ऐसे मिलती है रेल

यह 1984 से 1989 के काल खण्ड की बात है। दादा (श्री बालकवि बैरागी) लोकसभा सदस्य थे। माधवराजी सिन्धिया केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में रेल्वे राज्य मन्त्री थे। गोरखपुर-बान्द्रा-गोरखपुर के बीच इन दिनों चल रही ‘अवध एक्सप्रेस’ तब कोटा तक ही आती थी। कोटा से रतलाम तक के अंचल के लोग इसे रतलाम तक बढ़ाने की माँग कर रहे थे लेकिन कोई सुनवाई नहीं हो रही थी। दादा के संसदीय क्षेत्र मन्दसौर का एक बड़ा हिस्सा इस रेल खण्ड से जुड़ा हुआ था। दादा भी चाहते थे कि अवध एक्सप्रेस रतलाम तक बढ़ जाए और उनके क्षेत्र के हजारों लोगों को गोरखपुर-मुम्बई के लिए रेल सुविधा मिल जाए।

दादा बार-बार पत्र लिखते और हर बार उन्हें रटा-रटाया उत्तर मिल जाता। कभी प्रशासनिक कारणों से, कभी तकनीकी कारणों से, कभी परिचालन के लिए अनुकूल न होना बताते हुए तो कभी आवश्यक व्यवसाय न मिलने की बात कह कर असर्थता जता दी जाती। ऐसे बाठ-दस पत्र दादा के पास इकट्ठे हो गए थे।

एक बार, दिल्ली जाने के लिए दादा को रतलाम से रेल में बैठना था। मैं अपने कुछ मित्रों के साथ स्टेशन पर उनसे मिलने गया। मेरे मित्रों में दो मित्र श्री बाबूलाल वर्मा और श्री ओम प्रकाश शर्मा भी शामिल थे। दोनों ही रेल कर्मचारी थे। रेल मण्डल कार्यालय में पदस्थ थे और रेल कर्मचारियों के संगठन के प्रभावी कार्यकर्ता थे। बातों ही बातों में दादा ने तनिक झुंझलाहट से सारी बात बताई। सुन कर ओमजी ने कहा कि यह कोई बड़ी बात नहीं है। अवध को रतलाम तक बढ़ाया जा सकता है। दादा चौंके। विस्तार से पूछताछ की। ओमजी ने कहा - ‘हम लोग कुछ कागज तैयार करके विष्णु भैया को दे देंगे और इन्हें सारी बात समझा देंगे। कागज मिलने पर आप इनसे बात कर लेना।’ दादा को विश्वास नहीं हुआ। मुझे भी नहीं हुआ। लेकिन ओमजी का कहा मानने में नुकसान भी कुछ नहीं था।

दादा को विदा करने के बाद, उसके ठीक बादवाले रविवार को वर्माजी और ओमजी ने मुझे बुलाया। वे दोनों रतलाम रेल मण्डल का ‘वर्किंग टाइम टेबल’ लिए बैठे थे। यह टाइम टेबल रेल परिचालन से जुड़े कर्मचारियों (यथा रेल चालक, गार्ड, नियन्त्रक आदि) के लिए होता है जिसमें रेलों की गति, कब-कहाँ किन ट्रेनों का क्रासिंग होगा, यात्रा मार्ग के किस खण्ड में कौन सा परिचालन निर्देश प्रभावी होगा जैसी जानकारियाँ होती हैं। हम तीनों, रेल मण्डल कार्यालय के ठीक सामने स्थित के सर्किट हाउस में बैठे। कोई 6 घण्टों के निरन्तर परिश्रम से इन दोनों मित्रों ने रतलाम से कोटा के बीच, प्रत्येक स्टेशन पर रुकनेवाली यात्री गाड़ी का वर्किंग टाइम टेबल बना कर दे दिया। टाइम टेबल के अनुसार रतलाम-कोटा भाग के लोगों को अवध एक्सप्रेस का कनेक्शन सुनिश्चित था। टाइम टेबल मुझे थमा कर दोनों ने मुझे वह ‘गुरु-ज्ञान‘ दिया जो मुझे दादा को बताना था।

मैंने कागज दादा को भेजे। कागज मिलते ही दादा ने मुझे फोन किया। वर्माजी और ओमजी ने जो कुछ मुझे समझाया था, वह मैंने ज्यों का त्यों दादा को सुना दिया और दोनों की हिदायत भी सुना दी - ‘माधवरावजी चाहे जो कहें, चाहे जो कहें, आपको एक ही बात कहनी है कि अवध एक्सप्रेस को रतलाम तक बढ़ाने की अपनी माँग आप वापस लेते हैं और आपका काम, कोटा में अवध एक्सप्रेस मिलानेवाली एक ‘लिंक ट्रेन’ से चल जाएगा।’

चौथे दिन दादा का फोन आया। वे रोमांचित थे। उन्होंने जो कुछ सुनाया वह अपने हमारे ‘लोकतन्त्र‘ की दारुण-दशा उजागर करता है।

दादा ने जो कुछ कहा वह कुछ इस तरह था -

माधवरावजी से समय लेकर उनसे मिलने गया। कहा कि अवध को रतलाम तक बढ़ाना तो मुमकिन है नहीं। इसलिए मैं अपनी वह माँग वापस लेता हूँ। आप बस! इतना कर दीजिए कि कोटा में अवध का कनेक्शन देने/लेने के लिए रतलाम-कोटा के बीच एक ‘लिंक ट्रेन’ दे दीजिए। आपकी और रेल प्रशासन की सुविधा के लिए मैं सम्भावित ‘वर्किंग टाइम टेबल’ भी तैयार करके लाया हूँ। यह कहते हुए मैंने अपना पत्र और वर्किंग टाइम टेबल माधवरावजी को थमा दिया।

