मेरे कस्बे के ‘श्री अन्नपूर्णा अन्नक्षेत्र ट्रस्ट बोर्ड’ द्वारा संचालित वृद्धाश्रम में जो भी एक बार दान देता है, वह आजीवन यहाँ दान देते रहता है। यहाँ दान के समारोह आयोजित करने, फोटो खींचने की अनुमति नहीं और यहाँ रहनेवाला निःशक्त, निराश्रित यदि भीख माँगता नजर आए तो तत्काल निकाल दिया जाता है। ‘समारात्मक समाचार’ के खोजी पत्रकारों के लिए यह बहुत ही बढ़िया ‘न्यूज स्टोरी’ है। कहने को इसका संचालन एक ट्रस्ट करता है लेकिन वस्तुतः यहाँ का प्रख्यात ‘सुरेका परिवार’ ही इसका संचालन-प्रबन्धन करता है। यहाँ दान की रकम पर आय कर में छूट मिलने का प्रावधान है। आय कर विभाग के सक्षम अधिकारी से इस प्रावधान का नवीकरण कराना पड़ता है।
कुछ बरस पहले, नवीकरण आदेश प्राप्त करने के लिए सुरेन्द्र भाई सुरेका उज्जैन स्थित आय कर कार्यालय पहुँचे। कोई युवा आईआरएस अधिकारी वहाँ आई-आई ही थीं। उन्हें लगता था कि ऐसे ट्रस्ट काले धन को सफेद करने की दुकानें हैं। सुरेन्द्र भाई को भी उन्होंने इसी नजर से देखा और ट्रस्ट का, पिछले पाँच वर्षों का हिसाब प्रस्तुत करने के लिए अगली तारीख दे दी। निर्धारित तारीख को सुरेन्द्र भाई एक छोटा-मोटा गट्ठर लेकर पहुँचे। अधिकारी के पूछने पर सुरेन्द्र भाई ने कहा कि वे चालीस बरसों का हिसाब लाए हैं। गट्ठर में छपी हुई चालीस किताबें थीं। हर बरस के हिसाब की एक किताब। कुछ के पन्ने पलटने के बाद अधिकारी ने न कुछ देखा, न कुछ पूछा। अपने हेण्ड बेग में से कुछ रुपये निकाले, सुरेन्द्र भाई को थमाए और दफ्तर में मौजूद सारे आय-कर सलाहकारों को आदेशित किया कि वे सब इस ट्रस्ट को अभी ही अपनी-अपनी दान राशि दें। क्योंकि ‘किसी ट्रस्ट का ऐसा व्यवस्थित काम-काज उन्होंने पहली बार देखा है और ऐसे ट्रस्ट को तो मदद करनी ही चाहिए।’ वार्षिक हिसाब की किताब में ‘आठ पुराने कपड़े, पन्द्रह ग्राम चाय-पत्ती और दस ग्राम हींग’ जैसे दान का भी उल्लेख होता है।
लेकिन, जो अन्नक्षेत्र/वृद्धाश्रम अपने आप में एक सम्पूर्ण समाचार-कथा है, उस पर मैं यह आधी-अधूरी जानकारी क्यों दे रहा हूँ?
देश में नोटबन्दी की पहली वर्ष गाँठ/बरसी मनाई जा रही है। अखबार सरकारी विज्ञापनों से रंगे पड़े हैं। टीवी चैनलों के पास किसी दूसरे विषय के लिए समय ही नहीं रह गया है। सरकार उपलब्धियाँ गिनवा रही हैं और प्रतिपक्ष, नोटबन्दी की वेदी पर हुई मौतों के आँकड़े। एक दूसरे को परास्त करने में लगे उत्सवी और धिक्कार के मिले-जुले तुमुलनाद से आकाश भरा हुआ है। लेकिन मैं निराश हूँ। नोटबन्दी को लेकर नहीं। उस बात को लेकर जो मेरे हिसाब से लोकतन्त्र के प्रति किये गए सबसे बड़े दुष्कर्मों में से एक, प्राणघातक प्रहार है। वह न तो किसी अखबार में नजर आ रही है, न किसी चैनल पर और न ही धन्य-धिक्कार के कोलाहल में सुनाई दे रही है। ऐसा स्वाभाविक भी है। जनता के सोचने-विचारने की शक्ति चतुराईपूर्वक, छीन ली गई है। राजनीतिक दलों ने उसे धर्म-जाति, देशभक्ति-राष्ट्रवाद के भ्रामक, अवांछित मुद्दों में उलझा दिया है। लगता है वह कि रोटी-कपड़ा-मकान भी भूल गई है। लोकतन्त्र के साथ किए गए इस दुष्कर्म में तमाम राजनीतिक दल एक-मत हो गए हैं।
राजनीतिक दलों को मिलनेवाला चन्दा देश की सबसे बड़ी चिन्ताओं, समस्याओं में शामिल किया जाना चाहिए। लोकतन्त्र को उसके मूलस्वरूप में लाने हेतु प्रयत्नरत लोग इस मुद्दे को पहले नम्बर पर लाने की कोशिशें कर रहे हैं लेकिन धन-पिशाच उन्हें सफल नहीं होने दे रहे। राजनीतिक दलों को मिलनेवाले चन्दे को सूचना के अधिकार के दायरे में लाने की छोटी से छोटी कोशिश भी उन्हें आँख की किरकिरी लगती है। वे इसे मुद्दा ही नहीं मानते। मौजूदा सरकार से उम्मीद थी कि वह इस मामले में जनभावनाएँ समझेगी और चन्दे को पारदर्शी बनाएगी। लेकिन इसने तो जो किया वह कोढ़ ‘में खाज’ जैसा। बीमारी के उपचार के नाम पर बीमारी से भी अधिक खतरनाक किया। भ्रष्टाचार और कालेधन की समाप्ति मौजूदा सरकार की घोषित सबसे बड़ी चिन्ता, पहली प्राथमिकता रही है। लेकिन कथनी और करनी के अन्तर को देखकर लगता है, देश का लोकतन्त्र बुरी तरह से छला गया। कुछ इस तरह कि चील ने वाद किया कि वह अपने घोंसले में रखे मांस की रक्षा करेगी और देश ने भरोसा कर लिया। दशा कुछ ऐसी हो गई -
