पाँच सौ और एक हजार रुपयों के नोटों को एक झटके से चलन से बाहर कर देने के बाद देश में छाए अतिरेकी उत्साह के तुमुलनाद से भरे इस समय में एक सुनी-सुनाई, घिसी पिटी कहानी सुनिए।
मन्दिर की पवित्रता और स्वच्छता बनाए रखने के लिए तय किया किया कि भक्तगण जूते पहन कर मन्दिर प्रवेश न करें। सबने निर्णय को सामयिक, अपरिहार्य बताया और सराहा किन्तु प्रवेश पूर्व जूते उतारना बन्द नहीं किया। प्रबन्धन ने एक आदमी तैनात कर दिया - ‘किसी को भी जूते पहन कर अन्दर मत जाने देना। जूते बाहर ही उतरवा देना।’ अब भक्तगण जूते बाहर ही उतारने लगे। एक भक्त ने अतिरिक्त सावधानी बरती। वह घर से ही नंगे पैर आया। लेकिन प्रबन्धन द्वारा तैनात आदमी ने उसे मन्दिर प्रवेश से रोक दिया। कहा - ‘घर जाइए, जूते पहन कर आइए, मन्दिर के बाहर जूते उतारिए। फिर मन्दिर प्रवेश कीजिए। यहाँ का कायदा है कि बिना जूते उतारे आप मन्दिर प्रवेश नहीं कर सकते।’
हमारी, भारतीय व्यवस्था लगभग ऐसी ही है। काम करने के लिए प्रक्रिया बनाई जाती है किन्तु काम हो न हो, प्रक्रिया पूरी करना ही मुख्य काम हो जाता है। उत्कृष्ट निर्णयों/नीतियों का निकृष्ट क्रियान्वयन हमारी व्यवस्था की विशेषता भी है और विशेषज्ञता भी। वह खुद को और खुद के महत्व को बनाए रखने के लिए और बढ़ाते रहने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है। जन्नत की इसी हकीकत से भयग्रस्त होे, अपने सम्पूर्ण आशावाद के बावजूद मैं खुश नहीं हो पा रहा हूँ।
देश में कौन ऐसा है जो भ्रष्टाचार और काले धन से मुक्ति नहीं चाहता? जिसके पास है, उसे नींद नहीं आती और जिसके पास नहीं है उसे वे लोग सोने नहीं दे रहे जिनके पास काला धन है। गोया, सारा देश भ्रष्टाचार और काले धन का रतजगा कर रहा है। अखण्ड कीर्तन जारी है। लेकिन, जैसा कि बार-बार कहा जाता है, हम एक भ्रष्ट समाज हैं। हममें से प्रत्येक चाहता है कि उसे सारे अवसर मिलते रहें और बाकी सब ईमानदार, राजा हरिश्चन्द्र बन जाएँ। लेकिन जब सबके सब ऐसा ही सोचते और करते हों तो जाहिर है, कोई भी ईमानदार और राजा हरिश्चन्द्र नहीं बन पाता। तब हम अपवादों को तलाश कर उनकी पूजा शुरु कर देते हैं और उसे प्रतीक बना देते हैं। तब प्रतीक की पूजा करते हुए दिखना ही हरिश्चन्द्र होना हो जाता है। तब हरिश्चन्द्र होने के बजाय हरिश्चन्द्र दिखना ही पर्याप्त हो जाता है। हमें यही अनुकूल और सुविधाजनक लगता है। सो, हम सब हरिश्चन्द्र दिखने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। यह अलग बात है कि अपनी यह हकीकत हम ही से छुपी नहीं रह पाती। लेकिन खुद की खिल्ली उड़ाने का साहस तो हम में है नहीं! सो हम सामनेवाले के हरिश्चन्द्र के ढोंग की खिल्ली उड़ा कर खुश हो लेते हैं। जानते हैं कि इस तरह परोक्षतः हमने अपनी ही खिल्ली उड़ाने का महान् काम कर लिया है। मैं भी इसी हमाम में शरीक हूँ इसलिए, जैसा कि कह चुका हूँ, अपने सम्पूर्ण आशावाद के बाद भी प्रधान मन्त्री के इस चौंकानेवाले क्रान्तिकारी कदम से खुश नहीं हो पा रहा हूँ।