माधवराजी ने कागज पलटे और ठठा कर हँस पड़े। बोले - ‘बैरागीजी! इस बार आप नींव के पत्थरों से बातें करके आये हैं। लग रहा है कि आपकी इमारत बन ही जाएगी।’ कह कर उन्होंने रेल्वे बोर्ड के चेयरमेन से फोन पर बात की। थोड़ी देर में चेयरमेन आ गए। माधवरावजी ने मेरे दिए कागज उनकी ओर बढ़ाते हुए कहा - ‘अवध एक्सप्रेस को रतलाम बढ़ाने की अपनी माँग बैरागीजी ने छोड़ दी है। कह रहे हैं कि उनका काम तो एक लिंक ट्रेन से ही चल जाएगा। वर्किंग टाइम टेबल साथ लेकर आए हैं। आप देख लीजिए।’ 

चेयरमेन साहब ने कागज लिए। उन्हें पाँच-सात बार पलटा। वर्किंग टाइम टेबल को बार-बार देखा। अच्छे भले वातानुकूलित दफ्तर में भी उनके ललाट पर पसीना छलक आया। वे अपनी असहजता छुपा नहीं पाए। बड़ी मुश्किल से बोले - ‘सर! अपन लिंक ट्रेन कैसे दे सकते हैं? अपने पास एक्स्ट्रा रेक है कहाँ? इसके बजाय तो अवध को रतलाम तक बढ़ा देते हैं। अवध दोपहर में कोटा पहुँचती है और अगले दिन जाती है। रात भर कोटा में ही खड़ी रहती है।’ 

कुछ इस तरह कि मानो अपनी मर्जी के खिलाफ, मजबूरी में कोई समझौता कबूल कर रहे हों, माधवरावजी बोले - ‘इन्हें तो अवध चाहिए ही नहीं थी। ये तो लिंक ट्रेन माँगने आये थे। लेकिन आप इंकार कर रहे थे। कोई बात नहीं। आपकी बात मान लेते हैं। अवध को रतलाम तक बढ़ा देते हैं। नोट शीट भिजवा दीजिए और बैरागीजी को आप खुद ही कह दीजिए कि आप अवध को कोटा से रतलाम तक बढ़ा रहे हैं।’

रेल्वे बोर्ड के चेयरमेन की शकल देखने लायक हो गई थी। वे न तो माधवरावजी से नजरें मिला पा रहे थे और न ही मुझसे। बड़ी मुश्किल से, मुझसे मुखातिब हुए और बोले - ‘सर! आप बेफिक्र रहिए। ऑनरेबल मिनिस्टर साहब के आदेश के मुताबिक हम जल्दी ही अवध को रतलाम तक एक्सटेंण्ड कर देंगे।’ मैंने कहा - ‘अब तो देर होनी ही नहीं चाहिए। वर्किंग टाइम टेबल बना-बनाया आपके हाथों में है और आवश्यक निर्देश मन्त्रीजी ने दे ही दिए हैं। अब देर किस बात की?’ चेयरमेन साहब का गला सूख गया था। खँखार कर बोले - ‘सर! बहुत सारी बाते हैं। बट आई होप, विदइन ए मन्थ अवध रतलाम पहुँच जाएगी।’

मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि अवध रतलाम तक बढ़ा दी गई है। स्थितियों में कहीं कोई अन्तर नहीं आया था। जो-जो कारण इंकार करने के आधार बताए गए थे वे सब जस के तस थे। लेकिन एक सेकण्ड में अवध रतलाम तक बढ़ा दी गई।

अब बाकी बातें आप खुद समझ लें। लेकिन कहानी का एक ‘ट्विस्ट’ अभी भी बाकी है।

जिस दिन अवध पहली बार रतलाम आई थी, उस दिन माधवरावजी खुद अवध में आये थे। रतलाम रेल्वे स्टेशन के प्लेटफार्म नम्बर 4 पर अच्छा-खासा जलसा हुआ। अपने ओजस्वी भाषण में माधवरावजी ने कहा कि अवध एक्सप्रेस को कभी का रतलाम तक बढ़ा दिया जाता लेकिन अब तक रतलाम में इसका वाशिंग प्लेटफार्म नहीं बना था। अब बन गया है तो अवध को रतलाम तक बढ़ा दिया गया है।

हकीकत यह थी जब माधवरावजी यह कारण बता रहे थे, उस क्षण तक रतलाम में अवध के लिए वाशिंग प्लेटफार्म बना ही नहीं था।

बूझिए कि अवध एक्सप्रेस को कोटा से रतलाम तक किसने बढ़ाया।

7 comments:

  1. जानकारी से परिपूर्ण बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

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  2. आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति मंगलवारीय चर्चा मंच पर ।।

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    1. कोटिश: धन्‍यवाद और आभार।

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  3. beti ko bhejne ja raha hun- IIT Gandhinagar-
    Ratlam 20 ko paar karunga-
    saadar
    8521396185

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  4. अफसर नेता चाहें तो सब कुछ हो सकता है , नेताओं की गर्दन भी इन अफसरों के हाथों में ही होती है इन्हें कुछ पता नहीं होता

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  5. कभी-कभी कान उल्टे पकडने होते हैं.

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  6. बढ़ाने का रहस्य तो समझ नहीं ही आया, तब तक न बढ़ाने का रहस्य जानने की उत्सुकता और बढ़ गई है। किसी पोस्ट में दोनों बातें विस्तार से बताइये

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