बागबाँ ने आग दे दी आशियाँ को जब मेरे,
जिन पे तकिया था वे ही पत्ते हवा देने लगे।
इस सरकार ने राजनीतिक दलों के चन्दे को लेकर जो पाखण्ड किया, वह बेमिसाल है। नगदी चन्दे की सीमा तो घटाई लेकिन ‘इलेक्टोरल बाण्ड’ बॉण्ड का प्रावधान कर लोकतन्त्र की आत्मा ही मार दी। दूसरों की छोड़िए, भारत निर्वाचन आयोग ने इसे ‘अवनतिशील कदम’ (रिट्रोगेटेड स्टेप) कहा।
यह प्रावधान केवल कार्पोरेट घरानों और राजनीतिक दलों (खासकर सत्तारूढ़ दल) की स्वार्थपूर्ति केे गठजोड़ को मजबूत बनाने की सुविधा उपलब्ध कराता है। इसमें व्यवस्था है कि जो भी (व्यक्ति/संस्थान) ‘इलेक्टोरल बॉण्ड’ खरीदेगा, खरीदी की यह रकम उसकी आय में से कम कर दी जाएगी। यह व्यक्ति/संस्थान अपना (खरीदा गया) इलेक्टोरल बॉण्ड किसी भी दल को दे सकेगा लेकिन किसे दिया है, यह बताना आवश्यक नहीं होगा। चूँकि बॉण्ड पर देनेवाले का नाम नहीं होगा, इसलिए प्राप्त करनेवाला दल भी अपनी हिसाब-बही में देनेवाले का नाम लिखने से मुक्त हो जाता है। इस बॉण्ड की रकम की तो रसीद भी जारी नहीं होगी। इस बॉण्ड के प्रावधान के बाद तो राजनीतिक दलों के चन्दे को सूचना के अधिकार के अधीन लाने के बाद भी मालूम नहीं हो सकेगा कि किसने चन्दा दिया। अब होगा यह कि एक कार्पोरेट घराने ने हजारों करोड़ रुपयों के इलेक्टोरल बॉण्ड खरीदे। यह रकम उसकी आय में से कम हो गई। उसने किस दल को दिए, यह बताना उसके लिए जरूरी नहीं। जिसे मिले, उसने अपने खाते में जमा कराए। लेकिन रसीद नहीं कटी। इसलिए किसी का नाम भी नहीं। यह भी हो सकता है कि कार्पोरेट घराने का कोई कारिन्दा, सीधे ही बैंक में यह बॉण्ड जमा करा दे। उस हालत में राजनीतिक दल भोलेपन से कहेगा - ‘पता नहीं किसने हमारे खाते में जमा कराए।’ पहले चन्दा चेक से जाता था तो जगजाहिर होता था। अब तो ‘देनेवाले भी श्रीनाथजी और लेनेवाले भी श्रीनाथजी’ जैसी स्थिति रहेगी। चन्दा दे भी दिया, ले भी लिया फिर भी सब कुछ गुमनाम। ‘रिन्द के रिन्द रहे, हाथ से जन्नत न गई’ वाला शेर साकार हो गया।
इलेक्टोरल बॉण्ड का यह प्रावधान राजनीति शुचिता और पारदर्शिता की अवधारणा को सिरे से खारिज करता है। निर्वाचन आयोग ने इसे ‘अवनतिशील’ कहा है लेकिन यह वस्तुतः ‘लोकतन्त्र के लिए पतनशील कदम’ है।
काले धन की एक मात्र परिभाषा है - ‘अज्ञात स्रोतों की आय।’ पानेवाले के पास स्रोत की जानकारी न होना। इस लिहाज से इलेक्टोरल बॉण्ड काले धन के सिवाय और क्या है? काला धन और भ्रष्टाचार परस्पर पर्यायवाची हैं। ये दोनों ही हमारी मौजूदा सरकार के घोषित निशाने पर हैं। लेकिन लगता है, खात्मे के निशाने पर नहीं, पालन-पोषण-पल्लवन-विकास के निशाने पर हैं। हर कोई अपने काले धन को सफेद करने की जुगत में भिड़ा रहता है। लेकिन हमारी सरकार ने सफेद धन को काले धन में बदलने का विलक्षण, ऐतिहासिक काम किया है।
हमारा देश सचमुच में विविधताओं, विचित्रतताओं, विशेषताओं का देश है। यहाँ पन्द्रह ग्राम चाय पत्ती और दस ग्राम हींग के दानदाता का नाम बतानेवाला आदमी है तो करोड़ों का चन्दा देनेवाले का नाम छुपाने की सुविधा देनेवाले प्रधान मन्त्री-वित्त मन्त्री भी हैं।
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(दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल। 09 नवम्बर 2017)
आप के इस तरह लिखने पर एक तरफ तो खुशी देता है और दूसरी तरफ चिंता भी क्योंकि रतलाम जैसा नगर आजकल विशालहृदय नही रहा है
ReplyDeleteफिर भी आप के जज्बे को बार बार सलाम दादा।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (10-11-2017) को
ReplyDelete"धड़कनों को धड़कने का ये बहाना हो गया" (चर्चा अंक 2784)
पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, जोकर “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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