खुद को झूठा मानने में सच्चे

जून और जुलाई महीनों में सौगन्ध उठाने के समारोहों की मानो बाढ़ आ जाती है। अन्तर राष्ट्रीय स्तर के सेवा संगठनों की स्थानीय इकाइयाँ अपने-अपने पद-भार ग्रहण और शपथ ग्रहण समारोह आयोजित करती हैं। यह अलग बात है कि इन संगठनों के नीति निर्देशों में ऐसे शपथ ग्रहण समारोहों का प्रावधान नहीं है। इन संगठनों का वर्ष जुलाई से शुरु होता है और नीति निर्देशों के अनुसार, बिना कसम खाए ही नए पदाधिकारियों का काम पहली जुलाई से अपने आप शुरु हो जाता है। इन संगठनों के कुछ (ऊँचे) पदाधिकारियों के प्रशिक्षण का प्रावधान है। तदनुसार, जुलाई महीना शुरु होने से पर्याप्त समय पहले ऐसे पदाधिकारियों को प्रशिक्षण के लिए देश-विदेश में बुला लिया जाता है। उन्हें केवल प्रशिक्षण दिया जाता है। कसम नहीं खिलाई जाती। इन संगठनों के अन्तर राष्ट्रीय स्तर से लगाकर स्थानीय इकाइयों तक के लिए शपथ ग्रहण का कोई प्रावधान नहीं है। किन्तु हम भारतीय उत्सव प्रेमी और प्रदर्शन प्रेमी हैं, शायद इसीलिए उत्सव मनाने का कोई मौका नहीं छोड़ते।  कसम खाने के ऐसे सार्वजनिक और उत्सवी आयोजन अब सामान्य होते जा रहे हैं। विभिन्न समुदायों, समाजों के ‘सोश्यल ग्रुप’ भी कसम खाने के ऐसे आयोजन अत्यधिक उत्साह से करते हैं।

मेरा कस्बा मुझ पर अत्यधिक कृपालु है। सो, ऐसे प्रत्येक आयोजन का बुलावा मुझे आता है। मैं भी अत्यन्त उत्साह से पहुँचता हूँ। कुछ बरस पहले तक स्वादिष्ट और विविध व्यंजनों का आकर्षण होता था। अब सब कुछ वर्जित है। अब, अधिकांश कृपालुओं से एक साथ मिलने का लोभ मुझे इन समारोहों में खींच लिए जाता है। देख रहा हूँ कि व्यंजनों से निषेधित मुझ जैसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। ऐसे हम लोग अपने अतीत पर गर्व करते हुए मौजूदा समय के आयोजनों की कमियाँ और गिरते स्तर पर चिन्तित होते हैं। आयोजन के मुख्य वक्ता के ज्ञान को अधकचरा और सतही साबित करने की कोशिशें करते हैं। सलाद, दाल, रोटी और चाँवल तक सीमित रह कर तरसी नजरों से तमाम व्यंजनों को देखते रहते हैं और उनसे स्वास्थ्य को होनेवाली खामियाँ गिना-गिना कर खुश होते रहते हैं। उस वक्त हम यह भूल जाते हैं कि ‘अपने जमाने में’ हम लोग इन्हीं व्यंजनों पर भुक्खड़ों की तरह टूट पड़ते थे। ऐसे हम लोगों में से जो ‘छड़ा’ होता है वह परहेज से परहेज कर अधिकाधिक व्यंजनों को उपकृत करने का पुण्य लाभ लेता है।

समारोह की कार्यवाई मुझे ऐसा नीरस ‘कर्मकाण्ड’ लगती है जिसमें सम्बन्धित व्यक्ति के अलावा और किसी की रुचि नहीं होती। उस कर्मकाण्ड और भोजन के दौरान  बतरसियों की भीड़ के बीच मैं खुद को अकेला पाता हूँ। तब इस तरह शपथ लेने और इस हेतु आयोजित समारोहों के औचित्य पर विचार करने लगता हूँ। सम्वैधानिक पदों के लिए शपथ लेने की बात तो समझ में आती है किन्तु सेवा संगठनों के पदों के लिए कसम खाने की बात मुझे समझ नहीं आती। सेवा भाव तो ईश्वर प्रदत्त होता है। सेवा करने के लिए किसी संगठन की भी आवश्यकता नहीं होती है! दुनिया में अनगिनत लोग अपने-अपने स्तर पर, अकेले ही नाना प्रकार की सेवा कर रहे हैं। कभी सुनने, देखने, पढ़ने में नहीं आया कि इस हेतु उन्होंने, ऐसा कोई समारोह आयोजित कर कसम हो खाई। इसके समानान्तर यह विचार भी मन में आता है कि समारोहपूर्वक कसम खानेवालों में से कितनों को यह कसम याद रहती होगी? इस तरह कसम खाना उनके लिए फोटू खिंचवाकर अखबार में छपवाने और निजी एलबम में सजाने के अतिरिक्त शायद ही किसी और काम में आता होगा। तब ऐसे समारोहों का क्या औचित्य और क्या आवश्यकता?

