यह इसी जुलाई के पहले सप्ताह की बात है। भोपाल से कोई चालीस किलो मीटर दूर स्थित जिला मुख्यालय सीहोर की। दलित युगल पंकज जाटव और वैजयन्ती ने, गंज इलाके में स्थापित डॉक्टर अम्बेडकर की मूर्ति के फेरे लेकर विवाह किया। दोनों के परिवारों के पास इतने पैसे नहीं थे कि विवाह आयोजन कर सके। जाटव समाज यूँ तो हिन्दू समाज है लेकिन इन दोनों ने पवित्र अग्नि और हिन्दू देवताओं की अदृष्य साक्ष्य में फेरे नहीं लिए। अम्बेडकर को गवाह बनाया।
बसन्त पंचमी पर सरस्वती पूजन के आयोजन व्यापक स्तर पर किए जाते हैं। यह दिन इसी प्रसंग के लिए जाना जाता है। लेकिन इस बरस की बसन्त पंचमी पर उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखण्ड के अनेक गाँवों में सरस्वती पूजन नहीं हुआ। लोगों ने देवी सरस्वती के चित्र के स्थान पर सावित्री बाई फुले के चित्रों की पूजा कर बसन्त पंचती मनाई। उन्होंने कहा कि वही उनकी सरस्वती है। खबर है कि 2018 में ऐसे आयोजन अधिकाधिक स्थानों पर, अधिकाधिक भव्यता से किए जाने की तैयारी है।
घड़कौली, सम्भवतः बिहार का एक छोटा सा गाँव है। चमारों की बस्ती है। वहाँ के लोगों ने अपने गाँव का नाम बदल कर ‘डॉ. भीमराव अम्बेडकर ग्राम’ रख लिया है। वे यहीं नहीं रुके। गाँव के नामवाले बोर्ड पर बड़े-बड़े अक्षरों में ‘दा ग्रेट चमार’ लिख कर अपनी सामाजिक प्रताड़ना, उपेक्षा को अपना गर्व घोषित किया है।
2014 में दिल्ली में बड़ा हंगामा हुआ था। मासिक पत्रिका ‘फारवर्ड प्रेस’ के सम्पादक, दलित लेखक-विचारक प्रमोद रंजन को कुछ महीने भूमिगत रहना पड़ा था। वे तभी बाहर आए थे जब उनकी अग्रिम जमानत हो गई। पत्रिका के इस अंक में, हिन्दू देवी दुर्गा और महिष का एक चित्र छपा था जिसमें, महिष वध के जरिए हिन्दू देवी-देवताओं द्वारा आदिवासी नायकों, देवी-देवताओं पर किए गए अत्याचारों का उल्लेख किया गया था। कट्टर हिन्दू समाज ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया की थी और अपने राजनीतिक प्रभाव का उपयोग कर प्रमोद रंजन तथा उनके सहयोगियों के विरुद्ध पुलिस कार्रवाई की थी। हिन्दू समाज की इस कार्रवाई की प्रतिक्रिया में बिहार, झारखण्ड के अन्तरवर्ती इलाकों में अनेक स्थानों पर महिष महात्सवों की खबरें आई थीं।
गए दिनों एक आई ए एस अधिकारी का भाषण फेस बुक और वाट्स एप पर ‘वायरल’ हुआ। दलित समुदाय से जुड़े ये अधिकारी स्थिर चित्त और शान्त भाव से श्रोताओं का आह्वान कर रहे थे - ‘गीता को समुद्र में फेंक दो।’ (क्योंकि यह मनुष्य-मनुष्य में भेद करती है।) लेकिन यह आह्वान महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है, हिन्दू समाज में हुई इसकी प्रतिक्रिया। कोई सामान्य आदमी यह आह्वान करता तो देशव्यापी हंगामा हो जाता। किन्तु इस मामले में ‘आहत भावनाएँ’ आक्रामक स्वरों में गर्जन-तर्जन करने के बजाय मिमिया कर रह गईं। निश्चय ही यह ‘आई ए एस’ के प्रभाव से ही हुआ होगा।
बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखण्ड के अनेक समुदायों के वैवाहिक निमन्त्रण-पत्रों का स्वरूप बदल गया है। इन पर अब किसी हिन्दू देवी-देवता का न तो नाम छप रहा है न ही चित्र। इनके स्थान पर अम्बेडकर, ज्योति बा फुले, काशीराम, विवेकानन्द, गौतम बुद्ध, मायावती, स्थानीय दलित नेताओं के चित्र और इन्हीं के उद्धरण छप रहे हैं। ऐसे निमन्त्रण-पत्र छपवानेवालों में उच्च शिक्षित और अशिक्षित समान रूप से शामिल हैं।
उत्तर प्रदेश में ‘धम्म सम्मेलनों’ की मानो बाढ़ आ गई है। बाढ़ नहीं तो फैशन तो आ ही गया है। छोटे-छोटे गाँवों से लेकर बड़े कस्बों, नगरों में धम्म सम्मेलनों के आयोजन एक के बाद एक होने की खबरें निरन्तर आ रही हैं।
‘सेनाओं’ के मामले अब तक बिहार और राजस्थान से ही मुख्यतः जुड़े रहे हैं। लेकिन ‘भीम सेना’ या कि ‘भीम आर्मी’ अचानक ही एक धूमकेतु की तरह उभरी और छा गई। इसकी मौजूदगी अब गाँव-गाँव में नजर आने लगी है। चन्द्रशेखर ‘रावण’ के रूप में दलित युवकों को आवेशित, ऊर्जित करनेवालाएक नया नायक मिल गया।
अभी-अभी, दो ही दिन पहले किन्हीं प्रो. जयराम (यही नाम या आ रहा है मुझे) का, तेरह मिनिट का एक भाषण देखने/सुनने को मिला। इसका विषय था - ‘एससी, एसटी, ओबीसी का हिन्दू धर्म से कोई नाता नहीं है।’ ऐसे व्याख्यान महानगरों के बड़े-बड़े आडिटोेरियमों में हो रहे हैं जिनमें खड़े रहने की जगह नहीं मिलती। आदिवासियों को याद दिलाया जा रहा है कि भारत के ‘मूल वासी’ वे ही हैं, हिन्दू नहीं। हिन्दू तो हमलावर बन कर यहाँ आये।
ये सारी बातें, ये सारी घटनाएँ न तो अचानक हुई हैं न ही एक साथ हुई हैं। लेकिन इनका ‘कोलॉज’ अपने आप में एक सन्देश देता है। नहीं जानता कि आप इसका क्या अर्थ लेते हैं किन्तु मेरे तईं इसका सन्देश है - यदि सब कुछ ऐसा ही चलता रहा जैसा कि इस क्षण चलता नजर आ रहा है तो जल्दी ही इस देश में हिन्दू, अल्प संख्यक हो जाएँगे। और यह किसी ‘अल्पसंख्यकों के षड़यन्त्र’ के कारण नहीं, खुद हिन्दू समाज के कारण होगा।
भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने के मकसद से, गए तीन बरसों से देश में जो हो रहा है, यह उसी की प्रतिक्रिया है। हिन्दू राष्ट्र निर्मातओं को यह अन्तिम अवसर अनुभव हो रहा है और वे अपने जीते-जी अपना सपना-संकल्प पूरा करने के लिए पण-प्राण से जुटे हुए हैं। हिटलर का ‘रक्त शुद्धता और नस्लीय श्रेष्ठता’ उनका आदर्श और आधार है। लेकिन वे, परिणाम को आमूलचूल बदलदेनेवाली एक छोटी सी अनदेखी कर रहे हैं। जर्मनी में वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था नहीं है। वहाँ जर्मन और यहूदी ही एकमात्र अन्तर था। भारत में वर्ण और जाति व्यवस्था के चलते इसका हिन्दू राष्ट्र बन पाना, उपरोल्लेखित तमाम घटनाओं के लिहाज से