजी ने बनाई।”
“पाठकजी ने? अपने पासवाले रमेशजी पाठक ने?”
“नहीं। रमेशजी पाठक ने नहीं।”
“तो फिर कौन से पाठकजी ने बनाई?”
“प्रोफेसर अभय पाठक ने।”
“क्यों? उन्होंने क्यों बनाई?”
“मेरे कहने से बनाई।”
“क्यों? आप कोई आयोजन कर रहे हैं?”
“मैंने पहले ही कहा न! मैं कोई आयोजन नहीं कर रहा।”
“तो फिर आपने लिस्ट क्यों बनवाई?”
“कभी, कोई आयोजन करें तो किस-किस को बुलाएँ, इसलिए बनवाई।”
“अच्छा। इसका मतलब है कि पाठकजी कोई आयोजन नहीं कर रहे।”
“मुझे नहीं पता कि पाठकजी कोई आयोजन कर रहे हैं या नहीं।”
“नहीं। नहीं। मेरा मतलब है कि पाठकजी ने यह लिस्ट अपने किसी आयोजन के लिए नहीं बनाई।”
“हाँ। मैंने पहले ही कहा है कि पाठकजी ने यह लिस्ट मेरे कहने से बनाई।”
“अच्छा। लेकिन इसमें तो कुल तेईस ही नाम हैं। आयोजन में इतने ही लोगों को बुलाएँगे?”
“यह तो तय नहीं कि कितने लोगों को बुलाएँगे लेकिन तेईस से ज्यादा ही लोगों को बुलाएँगे।”
“तो पाठकजी ने इतने ही नाम क्यों लिखे? और इसमें मेरा नाम तो है ही नहीं।”
“उनसे कहा था कि वे उन लोगों की सूची बनाकर दें जो उनके सम्पर्क में हैं।”
“अच्छा। लेकिन इसमें मेरा नाम क्यों नहीं है? मैं भी तो उनके सम्पर्क में हूँ!”
“आपका नाम मेरी लिस्ट में है।”
“क्या मतलब? आप दो लोग मिल कर लिस्ट बना रहे हैं?”
“केवल दो नहीं। हम पाँच-सात लोग मिल कर लिस्ट बना रहे हैं।”
“पाँच-सात लोग मिल कर? क्यों भला?”
“हर आदमी के अपने-अपने सम्पर्क होते हैं। कई नाम ऐसे होते हैं जो सबकी लिस्ट में मिल जाएँगे। लेकिन सबके नाम सबकी लिस्ट में नहीं मिलेंगे। तो, इस तरह नाम छाँट कर एक बड़ी और व्यापक लिस्ट तैयार हो जाएगी।”
“अच्छा। तो इसका मतलब है कि आप लोग कोई आयोजन करनेवाले हो।”
“नहीं। हम लोग कोई आयोजन नहीं कर रहे।”
“तो फिर लिस्ट बनाने की हम्माली क्यों कर रहे हैं?”
“कहा ना? कभी, कोई आयोजन करना पड़े तो अधिकाधिक लोगों को बुलाया जा सके, इसलिए।”
“लेकिन किसी आदमी के यहाँ कोई काम पड़ता है तो वह अपने नाते-रिश्तेदारों को, व्यवहारवालों को, दोस्तों को, मिलनेवालों को ही बुलाता है।”
“हाँ। आपने ठीक कहा।”
“तो फिर इस लिस्ट का मतलब? आपने अभी कहा कि आप लोग जो लिस्ट बनाओगे उसमें ऐसे लोगों के नाम भी होंगे जिन्हें आप नहीं जानते और जिनसे आपका कोई लेना-देना, कोई व्यवहार नहीं है?”
“हाँ। ऐसे नाम तो होंगे ही। इसीके लिए तो सबसे अपनी-अपनी लिस्ट बनाने को कहा है।”
“आपकी बात समझ में नहीं आई।”
“कौन सी बात समझ में नहीं आई?”
“यही कि अपने घर पर काम होने पर अपने नाते-रिश्तेदारों को, व्यवहारवालों को, मिलनेवालों को, दोस्तों को ही बुलाते हैं।”
“हाँ। ठीक तो है!
“तो फिर इस लिस्ट का मतलब?”
