इस बरस की दीपावली अपने किसम की अलग ही दीपावली रही। तनिक अनूठी। तकनीक ने इसे अतिरिक्त रंगीन तो बनाया ही, रोचक भी बना दिया। कभी लगा, त्यौहार पर तकनीक भारी पड़ गई है तो कभी लगा, तकनीक ने त्यौहार को विस्तार, प्रगाढ़ता दे दी है। कभी झुंझलाहट दी तो कभी आसमान फाड़ ठहाकों की सौगात दे दी।
दादा से मिले संस्कारों और अपने धन्धे का शिष्टाचार निभाने के नाम पर मैं हर बरस दीपावली पर लगभग आठ सौ अभिनन्दन-पत्र भेजता था। गए दो बरसों से नहीं भेज रहा। कृपालुओं के जवाब आना तो दूर, प्राप्ति सूचना भी नहीं। दो ने तो तनिक झिझक से कह भी दिया - ‘मत भेजिए। अच्छा तो लगता है लेकिन अब जवाब देते नहीं बनता। आदत ही नहीं रही।’ इन दो की बात को मैंने ‘जहान की बात’ मान ली। हालत यह रही कि चर्चा करना तो दूर, किसी ने न तो बुरा माना और न ही शिकायत की। सब कुछ सहज, सामान्य बना रहा। यह मुझे अब भी अत्यधिक असामान्य लग रहा है और मैं असहज हूँ।
किन्तु इस बरस तो लगा मानो सारी दुनिया को मेरी फिकर हो गई है। वाट्स एप ने दुनिया बदल दी। मेरी तबीयत खुश हो गई। चलो! लोगों में सम्वाद/सम्प्रेषण शुरु तो हुआ! लेकिन यह खुशी ज्यादा देर नहीं बनी रही। जल्दी ही दूर हो गई। एक ही सन्देश कई-कई महरबानों से मिला तो जन्नत की हकीकत उघड़ने लगी। लेकिन बात खुशी के दूर होने तक ही सीमित नहीं रही। यह तो अचरज, निराशा, झुंझलाहट में बदलने लगी। सब कुछ ‘कॉपी-पेस्ट’ का कमाल था। इस अनुभूति ने मुझे उदास कर दिया। आगे जो कुछ हुआ उसने तो मुझे उलझन में डाल दिया।
अनेक कृपालुओं ने मुझे अपने जत्थों (ग्रुपों) में शामिल कर रखा है। इन जत्थों में जितनी अच्छाई है कम से कम उतनी ही खराबी भी है। आपको वह सब देखना, झेलना पड़ता है जो आपको बिलकुल नहीं सुहाता। मैं छटपटा कर बाहर होता हूँ तो कृपालु साधिकार वापस शामिल कर लेते हैं - ’वाह! आप कैसे जा सकते हैं?’ ऐसे ही किसी एक जत्थे में शामिल कृपालु ने मेरा धन्यवाद सन्देश अपने ऐसे जत्थे में अग्रेषित (फाारवर्ड) कर दिया जिसमें मैं नहीं हूँ। अगले ही पल एक के बाद एक तीन सन्देश मिले। भाषा सबकी अलग-अलग थी लेकिन मतलब एक ही था - ‘आपसे मेरा कोई परिचय ही नहीं। मैं तो आपको जानता ही नहीं। मैंने आपको बधाई सन्देश भेजा ही नहीं। धन्यवाद किस बात का?’ इन तीन में एक परिहासप्रिय निकला। लिखा - ‘आपने बिना बात के धन्यवाद दिया। अब तो अभिनन्दन और मंगल कामनाएँ बनती ही बनती हैं। स्वीकार कीजिए। लेकिन अब धन्यवाद मत दीजिएगा। वह तो आप पहले ही दे चुके।’
एक स्थिति ने मुझे अपनी ही नजरों में शर्मिन्दा किया। मुझे सन्देश भेजनेवाले तमाम कृपालुओं को मैं पहचान ही नहीं पाय। कुछ ही को पहचान पाया। मुझे उनके अभिनन्दन सन्देश भी बड़ी संख्या में मिले जो मेरी फोन बुक में नहीं है। प्रत्युत्तर में धन्यवाद देते हुए शुभ-कामनाओं सहित उनसे क्षमा-याचना की - ‘कृपया अन्यथा न लें। मैं आपको पहचान नहीं पाया।’ अनेक में से एक ने बहुत बढ़िया बात कह कर ढाढस बँधाया और हौसला बढ़ाया - ‘कोई बात नहीं सरजी! शुभ-कामनाएँ जान-पहचान की मोहताज नहीं होतीं। चलिए! आज से पहचान कर लेते हैं।’
दादा से मिले संस्कारों के अधीन ही मैं प्रत्येक सन्देश का उत्तर देने की कोशिश तो करता ही हूँ, यह कोशिश भी करता हूँ कि प्रत्येक सन्देश सामनेवाले को केवल अपने लिए लगे। लेकिन शुभ-कामना सन्देशों की संख्या ने जहाँ एक ओर अभिभूत किया वहीं दूसरी ओर पसीना भी ला दिया। कितनी भी कंजूसी कर लूँ, सन्देशों की संख्या चार अंकों से कम नहीं कर पा रहा हूँ। इतने सारे महरबानों को व्यक्तिगत रूप से सन्देश देना! मेरे हाथ-पैर फूल गए। शुरु-शुरु में कुछ कोशिश की लेकिन जल्दी ही थक गया और ऊब आ गई। पहले तो सोचा, किसी को जवाब नहीं दिया जाए। लेकिन अगले ही क्षण संस्कारों ने धिक्कारना शुरु कर दिया। ‘कॉपी-पेस्ट’ का विचार मन में आया। बड़ा सहारा मिला और उत्साहपूर्वक जुट गया। लेकिन भूल गया कि नकल में भी अकल लगानी चाहिए और थोक में ऐसा काम करते समय तनिक सावधानी बरतनी चाहिए। जोश में होश नहीं खोना चाहिए। प्रत्युत्तर-यज्ञ में समिधाएँ देने का क्रम चल ही रहा था कि एक का सन्देश आया - ‘दादा! यह क्या? मैंने तो आपसे अपनी पॉलिसी की प्रीमीयम जमा कराने के बारे में पूछा था।’ मुझे ,खुद पर झेंप आई। मानो सन्निपात से सामान्यता में लौटा। फिर सावधानी बरती। जिन्हें पहचान पाया, उन्हें नामजद प्रत्युत्तर दिया।
लेकिन इस सबके बीच मुझे जलजजी का सुनाया किस्सा याद आ गया। यह उन्होंने एक समारोह में सुनाया था। किसी समारोह में वे, मुख्य अतिथि थे। मंच पर, अपने पास बैठे सज्जन से जलजजी ने कहा - ‘आपकी शुभ-कामनाओं के लिए धन्यवाद। आपने याद किया। अच्छा लगा।’ सज्जन ने अत्यन्त शालीनता और विनम्रतापूर्वक, किन्तु कुछ कसमसाते हुए जलजजी के प्रति आदर व्यक्त किया। वे खुद को ज्यादा देर तक रोक नहीं आए और पूछा - ‘सर! बाय द वे, बताएँगे कि मैंने आपको किस बात की शुभ-कामनाएँ दी थीं?’ मुख्य अतिथि की शालीनता और गरिमा भी जलजी को हँसने से रोक नहीं पाई। हँसते-हँसते ही बोले - ‘आपने मुझे मेरे जन्म दिन की शुभ-कामनाओं का एसएमएस किया था।’ तनिक झेंपते हुए सज्जन ने ससंकोच स्वीकार किया - ‘सर! उस तारीख को एक से अधिक मिलनेवालों की जन्म तारीख रही होगी और मैंने एक ही सन्देश सबको भेजा होगा। मुझे सच में याद नहीं कि मैंने आपको सन्देश भेजा था।’
यन्त्र और तकनीक की यदि अपनी विशेषताएँ हैं तो दुर्गुण भी कम नहीं। विशेषताएँ आकर्षित तो करती हैं किन्तु पता नहीं चल पाता कि हम उनके दुर्गुणों में कब बँध गए। गाँधीजी ने किसी को कोई काम बताया। वह शायद पहले से ही थका हुआ था। तनिक झुंझलाकर बोला - ‘बापू! मैं कोई मशीन थोड़े ही हूँ?’ गाँधीजी ने हँस कर उत्तर दिया - ‘सच कह रहे हो तुम। आदमी मशीन कैसे हो सकता है? आदमी तो मशीन बनाता है?’ क्या विचित्र स्थिति है कि मनुष्य ने मशीन बनाई और खुद ही उसका दास हो गया! तकनीक तो एक कदम और आगे बढ़ गई। आज हम मशीन के दास और तकनीक के व्यसनी होते नजर आ रहे हैं।
मनुष्य को ईश्वर की श्रेष्ठ कृति कहा जाता है। किन्तु ईश्वर अपनी कृति के अधीन नहीं है। कृति ही अपने निर्माता के अधीन हैं। लेकिन हम ईश्वर के इस सन्देश को या तो समझ नहीं पा रहे या समझना ही नहीं चाह रहे। हमने अपने लिए मशीन बनाई, अपने लिए तकनीक विकसित की और खुद को इनके हाथों में सौंप दिया। इण्टरनेट के जरिए हम सारी दुनिया से जुड़े हुए हैं लेकिन दुनिया की बात दूर रही, हम तो अपने-अपने घर में ही अकेले हो गए हैं। हो क्या गए हैं, हमने अपने आप को अकेला कर लिया है। हमने अपना-अपना एकान्त बुन लिया है। हमारे सामने रहनेवाले से हम रोज वाट्स एप पर ‘गुड मार्निंग’ करते हैं लेकिन सामने मिलने पर मुस्कुराकर भी नहीं देखते। मजे की बात यह कि अपनी इस दशा के लिए हम अपने सिवाय बाकी सब को जिम्मेदार मानते हैं।
सो, इस बरस की दीपावली मुझे यही अतिरिक्त रंगीनी, अतिरिक्त उजास दे गई - यन्त्र और तकनीक मेरे लिए है। मैं इनके लिए नहीं।
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(दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल में, 03 नवम्बर 2016 को प्रकाशित।)
मजेदार.
ReplyDeleteकुछ इसी तरह की समस्या को बयान करता कुछ चुटकुला नुमा लिखा था मैंने भी. सादर पाठ करें -
http://raviratlami.blogspot.in/2015/05/dukalu-ka-internet-of-everything.html