भ्रष्टाचार और काला धन एक सिक्के के दो पहलू तो हैं ही, वे दूसरे की जरूरत भी हैं और पूरक हैं। यह भी कह सकते हैं कि दोनों ही एक दूसरे के जनक भी हैं। दोनों ही एक दूसरे के बाप हैं। लेकिन यदि सयानों की बात मानें तो इनकी गंगोत्री आपके-हमारे नगरों-कस्बों, गली-मोहल्लों में नहीं, राजनीति, उद्योगों, कार्पोरेट घरानों, अफसरों के शिखरों में है। लेकिन यह धारणा भी मुझे सौ टका सही नहीं लगती। मेरी धारणा में तो हमारे मँहगे चुनाव, भ्रष्टाचार और काले धन सहित हमारी सारी समस्याओं की जड़ है। हमारा नेता चुनाव लड़ने के लिए धन जुटाता है। पार्टी कार्यकर्ता और आम आदमी से चुनाव खर्च की रकम नहीं मिल पाती। वह धनपतियों से मदद लेता है। चुनाव जीत गया तो वह क्रमशः अपना खर्चा निकालता है, फिर उपकारों का भुगतान करता है और अगले चुनावों के लिए रोकड़ा इकट्ठा करना शुरु कर देता है। यह ऐसा चक्र है जिसमें आखिरी बिन्दु नहीं होता है। हर बिन्दु पहला बिन्दु होता है और प्रत्येक बिन्दु, अपने पासवाले दूसरे बिन्दु का मददगार होता है। तब ये सब एक दूसरे की अनिवार्य आवश्यता बन जाते हैं। शायद इसी को क्रोनी केपिटलिजम कहा जाता होगा - ‘तुम मुझे जिताओ। मैं जीत कर तुम्हारे काम-धन्धे के लिए अनुकूल नीतियाँ बनाऊँगा, अनुकूल निर्णय लूँगा, अनुकूल स्थितियाँ-वातावरण बनाऊँगा। तुम खूब कमाना, मैं भी अपना घर भरूँगा, खूब ऐश करूँगा।’
इसीलिए मैं खुश नहीं हो पा रहा हूँ। चाहकर, कोशिश करने के बाद भी नहीं हो पा रहा। सारे देश को बिजली के करण्ट की तरह झकझोर देनेवाला यह निर्णय मुझे काले धन और भ्रष्टाचार की जड़ों पर नहीं, फुनगियों पर प्रहार लग रहा है। जड़ों में मट्ठा डालने के बजाय फुनगियों की छँटाई की जा रही है। हाँ, एक बात जरूर मुझे होती नजर आ रही है। देश को नकली नोटों से एक झटके में मुक्ति मिल जाएगी। किन्तु भ्रष्टाचार और काले धन से मुक्ति मुझे नजर नहीं आ रही। इन दोनों रोगों की बढ़त पर एक अस्थायी स्थगन जरूर होगा। इससे अधिक कुछ होता मुझे नजर नहीं आ रहा। हम सब जानते (और मानते) हैं कि बड़े खिलाड़ियों को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। उन्हें कभी, कोई फर्क पड़ता भी नहीं। उनके यहाँ तो सब कुछ राजी-खुशी और लक्ष्मीजी सदा प्रसन्न वाली स्थिति स्थायी रूप से बनी रहती है। जो भी फर्क पड़ेगा, मध्यमवर्गीय गृहस्थों, मझौले कारोबारियों, प्रतिकूल परिस्थितियों में छुट-पुट उठापटक कर अपनी आर्थिक महत्वाकांक्षाएँ पूरी करने में जुटे उत्साही कुटीर उद्यमियों जैसों को पड़ेगा। उन्हें बैंकों, पोस्ट ऑफिसों में कतारों में खड़े रह कर अपना मूल्यवान समय नष्ट करना पड़ेगा। पूरी योजना के क्रियान्वयन की विस्तृत जानकारी भले ही प्रधानमन्त्रीजी ने खुद दी हो किन्तु हमारे व्यवस्था तन्त्र की विशेषज्ञता के स्थापित आचरण से मुझे भय है कि सरकार ऐसे लोगों की सद्भावनाएँ न खो दे।
