रेल का प्रस्थान का समय सवा आठ बजे है लेकिन मैं साढ़े सात बजे ही स्टेशन पहुँच गया हूँ। मेरा देहातीपन अब भी मेरे साथ बना हुआ है। ‘रेल छूट न जाए’ का डर घर से जल्दी निकाल देता है। जाती हुई रेल के अन्तिम डिब्बे के पीछे, डिब्बे के पूरे आकार में बने, अंग्रजी वर्णमाला के अन्तिम अक्षर एक्स को देखने की झुंझलाहट झेलने के बजाय स्टेशन पर राह देखना ज्यादा भला। स्टेशन पहुँचते-पहुँचते बरसात शुरु हो गई थी जो टिकिट लेकर प्लेटफार्म नम्बर दो पर पहुँचने तक तेज, मूसलाधार में बदल गई। दोहरी खुशी से लबालब हो गया। घर से देर से निकलने पर रेल छूटने के खतरे से भी बच गया और भीगने से भी। इससे पहले के दिनों में दो-चार बार पानी बरस चुका था लेकिन कहने भर को। आज की बारिश से लगा कि बरसात का मौसम शुरु हो गया है।
रेल, रतलाम से इन्दौर के बीच चलती है। रतलाम से इन्दौर आकर, दस मिनिट बाद ही वापस रतलाम के लिए चल देती है। रेल के आने के समय में होती कमी और बरसात की तेजी में मानो होड़ लग गई है। प्लेटफार्म पर लटकी घड़ी के चमकते अंक ज्यों-ज्यों 20:05 के नजदीक जा रहे हैं त्यों-त्यों बरसात तेज हो रही है। प्लेटफार्म पर जगह-जगह पानी टपकने लगा है। रतलाम की ओर जानेवालों की संख्या पल-पल बढ़ती जा रही है। बरसात ने प्लेटफार्म को छोटा कर दिया है। हर कोई सूखी जगह तलाश कर, भीगने से बचने की जुगत में है। रेल के आने से पहले ही रेल की क्षमता से कहीं अधिक लोग प्लेटफार्म पर मौजूद हैं। रेल के आने की सूचना मिलते ही सब प्लेटफार्म के किनारे पर खड़े हो गए हैं। हर कोई सबसे आगे रहने की कोशिश कर रहा है। लोग इस तरह खड़े हैं मानो पूरी रेल खाली आएगी और सबको अपने में समा लेगी। लेकिन सब यह भी जानते हैं कि ऐसा होगा नहीं।
रेल आती है। खचाखच भरी है। बैठनेवालों में बेचैनी फैल जाती है। बैठने की जगह मिलेगी भी या नहीं? बाल-बच्चों के साथवाले अधिक चिन्तित हो रहे हैं। रेल के रुकते ही संघर्ष शुरु हो जाता है। पहले कौन सफल हो - उतरनेवाले या चढ़नेवाले। डिब्बों के दरवाजे सँकरे हो जाते हैं। वहाँ जाम लग जाता है। उतरनेवाले, चढ़नेवालों को डाँटना शुरु कर देते हैं। हमें नहीं उतरने दोगे तो चढ़ोगे कैसे? और चढ़ गए तो बैठोगे कहाँ, कैसे? इस बीच कुछ लोग खिड़कियों पास जाकर, अपने अंगोछे-टॉवेल अन्दर बैठे हुए यात्रियों की ओर फेंककर, अपने लिए जगह रोकने के लिए रिरियाते हैं। कुछ के लिए जगह रुक जाती है लेकिन अन्दर बैठे कई लोग इंकार कर देते हैं। कहते हैं कि उन्हें भी रतलाम ही जाना है जिसके लिए वे लक्ष्मीबाई नगर (इन्दौर से रतलाम की ओर, आनेवाला पहला स्टेशन) जाकर जगह रोक कर आ रहे हैं
युद्ध जैसा यह दृष्य देखकर मेरा हौसला पस्त हो जाता है। मोटापे की वजह से मैं यह सारी भागदौड़ नहीं कर पाता। इस तरह नहीं जूझ पाता। चुपचाप खड़ा हो जाता हूँ। जब सब लोग चढ़ जाते हैं, तब डिब्बे में चढ़ता हूँ। खूब अच्छी तरह जानता हूँ कि जगह नहीं मिलनेवाली। लेकिन आशावाद साथ नहीं छोड़ता। कई बार लोग इस उम्मीद में अपने पास एक-दो लोगों की जगह केवल इसलिए रोक लेते हैं कि कोई अपनेवाला आ जाएगा तो उसे जगह दे देंगे। सोचता हूँ, इतना बड़ा डिब्बा है। कोई न कोई ऐसा परिचित तो मिल ही जाएगा जिसने इसी तरह जगह रोक रखी होगी। कई बार ऐसे लोग मिल जाते हैं जिन्हें मैं नहीं जानता लेकिन जो मुझे जानते हैं।