मुझे लगता है, हम भली प्रकार जानते है कि हम झूठे हैं। इसीलिए सारी दुनिया को भी झूठा मानते हैं। गोया, हम सब एक दूसरे को झूठा मानते हैं। अपनी सामान्य बातचीत में अपनी बात कहते हुए हम अत्यन्त सहज भाव से ‘आप विश्वास नहीं करेंगे किन्तु सच मानिए.......’ कहकर अपनी बात शुरु करते हैं। इसी के समानान्तर, सामनेवाले से कोई बात पूछते हुए, बड़ी ही सहजता से ‘देखो! सच-सच कहना, झूठ मत बोलना........’ कह कर उसके मुँह पर ही उसे झूठ बोलनेवाला कह देते हैं। इस तरह हम सब रोज ही एक दूसरे को झूठा कहते-सुनते रहते हैं और मजे की बात यह कि किसी को बुरा नहीं लगता। लगे भी तो कैसे? हममें से किसी का ध्यान इस ओर जाता ही नहीं। भला सच से कोई, कैसे इंकार करे? याने, कम से कम इस बात में तो हम सच्चे हैं कि हम खुद को झूठा स्वीकार करते हैं।

जो काम घोषित रूप से हमारे जिम्मे किया है उसे करने के लिए भला सौगन्ध उठाने की क्या आवश्यकता? सूरज कभी कसम नहीं खाता कि वह रोज समय पर उगेगा और सारी दुनिया को प्रकाश और ऊष्मा देगा। चाँद कभी कसम नहीं खाता कि वह सारी दुनिया पर अपनी चाँदनी समान रूप से बरसाएगा। हवा कभी कसम नहीं खाती कि बराबर बहती/चलती रहेगी और सारी दुनिया को प्राण-वायु देती रहेगी। प्रकृति कभी सौगन्ध नहीं खाती कि वह अपना चक्र अविराम गतिशील बनाए रखेगी। पशु कभी कसम नहीं खाते कि वे भूख से अधिक नहीं खाएँगे। मनुष्य के अतिरिक्त सृष्टि का कोई जीव कसम नहीं खाता कि वह अपने स्वभाव से हटकर कभी कोई हरकत नहीं करेगा। याने, समूचे विश्व में, समूची सृष्टि में यह मनुष्य ही है जिसे कसम खाने की जरूरत होती है। जब भी कोई शपथ ग्रहण कर रहा होता है तो उसकी इस रस्म अदायगी के साक्षी होते हुए हम शायद ही कभी गम्भीर रहते हैं। उस समय हम परिहासपूर्वक घोषणा करते रहते हैं कि हमारा यह प्रिय पात्र इस शपथ पर कायम नहीं रहेगा। कायम रहना तो दूर, उसे यह शपथ याद भी नहीं रहेगी। तब हम भली प्रकार जानते हैं कि वह एक खानापूर्ति कर रहा है।

हम सुरक्षा के लिए अपने मकानों, दुकानों, संस्थानों पर ताले लगाते हैं, चौकीदार रखते हैं, सुरक्षा गार्ड तैनात करजे हैं। किन्तु ऐसा करते समय बराबर जानते हैं और कहते भी हैं कि ताले और चौकीदार साहूकारों के लिए हैं, चोरों के लिए नहीं। अनगिनत मकानों, दुकानों, सुस्थानों पर ताले लगे रहते हैं, चौकीदार और गार्ड तैनात रहते हैं। ताले टूटने, रक्षकों पर हमले कर चोरी, डकैती के मामले गिनती के ही होते हैं। याने समाज में ‘साहूकार’ अधिसंख्य हैं। किन्तु गिनती के चोरों, डकैतौं के कारण हम सारी दुनिया पर सन्देह करते हैं। लेकिन खुद पर लागू करते हुए हम जानते हैं कि हममें से अनगिनत लोग इसलिए ईमानदार, चरित्रवान बने हुए हैं क्योंकि उन्हें बेईमान, चरित्रहीन होने के अवसर नहीं मिले और अवसर मिले भी तो वे साहस नहीं कर पाए।

अभी-अभी अखबारों में पढ़ा कि आगामी विधान सभा चुनावों के सन्दर्भ में पंजाब काँग्रेस, उम्मीदवारी की दावेदारी करनेवालों से शपथ-पत्र ले रही है कि उम्मीदवारी न मिलने की दशा में वे पार्टी से न तो विद्रोह करेंगे और न ही पार्टी विरोधी कोई हरकत करेंगे। समाचार पढ़कर मुझे हँसी आ गई। अवसरवाद की राजनीति के इस समय में ऐसे शपथ-पत्रों की क्या तो औकात और क्या डर? निष्ठा की कागजी ग्यारण्टी नहीं दी जाती। वह तो संकट काल में व्यक्ति के आचरण से ही उजागर होती है। कुछ इस शेर की तरह -

गुल से लिपटी हुई तितली को गिराओ तो जानूँ,
हवाओं! तुमने दरख्तों को गिराया होगा।

अपनी जिम्मेदारी सत्य निष्ठा से निभाने के लिए शपथ लेना आज एक खानापूर्ति बन गया है। अदालतों में गीता, कुरान की शपथ लेनेवालों के बयानों पर सदैव ही सन्देह जताया जाता है। शपथ लेने की रस्म अदायगी करने कर्मकाण्डों के इस समय में एक बात पर जरूर सन्तोष किया जा सकता है कि हम जानते और मानते हैं कि हम झूठे हैं।
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3 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (21-07-2016) को "खिलता सुमन गुलाब" (चर्चा अंक-2410) पर भी होगी।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. कोटिशः धन्यवाद और आभार।

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    2. कोटिशः धन्यवाद और आभार।

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