अपने-अपने रुह अफजा

देवेन्द्र दीपावली मिलने आया तो शिकायत की - ‘आपका ब्लॉग ध्यान ये देख रहा हूँ। महीनों बीत गए, आपने मेरावाला लेख नहीं छापा।’ मैं तो भूल ही गया था। देवेन्द्र ने याद दिलाया तो याद आया। मैंने सस्मित कहा-‘लेकिन उसमें तो तुम्हारा मजाक उड़ाया गया है!’ देवेन्द्र ने संजीदा होकर जवाब दिया-‘अव्वल तो मेरा मजाक नहीं है। लेकिन अगर है भी तो बात आपने सही कही थी। उस बात ने मेरी नजर और नजरिया बदल दिया। उसे जरूर छापिए। और भी लोगों पर असर होगा। जरूर होगा।’

देवेन्द्र मेरा हमपेशा है। बीमा एजेण्ट। जन्मना ब्राह्मण तो है ही ‘ब्राह्मण-गर्व’ और ‘ब्राह्मणत्व’ के श्रेष्ठता-बोध का स्वामी भी है। ब्राह्मण संघ की गतिविधियों में अतिरिक्त उत्साह और ऊर्जा से, बढ़-चढ़कर भाग लेता है। ‘दुराग्रह’ की सीमा तक हिन्दुत्व का समर्थक होने के बावजूद, सम्भवतः स्कूल-कॉलेज के दिनों के  ‘शब्द-सम्पर्क’ का प्रभाव अब तक बना होने के कारण ‘कट्टर’ या ‘अन्ध’ नहीं है। कभी-कभार मेरे घर चला आता है तो कभी फोन कर मुझे बुला लेता है। कहता है-‘आपसे मिलना, बतियाना  अच्छा लगता है।’

अभी-अभी उसके साथ जोरदार और मजेदार वाकया हो गया। लेकिन वह वाकया सुनने से पहले यह वाकया जानना-सुनना जरूरी है।

मुझसे मिलने के लिए बाहर से आए दो कृपालुओं को मुझ तक पहुँचाने के लिए वह, वैशाख की चिलचिलाती गर्मी की एक दोपहर मेरे घर आया था। उन्हें बैठाकर, ठण्डा पानी पेश कर पूछा - ‘क्या लेंगे? चाय या शरबत?’ जवाब आया - ‘इस गर्मी में चाय तो रहने ही दें। शरबत पिला दीजिए।’ पर्दे के पीछे खड़ी मेरी उत्तमार्द्ध ने यह सम्वाद सुन ही लिया था। सो, आवाज लगाने या कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ी। थोड़ी ही देर में, शरबत के चार गिलास वाली ट्रे थमा गई। ग्लास देखकर देवेन्द्र ने मुँह बिगाड़ा। मानो मुँह में कड़वाहट घुल गई हो कुछ इस तरह बोला - ‘ये तो रुह अफजा है!’ मैंने कहा - ’हाँ। यह रुुह अफजा ही है।’ क्षुब्ध स्वरों में, मानो हम सबको हड़का रहा हो कुछ इस तरह  देवेन्द्र बोला - ‘मैं रुुह अफजा नहीं पीता।’ कारण पूछने पर बोला - ‘रुह अफजा बनाने वाला अपनी कम्पनी में हिन्दुओं को नौकरी पर नहीं रखता। इसलिए।’ बिना किसी बहस-मुबाहसा, देवेन्द्र के लिए नींबू का शरबत आ गया।   

न तो मुझे पता था और न ही खुद देवेन्द्र को कि दो ही महीनों बाद, उसका यह तर्क उसकी बोलती बन्द कर देगा। हुआ यूँ कि सावन के महीने में ब्राह्मण संघ ने एक अकादमिक आयोजन का जिम्मा देवेन्द्र को दे दिया। उसने भी खुशी-खुशी, आगे बढ़कर जिम्मा ले लिया।  आयोजन चूँकि अकादमिक था सो उसने व्याख्यान के लिए, बड़े ही सहज भाव से मजहर बक्षीजी को न्यौता दे दिया। उद्भट विद्वान् बक्षीजी मेरे कस्बे के कुशल और प्रभावी वक्ता हैं। अपनी विद्वत्ता और वक्तृत्व के कारण दूर-दूर तक पहचाने और बुलाए जाते हैं। कभी-कभी तो उनके कारण मेरा कस्बा पहचाना जाता है। बक्षीजी ने बड़ी ही सहजता से न्यौता स्वीकार कर लिया। देवेन्द्र ने यह खबर देते हुए मुझे भी आयोजन का निमन्त्रण दिया। मेरा जाना तय था किन्तु ‘मेरे मन कुछ और है, कर्ता के मन कछु और’ वाली उक्ति चरितार्थ हो गई। मैं नहीं जा पाया।