मैं आर्थिक विषयों का जानकार बिलकुल ही नहीं हूँ और एक औसत भारतीय की तरह देश को काले धन और भ्रष्टाचार से मुक्त देखना चाहता हूँ। मुझे प्रधानमन्त्रीजी की नियत पर तनिक भी सन्देह नहीं है। काला धन उनका प्रिय विषय रहा है। इस मुद्दे पर मैं उन्हें सर्वाधिक सफल प्रधान मन्त्री के रूप में देखना चाहता हूँ। किन्तु यथेष्ठ आश्वस्त नहीं हो पा रहा। क्योंकि प्रधानमन्त्रीजी का यह फैसला मुझे न तो क्रान्तिकारी लग रहा है न यथेष्ठ परिणामदायी। मँहगे चुनाव इस देश की सबसे बड़ी समस्या हैं। केवल समस्या नहीं, देश की तमाम समस्याओं की खदान हैं। चुनाव सुधारों के बिना हम कभी, कुछ नहीं कर पाएँगे। किन्तु चुनाव सुधारों के लिए देश राजनीतिक दलों और राजनेताओं पर निर्भर है जिनमें हमारे प्रधानमन्त्रीजी भी शरीक हैं। अपने पाँवों पर कुल्हाड़ी मारने की आत्म-घाती मूर्खता ये लोग भला क्यों करेंगे?
ऐसे में कामना ही की जा सकती है कि प्रधानमन्त्रीजी को अपने मनमाफिक परिणाम मिलें। ऐसा न हो तो निराशा कम से कम मिले। लोगों को इसके यथेष्ठ लाभ मिलें। बड़े नोटों के बदलाव के लिए कुछ ‘किन्तु-परन्तु’ के साथ 31 मार्च 2017 तक का समय लोगों को दिया गया है। एक औसत मध्यमवर्गीय आदमी के लिए यह पर्याप्त समय है। ईश्वर से प्रार्थना करें कि हमारी व्यवस्था अपने अहम् और महत्व-भाव से मुक्त होकर लोगों की मदद करे, उनकी सद्भावनाएँ अर्जित करे। नंगे पाँव आए भक्त को मन्दिर प्रवेश करने दे। सब कुछ वैसा ही हो जैसा बताया, कहा जा रहा है और जैसी लोगों ने अपेक्षा कर ली है।
लेकिन भूलें नहीं कि यह जड़ों पर प्रहार नहीं है, केवल फुनगियों की छँटाई है। यह याद रखेंगे तो निराश होने से बच जाएँगे।
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दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल दिनांक 10 नवम्बर 2016
बहुत-बहुत धन्यवाद।
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ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "'बंगाल के निर्माता' - सुरेन्द्रनाथ बनर्जी - ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद।
Deletebadiya ..
ReplyDeleteधन्यवाद।
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Deleteनकली नोटों से मुक्ति भी कोई छोटा लाभ नहीं, लेकिन गेहूं के साथ वे घुन भी पिस रहे हैं जिनका काले क्या सफ़ेद, नीले, पीले धन से भी दूर-दूर का नाता नहीं है.
ReplyDeleteमुझसे बेहतर आप जानते हैं कि नकली नोटों से यह मुक्ति भी अस्थायी है। वस्तुतः देश का कोई भी राजनितिक दल न तो काले धन से मुक्ति चाहता है न भ्रष्टाचार से।
Deleteमुझसे बेहतर आप जानते हैं कि नकली नोटों से यह मुक्ति भी अस्थायी है। वस्तुतः देश का कोई भी राजनितिक दल न तो काले धन से मुक्ति चाहता है न भ्रष्टाचार से।
Deleteसुन्दर रोचक प्रस्तुति।
ReplyDeleteधन्यवाद।
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Deleteशानदार पोस्ट
ReplyDeleteधन्यवाद।
Deleteकितना अच्छा हो इस ओर भी कोई पहल हो !
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