लेकिन डिब्बे में चढ़ते ही यह आशावाद सबसे पहले साथ छोड़ देता है। यह पूरा डिब्बा नहीं है। डिब्बे के अन्तिम हिस्से को छोटे से डिब्बे का रूप दिया हुआ है। आमने-सामने के दोनों दरवाजों के पास, तीन लोगों के बैठनेवाली एक-एक सीट लगी हुई है-कुल जमा चार सीटें। याने बारह लोग ही बैठ सकते हैं। लेकिन डिब्बे में खुली जगह खूब सारी है। मैं नजर घुमा कर चारों ओर देखता हूँ। मर्द, औरतें, बच्चे मिला कर कम से कम तीस लोग तो होंगे ही। बैठे हुए लोगों के मुकाबले खड़े हुए लोग ज्यादा। इस बार मैं फटाफट निर्णय लेता हूँ। डिब्बे की दीवार से सटाकर अपनी चादर बिछा कर बैठ जाता हूँ। इतनी जगह मिल गई है कि टाँगे फैलाकर बैठ सकूँ। इस समझदारी और सफलता पर अपनी पीठ थपथपा लेता हूँ क्योंकि कुछ ही क्षणों बाद लोगों को यह सुविधा भी नहीं मिल पाती।
पीठ टिकाते ही पहला विचार मन में आया - ‘कौन अधिक गतिवान है? समय या मनुष्य?’ फिलवक्त तो मनुष्य ही अधिक गतिवान है। बैठ पाएँ हों या खड़े रहना पड़ रहा हो, दस मिनिट से पहले ही सबने अपनी-अपनी जगह ले ली। इतना ही नहीं, इतनी जल्दी सामान्य भी हो गए कि आपस में पूछने भी लगे - ‘कब चलेगी? सवा आठ तो बज गए!’ लेकिन सवाल दोहराया जाए, उससे पहले ही इंजन का हार्न बजता है और रेल चल पड़ती है। सब खुश हो जाते हैं, ‘वक्त पर चल दी है तो वक्त पर पहुँच भी जाएगी।’
रेल लक्ष्मीबाई नगर भी नहीं पहुँचती कि लोगों का बतियाना बन्द हो जाता है। सब शायद थके हुए हैं। बरसात का शोर भी बहुत ज्यादा है। कुछ लोग अभी से उनींदे होने लगे हैं। मेरे पास एक किशोर बैठा है। उससे सटा हुआ एक अधेड़। किशोर ने बैठते ही घुटने सिकोड़कर दोनों बाहों से गठरी बना ली है और सिर देकर सो गया है। अधेड़ ने पीठ टिका कर आँखें बन्द कर ली हैं। लोगों ने मानो मौन व्रत ले लिया है। और तो और, साथ-साथ बैठी हुई महिलाएँ भी चुप हैं। उनके साथ के बच्चे भी सयानों की तरह चुपचाप बैठे हैं। एक बच्चा तनिक जोर-जोर से पाँव पटक कर, रेल के पहियों के साथ तबले की तरह थाप मिला रहा है। वह पाँच-सात बार ही ऐसा कर पाता है कि उसकी माँ आँखें तरेर कर उसे घुड़क देती है। बच्चा सहम कर चुप बैठ जाता है।
अब डिब्बे में केवल बरसात की आवाज चहल-कदमी कर रही है। मैं आसपास देखता हूँ। चलती रेल के हिलते डिब्बे में सब कुछ मानो फ्रीज हो गया है। लेकिन नहीं। सब कुछ ऐसा नहीं है। डिब्बे के सामनेवाले आधे हिस्से में एक औरत खड़ी है। बाँहों में, लगभग एक बरस के बच्चेे को थामे। उसका पहनावा उसका धरम उजागर कर रहा है। निश्चय ही वह बहुत थकी हुई है। उसकी आँखें बराबर खुल नहीं पा रहीं। नींद से भरी हुई हैं। जब भी आँखें खोलती है, दयनीय मुद्रा में आसभरी नजर से देखती है, कहीं बैठने की जगह मिल जाए या कोई दयालु उसके लिए अपनी जगह छोड़ दे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं होता। सीटों पर जो उनींदे बैठे हैं, वे तो देख ही नहीं पा रहे और गिनती के जो दो-चार लोग देखते हैं वे फौरन ही नजरें फेर लेते हैं। शायद खुद से ही डरते हैं-‘कहीं मन में आत्मघाती करुणा न उपज जाए।’ कोई उसकी मदद नहीं करता। न उसके धरमवाले न ही दूसरे धरमवाले। इस देखा-देखी से वह जल्दी ही उबर जाती है और नंगे फर्श पर बैठ जाती है। उसके पास बिछाने को कुछ नहीं। बच्चा शायद अपनी माँ का कष्ट समझ गया है। कुछ ही पलों में वह सो जाता है। सोये हुए बच्चे को गोद में लिए औरत भी बैठे-बैठे ही झपक जाती है। अब उसके चेहरे पर असीम शान्ति है। दुःख, थकान, पीड़ा कुछ भी नहीं है।