आयोजन की जानकारी मुझे अखबारों से मिली। उम्मीद से अधिक उपस्थिति थी। आयोजकों को तो आनन्द आया ही, बक्षीजी भी परम प्रसन्न हुए। याने, अयोजन उम्मीद से अधिक कामयाब रहा। तीन-चार दिनों बाद देवेन्द्र से मिलना हुआ। वह बहुत खुश था। आशा से अधिक सफल आयोजन के लिए ब्राह्मण समाज ने उसे अतिरिक्त धन्यवाद दिया था। उसका रोम-रोम पुलकित-प्रसन्न था। उसने विस्तार से आयोजन की जानकारी दी। किन्तु ब्यौरों का समापान करते-करते तनिक खिन्न हो गया - ‘कैसे-कैसे लोग हैं सरजी! कुछ लोग केवल इसलिए नहीं आए कि हिन्दू आयोजन में मुसलमान वक्ता क्यों बुला लिया। यह भी कोई बात हुई सरजी? भला ज्ञान और विद्वत्ता का जाति-धर्म से क्या लेना-देना?’ उसकी बात सौ टका ठीक थी। मैं कुछ कहने ही वाला था कि अचानक ही, बिजली की तरह मेरे मानस में ‘रूह अफजा’ कौंध गया। मेरी हँसी चल गई। देवेन्द्र को अच्छा नहीं लगा। असहज हो बोला - ‘क्यों? मैंने तो कायदे की बात कही थी। आप हँसे क्यों? ऐसा क्या कह दिया मैंने?’ अब मैं खुल कर हँसा। बोला - ‘क्या गलत किया उन्होंने? जिस आधार पर तुम रुह अफजा को खारिज करते हो उसी आधार पर उन्होंने बक्षीजी को खारिज किया। यदि तुम अपनी जगह सही हो तो वे भी अपनी जगह सही हैं और यदि वे गलत हैं तो तुम भी गलत हो। यदि ज्ञान और विद्वत्ता की कोई जाति-धर्म नहीं होता है तो शरबत की भी कोई जाति-धर्म नहीं होता। वह भी अपनी मिठास और शीतलता से ही जाना-पहचाना जाता है। तुम भी तो उसे धर्म के आधार पर अस्वीकार किए बैठे हो!’

देवेन्द्र को इस उत्तर की कल्पना नहीं थी। होती भी कैसे? खुद मुझे ही कहाँ थी? दो ही महीनों पहले दिया गया उसका तर्क बूमरेंग बनकर उसे ही आहत कर चुका था। अपने ही तीर का शिकार हो चुका था वह। पैमाने न तो दोहरे होते हैं न ही किसी के सगे। देवेन्द्र कसमसाता, अनुत्तरित बैठा रह गया। मानो मुँह पर लकवा मार गया हो। सब कुछ अकस्मात्, अनायास हो  वातावरण को बोझिल और असहज कर चुका था। मैं रस्मी राम-राम कर उठ आया।

नहीं जानता कि देवेन्द्र ने इस घटना को कैसे लिया होगा। यह भी नहीं जानता कि वह रुह अफजा पीना शुरु करेगा या नहीं। लेकिन मैं अनायास ही इतना भर जान गया कि हम सब भी अपने-अपने रुह अफजा तय किए बैठेे हैं - खुद को भरपूर रंगीनी, अकूत मिठास और गहरी शीतलता से दूर किए।
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3 comments:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "व्हाट्सएप्प राशिफल - ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. बहुत सुलझे हुए व्यक्ति हैं देवेंद्र. सुलझे हुए लोगों को अफ़वाहों से बचकर चलना चाहिये.

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