असम्भव ही है। धर्म सबको समान मानता है लेकिन जाति और वर्ण पूरी तरह से भेदभाव आधारित हैं। ऐसे में यदि हिन्दू राष्ट्र बनाना है तो सबको केवल हिन्दू मानकर ही व्यवहार करना पड़ेगा। धर्म की समानता और जाति-वर्ण का भेद साथ-साथ नहीं निभाया जा सकता। ऊना में जिन दलितों को नंगा करके पीटा गया वे हिन्दू थे। रोहित वेमुला भी हिन्दू था। वर्ण और जाति के नाम पर देहातों में आज भी हिन्दुओं पर भरपूर अत्याचार हो रहे हैं। वे जूते-चप्पल पहन कर नहीं निकल सकते। वे अपने बच्चों के विवाह की बनोरियाँ, बारातें गाजे-बाजे से नहीं निकाल सकते। दलित दूल्हों को पुलिस संरक्षण में, हेलमेट पहन कर निकलना पड़ रहा है। दलित हिन्दू महिलाएँ निर्वस्त्र कर, गाँवों में घुमाई जा रही हैं। दलित हिन्दू युवाओं, पुरुषों को मल-मूत्र खिलाया-पिलाया जा रहा है। धर्म, वर्ण और जाति के नाम पर नृशंसता और क्रूरता के चरम दृष्य आज भी देखने को मिल रहे हैं। अंग्रेजी कहावत ‘सम्पूर्ण सत्ता सम्पूर्ण रूप से भ्रष्ट करती है’ बदल कर ‘सम्पूर्ण सत्ता चरम अमानवीयता, नृशंसता और क्रूरता सहित सम्पूर्ण रूप से भ्रष्ट करती है’ में बदल गई है।
दलित, शोषित, पीड़ित समाज को विश्वास हो चला है कि वह केवल वोट लेने तक के लिए हिन्दू है, समानता और अवसरों के लिए नहीं। इस बार हुई और हो रही प्रतिक्रिया ने न्यूटन का, गति का तीसरा नियम बदल सा दिया है। इस बार प्रतिक्रिया विपरीत तो हो रही है किन्तु समान नहीं, समान से कहीं अधिक तेज। दीवार पर फेंकी जा रही रबर की गेंद इस बार दुगुनी ताकत से लौटती नजर आ रही है। यह देखना रोचक होगा कि अगली जनगणना में देश के कितने समुदाय खुद को हिन्दू लिखवाने से इंकार करते हैं।
धर्म सदैव ही नितान्त निजी मामला रहा है। वह जब भी सामूहिक होता है तब ध्वस्त करता भी है और ध्वस्त होता भी है।
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(दैनिक 'सुबह सवेरे', भोपाल में 13 जुलाई 2017 को प्रकाशित)
धर्म और जाति के नाम पर विभाजन बहुत पुरानी चाल है,जो अपने अपने हित के लिए सदा चली जाती है । हरेक पार्टी में विघटनकारी तत्व मौजूद रहते है,जनता इनके षड्यंत्र समझे तब तक बहुत देर हो चुकी होती है ।
ReplyDeleteधर्म और जाति के नाम पर विभाजन बहुत पुरानी चाल है,जो अपने अपने हित के लिए सदा चली जाती है । हरेक पार्टी में विघटनकारी तत्व मौजूद रहते है,जनता इनके षड्यंत्र समझे तब तक बहुत देर हो चुकी होती है ।
ReplyDeleteबहुत सटीक बात कही आपने.
ReplyDeleteरामराम
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (13-07-2017) को "झूल रही हैं ममता-माया" (चर्चा अंक-2666) (चर्चा अंक-2664) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Chinta jayaj hai. Kash... Tathakathit Hindu is samajh payen
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