“यह लिस्ट हममें से किसी के यहाँ होनेवाले पारिवारिक काम के लिए नहीं है।”
“कमाल है! तो फिर किसलिए है?”
“कभी कोई साहित्यिक, ललित कलाओं से जुड़ा कोई आयोजन हो तो उसमें बुलाने के लिए।”
“हत्त-तेरे की! आप भी कमाल करते हो! पहले ही बता देते!”
“कमाल तो आप कर रहे हैैं। आप जो-जो सवाल पूछते रहे, वही-वही जवाब तो मैंने दिए!”
“नहीं। आपने घुमा-फिरा कर जवाब दिया।”
“नहीं। मैंने तो, जैसा आपने गाया, वैसा ही बजाया।”
“नहीं! नहीं! आप मेरे मजेे ले रहे थे।”
“आप खुद को ‘मजा लेनेवाली चीज’ समझते हैं?”
“फिर? आप फिर मेरे मजे ले रहे हैं।”
“नहीं। मैं तो आपके आरोप पर अपना स्पष्टीकरण दे रहा हूँ।”
“आप भी बस! आपसे तो बात करना ही बेकार है।”
“इतनी सी बात आपको इतनी सारी बातें करने के बाद समझ में आई?”
“फिर? आप कभी चुप भी रहेंगे?”
“मैं चुप रहूँगा तो आप इसी बात पर नाराज हो जाएँगे कि मैं आपके सवालों के जवाब क्यों नहीं दे रहा।”
“आप से तो भगवान बचाए। गुनहगार मैं ही हूँ।”
“इसमें गुनहार होने न होने की बात बीच में कहाँ आ गई?”
“येल्लो! मेरी मति मारी गई जो आपसे बहस कर रहा हूँ।”
“आप भले ही कर रहे हों, मैं तो बहस नहीं कर रहा। मैं तो आपके सवालों के जवाब दे रहा हूँ।”
“अच्छा। आप जीते। मैं हारा। अब तो आप खुश?”
“तो आप मुझे खुश करने के लिए अब तक यह सब कर रहे थे? मैं तो आपके आने से ही खुश हो गया था।”
“हे! भगवान! प्राण लेंगे क्या?”
“आपसे मिल कर, आपको देखकर मुझे सदैव ही खुशी होती है। आप ही बताइए, जिससे खुशी मिलती है, उसके प्राण लिए जाते हैं?”
“आपके हाथ जोड़े। मैं चलता हूँ। जितनी देर बैठूँगा, उतनी ही अपनी फजीहत करवाऊँगा। नमस्कार।”
“कहाँ चल दिए? आपने मेरी बात तो सुनी ही नहीं!”
“हें! तो मैं अब तक क्या कर रहा था?”
“अब तक आप मुझसे सवाल कर रहे थे। अपनी बात कहे जा रहे थे।”
“हे! भगवान! फिर मैं ही दोषी? चलिए। कहिए। क्या कहना है?”
“बस। यही कि ऐसी ही एक सूची आप भी बना कर दे दीजिएगा - आपके मिलनेवालों के नाम, पतों और मोबाइल नम्बरों सहित।”
“अरे! जब आप लोग.........नहीं। नहीं। दे दूँगा। जल्दी ही दे दूँगा। बनते कोशिश कल ही दे दूँगा। बस? नमस्कार।”
“नमस्कार। फिर आइएगा।
(वे थोड़ी ही देर पहले गए हैं। कुछ काम से आए थे। मेरी टेबल पर रखे कागजों को उलटना-पलटना और खोद-खोद कर पूछताछ करना उनकी आदत है। इसी के चलते उन्हें एक सूची नजर आ गई। उसके बाद जो हुआ, वही आपने पढ़ा। इस चक्कर में वही काम भूल गए जिसके लिए आए थे।)
अच्छी रचना !
ReplyDeleteबड़ा घुमाया इस लिस्ट की उत्सुकता ने . आखिर मुंह से यही निकला - मेहरबां कैसे कैसे!
ReplyDeleteखूब गुजरी , ऐसे लोग अपनी मेहरबानियाँ सब जगह बिखेरते चलते हैं
ReplyDeleteवैसे आप लोग कितनी सूचियाँ कितने लोगों के साथ मिलकर बना रहे हैं ?
ReplyDeleteअब समझ आया आप इतना रोचक लेखन कैसे कर पाते हैं।
ReplyDelete