“माननीय बैरागीजी! यूपीए सरकार के टू जी, थ्री जी, सी डब्ल्यू जी, कोलगेट जैसे घपलों और भ्रष्टाचार पर आपकी क्या राय है? कृपया बताने का कष्ट करें।”
विधान सभा चुनावों के दौरान 2013 में यह सवाल मेरे उन कृपालु ने (फेस बुक पर) पूछा था जो आयु में मुझसे छोटे हैं। एक तो आयु और दूसरे उनकी संस्कारशीलता। इसलिए वे मेरा बहुत लिहाज करते हैं और शायद इसीलिए यह सवाल मुझसे आमने-सामने नहीं पूछ सके होंगे। इसका समानान्तर सच यह है कि मुझे वे मुझसे बेहतर मनुष्य लगते हैं इसलिए मैं उनका लिहाज करता हूँ और इसीलिए मैं भी आमने-सामने उत्तर नहीं दे पाया। फेस बुक पर ही दे पाया। (वैसे भी, जिस मंच पर सवाल पूछा गया हो, जवाब भी उसी मंच पर दिया जाना चाहिए।)
सवालों की सापेक्षिकता मुझे हर बार पेरशान करती है। हमारे राजनेताओं और राजनीतिक दलों के व्यवहार की विसंगतियाँ और विराधोभास सदैव ही मुझे आकर्षित करते रहे हैं। अब भी करते ही हैं। कथनी और करनी में अन्तर कौन राजनेता और कौन राजनीतिक दल नहीं करता? किन्तु यह संयोग ही है कि केवल भाजपाई, भाजपा और संघ परिवार ही आदर्शों का बघार सबसे ज्यादा लगाते हैं और खुद के सिवाय बाकी सबको भ्रष्ट, बेईमान और अराष्ट्रवादी साबित करने को उतावली बरतते हैं। सो, उनकी विसंगतियों और विरोधाभासों पर बारीक-बारीक चुटकियाँ लेते रहता हूँ। मेरे इन कृपालु को मेरी ऐसी हरकतें पसन्द नहीं आतीं। इसीलिए उन्होंने मुझे घेरने की यह कोशिश की।
मुझे अच्छा भी लगा और उनकी मासूमियत पर हँसी भी आई। मैंने सहज भाव से जवाब दिया - “यूपीए सरकार के टू जी, थ्री जी, सी डब्ल्यू जी, कोलगेट जैसे घपलों और भ्रष्टाचार पर मेरी राय बिलकुल वही है जो एनडीए सरकार के कार्यकाल में और भाजपा शासित राज्य सरकारों के कार्यकाल में हुए घोटालों, घपलों और भ्रष्टाचार पर रही है। मेरी इस राय पर आपकी राय क्या है, यह जानने की उतावली मुझे बनी रहेगी। कृपया याद रखकर सूचित अवश्य करें।”
मैं जानता था कि उनकी राय मुझे कभी नहीं मिलेगी। मिल भी नहीं सकती थी। इस सवाल-जवाब (और मेरे अनुत्तरित सवाल) के बाद उनसे दो-तीन बार मुलाकात हुई। उनकी दशा देखकर मैं दुःखी हो गया। वे एक बार भी सहज और सामान्य होकर नहीं मिले। बात करते हुए वे ‘नत दृष्टि’ रहे। ऐसा मैंने कभी नहीं चाहा था।
केवल भ्रष्टाचार-घपलों को लेकर ही नहीं, प्रायः प्रत्येक अनुचित के प्रति हमारा, ऐसा सापेक्षिक दृष्टिकोण और व्यवहार ही हमारे मौजूदा संकटों का एकमात्र कारण लगता है मुझे। भ्रष्टाचार केवल भ्रष्टाचार होता है। अनुचित केवल अनुचित होता है। उसके प्रति सापेक्षिक दृष्टिकोण और व्यवहार बरतना अपने आप में भ्रष्टाचार और अनुचित है - ऐसी मेरी सुनिश्चित धारणा है। ऐसे सवाल पूछकर हम क्या जताना चाहते हैं? या तो यह कि चूँकि मेरे पूर्ववर्तियों/विरोधियों ने भ्रष्टाचार और अनुचित किया है इसलिए मुझे भी भ्रष्टाचार और अनुचित करने दिया जाए या फिर यह कि इसी तर्क पर मेरे भ्रष्टाचार, मेरे अनुचित की अनदेखी की जाए, उसे सहजता से स्वीकार किया जाए और उसकी अनदेखी की जाए।
यह सापेक्षिक दृष्टिकोण मेरे गले नहीं उतरता। मेरा नियन्त्रण केवल मुझ पर है। सामनेवाले को तो छोड़ दीजिए, मेरी उत्तमार्द्ध और मेरे बच्चों पर भी मेरा नियन्त्रण नहीं है। ऐसे में, जो भी करना है, मुझे ही करना है और मुझ से ही करना है। सामनेवाले के अनुचित को, भ्रष्टाचार को मैं तभी अनुचित और भ्रष्टाचार साबित कर पाऊँगा जब मैं खुद भ्रष्टाचार और अनुचित नहीं करूँ। यदि मैं भी उसके जैसा ही करता हूँ तो उसमें और मुझमें फर्क ही क्या है? उसके भ्रष्टाचार, उसके अनुचित को मैं कैसे गलत कह सकूँगा और कैसे उसका विरोध कर सकूँगा?
यदि हम सचमुच में सदाचारी, स्वच्छ देश और समाज चाहते हैं तो इसकी शुरुआत हमें खुद से ही करनी पड़ेगी। लेकिन हमारे तमाम नेता, तमाम राजनीतिक दल और उनके तमाम अन्ध-समर्थक इसका ठीक उलटा कर रहे हैं। वे दूसरे को सुधारने में दिन-रात लगे हुए हैं। वे या तो जानते नहीं या फिर जानबूझ कर जानना नहीं चाहते कि वे कभी सफल नहीं हो सकेंगे। यदि सामनेवाले को सुधरना होता तो आपके कहने की प्रतीक्षा करता? खुद ही सुधर जाता।
वे (और हम) सब जानते हैं कि सुधार की शुरुआत खुद से ही की जानी चाहिए। लेकिन उसके लिए अत्यधिक आत्म-बल, दृढ़ इच्छा शक्ति आवश्यक होती है। इसमें परिश्रम भी अधिक करना पड़ता है और काफी-कुछ छोड़ना पड़ता है। दूसरे को बिगड़ा हुआ कहना, उसे कटघरे में खड़ा करना, उसकी खिल्ली उड़ाकर उसकी अवमानना करना अधिक आसान और मजेदार होता है। सो, सब (‘सब’ याने हम सब) यही कर रहे हैं।
सुधरना तो सब चाहते हैं किन्तु बड़ी विनम्रता, शालीनता और संस्कारशीलता से कह रहे हैं - “हुजूर! पहले आप।”
सच सुधार अपने आप से ही करनी होगी हर एक को ...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया आलेख ...
क्या आपको लगता है कि ये लोग आसानी से सब उगल देंगे!
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