बड़नगर में कई लोग उतरते हैं। लेकिन इतने नहीं कि उस औरत को और मुझे बैठने की जगह मिल जाए। हाँ, फर्श लगभग पूरा खाली हो गया है। अब कोई खड़ा हुआ नहीं है। बड़नगर से रतलाम का सफर लगभग एक घण्टे का है। लेकिन तब भी कोई उसके लिए जगह नहीं छोड़ता। सब बैठे हुए हैं। औरत, कपड़ों में लिपटे बच्चे को फर्श पर सुला देती है और एक सीट के कोने से माथा टिका कर सो जाती है।
रेल ने नौगाँव पार कर लिया है। अब रेल बीस मिनिट में ही रतलाम पहुँच जाएगी। लोग हरकत में आने लगे हैं। अपना-अपना सामान समेट रहे हैं। सबकी कोशिश रहेगी, सबसे पहले उतरें, भाग कर अपना वाहन पकड़ें और जल्दी से जल्दी घर पहुँच कर बिस्तर में दुबकें। लेकिन वह औरत वैसी की वैसी सोई हुई है। उसके पास कोई सामान नहीं है। न तो उसकी नींद खुल रही है न ही बच्चे की।
रेल की गति धीमी हो गई है। रतलाम का आउटर सिगनल पार कर लिया है। लोग दरवाजे के पास पहुँच गए हैं। लेकिन दोनों माँ-बेटे जस के तस सोए हुए हैं। एक औरत से रहा नहीं जाता। सोई हुई औरत का कन्धा थपथपाते हुए, चिन्ता से डाँटते हुए कहती है - ‘अब तो उठ जा ए बेन। कब तक सोती रहेगी। रतलाम आ गया।’ औरत चमक कर जागती है। आँखें मसल कर सबसे पहले अपने बच्चे को देखती है। उसे सोया देख, मुस्कुरा देती है। लाड़ से गोद में लेती है और उठकर सबके पीछे खड़ी हो जाती है। उसकी शकल कह रही है, उसे और उसके बच्चे को जगह न देने के लिए उसे किसी से कोई शिकायत नहीं है। मैं भी अपनी चादर की घड़ी कर झोले में रखता हूँ और उस औरत के पीछे खड़ा हो जाता हूँ। मुझे कोई जल्दी नहीं है। मेरा स्कूटर स्टैण्ड पर रखा है। घर पर गरम रोटी तैयार मिलेगी।
रेल रुकती है। उतरनेवाले गिनती के हैं लेकिन फिर भी आपाधापी मच जाती है। लेकिन वह औरत बिलकुल भी जल्दबाजी नहीं करती। निश्चिन्त भाव से उतरती है। कुछ इस तरह मानो उसे लिवाने के लिए कोई बाहर खड़ा हो और घर पर गरम रोटी उसका भी इन्ताजर कर रही हो। हकीकत तो भगवान ही जाने किन्तु पता नहीं क्यों उसकी यह निश्चिन्तता मुझे खुश कर देती है।
सब यात्री उतर गए हैं। हमारा डिब्बा सबसे अखिर में था। प्लेटफार्म पर उतरनेवाला मैं अन्तिम यात्री हूँ। सब चले जा रहे हैं। मैं उस औरत के पीछे-पीछे चल रहा हूँ। सबको घर पहुँचने की उतावली है लेकिन वह शान्त भाव से, मन्थर गति से चल रही है।
रात के ग्यारह बजने वाले हैं। रतलाम में बरसात हो चुकी है। वातावरण में ठण्डक घुल आई है। प्लेटफार्म पर नीरवता छाई हुई है। सबके पीछे चलते हुए, उस औरत को देखते हुए मैं सोच रहा हूँ, सुख-दुःख और स्वार्थ का आपस में कोई रिश्ता होता है? इनका कोई धर्म होता है?
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काश सब ऐसे निश्चिंत सो पाते, निश्चिंत हो पाते!
ReplyDeleteआपका लिखा दिल को छू गया, आजकल ऐसा कौन है जो भाग दौड़ में शामिल नहीं है।
ReplyDeleteबहुत दिनों बाद......... अच्छा लगा
ReplyDeleteशब्दों से ही पूरी फ़िल्म बना दी है सर आपने!
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