भीड़ बन जाना ही हमारी प्रॉब्लम है सर!

‘सर! मैं करीब-करीब पूरा इण्डिया घूम लिया हूँ। और मुझे कहीं ऐसा नहीं लगा जैसा आप पूछ रहे हो और सोच रहे हो।’ वसीम ने कहा तो मैं चौंक गया। बात के बादवाले हिस्से ने तो भरपूर तसल्ली दी लेकिन पूरा भारत घूम लेनेवाली बात पर विश्वास नहीं हुआ। लगा, बात करते-करते, रौ में बहकर गलतबयानी कर बैठा। अभी उसकी उम्र ही कितनी है! कुल 29 बरस! उसी ने बताया था। मैंने भेदती नजर से पूछा - ‘कैसे मुमकिन है? कितने बरस की उम्र में काम शुरु किया?’ ‘सर, पाँच बरस की उम्र से संघर्ष कर रहा हूँ।’ सड़क पर नजरें जमाए उसने जवाब दिया। मैं फिर चौंका। कार चलाते ड्रायवर से मैं सामान्यतः बात नहीं करता हूँ। लेकिन इस बार खुद को रोक नहीं पाया। 

हुआ यह कि भानजी प्रीति की बिटिया रोशी (रजनी) के विवाह की कुछ रस्मों में शरीक होने के लिए गुरुवार को हम दोनों (पति-पत्नी) को मन्दसौर जाना था। मुझे अपने रिश्तेदार से अधिक मान देनेवाले, बैंक कर्मचारियों के बड़ेे नेता हरीश  भाई यादव की कार मिल गई थी। ड्रायवर की व्यवस्था, हरीश भाई के विश्वस्त अरविन्द को करनी थी। अरविन्द ने पूछा - ‘सर! मुसलमान ड्रायवर चलेगा?’ मुझे हैरत भी हुई और बुरा भी लगा। लगा, अरविन्द ने मुझे गाली दे दी है। मैंने तनिक रोष से जवाब दिया - ‘बिलकुल चलेगा। किसी भी जात-धरम का चलेगा। लेकिन तुमने यह पूछा क्यों?’ उसने सहम कर कहा - ‘सर! कुछ लोगों को नहीं चलता।’ सुनकर और बुरा लगा था। ऐसा भी कहीं होता है? लेकिन होता ही होगा। वर्ना भला, बेचारा अरविन्द पूछता ही क्यों? मेरी बात के जवाब में अरविन्द ने कार सहित हम दोनों को वसीम के हवाले कर दिया।

जैसा कि मैंने कहा है, मैं कार चला रहे ड्रायवर से सामान्यतः बात नहीं करता। उसका ध्यान भंग न हो, इसलिए। लेकिन अरविन्द के सवाल ने मुझे आकुल कर रखा था। बस्ती से निकल कर हम लोग जैसे ही फोर लेन पर आए, मैंने वसीम से बतियाना शुरु कर दिया था। मैं जानना चाहता था कि इन दिनों के, धर्मान्धता और नफरत के माहौल से उसके काम-काज पर, उसके साथ हो रहे व्यवहार पर, उसके मुसलमान होने से क्या कोई फर्क पड़ा? उसे कोई परेशानी हुई या हो रही है? उसकी रोजमर्रा की जिन्दगी में कोई बदलाव आया है? उसे अपनी धार्मिक पहचान छुपानी तो नहीं पड़ती? मेरी बातों के जवाब में उसने टुकड़ों-टुकड़ों में जो कुछ वह कुछ इस तरह था -

‘सर! मुझे कहीं भी, कुछ भी फर्क नहीं पड़ा। सब कुछ वैसा का वैसा है। जो लोग बरसों से मुझे बुला रहे हैं, वे उसी तरह आज भी बुला रहे हैं। आप तो जानते हो कि रतलाम में जैन समाज का बोलबाला है। इसलिए जैन समाज में ही मेरा ज्यादा आना-जाना है। व्यवहार में भेद-भाव तो दूर की बात है सर! कोई भी मुझे यह अहसास भी नहीं कराता कि मैं मुसलमान हूँ। अभी कुछ दिनों पहले मैं चैन्नई ट्रिप पर गया था। पूरे पन्द्रह दिनों में घर आया। लेकिन मुझे एक सेकण्ड भी नहीं लगा कि मुझे मजहबी तौर पर अलग से ट्रीट किया जा रहा है। चार-चार, पाँच-पाँच दिनों के ट्रिप तो मेरे लिए अब आम बात है सर!’ और फिर वही कहा जो मैंने शुरु में लिखा है - कि वह करीब-करीब पूरा भारत घूम चुका है।

पाँच बरस की उम्र से संघर्ष करनेवाली बात पर मेरे सवाल के जवाब में उसने मानो अपनी जिन्दगी की किताब ही मेरे हवाले कर दी। वह पाँच बरस की उम्र में बिना माँ का हो गया था और नौ बरस की उम्र में पिता भी चल बसे। कहने को बड़ा भाई था तो जरूर लेकिन इतना बड़ा नहीं कि छोटे भाई की देख-भाल कर सके। छोटे भाई से फकत दो बरस बड़ा। यूँ तो अच्छा-खासा कुनबा लेकिन सबने आँखें फेर लीं। दोनों नासमझ बच्चों को महसूस करा दिया कि वे खुदा पर और अपने दोनों हाथों पर भरोसा करें। वह तो अच्छा हुआ कि पिताजी ने मकान बनवा लिया था। वर्ना जमाने ने तो कोई कसर नहीं छोड़ी थी। जमीन ही बिछाने और आसमान ओढ़ने की नौबत आ जाती। जिन्दा रहने के लिए दोनों भाइयों को माँ की मौत के बाद से ही हाथ-पाँव मारने शुरु करना पड़ गए थे। 

हमारी कार ‘कथित फोर लेन’ पर उचकती, हिचकोले खाती, ठेकेदार-नेता-अफसरों की ‘राष्ट्रीय चरित्र’ वाली पारम्परिक भ्रष्टाचारी मिलीभगत के किस्से बयान करती दौड़ रही थी। मेरी नजर वसीम पर टिकी हुई थी और वसीम था कि सड़क पर नजरें जमाए, मानो उसकी बगल में बनी हुई मेरी मौजूदगी से बेखबर, अपना काम किए जा रहा था।

वसीम की बातों ने मुझे मथ दिया था। करुणा के सोते प्रवाहित करती उसकी कहानी मुझे परेशान कर रही थी। लेकिन, मेरी मूल जिज्ञासा के जवाब में वह जो कुछ कह रहा था, उससे बड़ी तसल्ली, बड़ी ठण्डक मिल रही थी। कुछ इस तरह जैसे कि बैसाख के महीने में, किसी दानी पुरुष द्वारा शुरु की गई प्याऊ पर बैठ मुझे ठण्डा गंगा जल पिला रहा हो।

मैंने पूछा - ‘वसीम! कुछ बता सकते हो कि जब तुम्हें कोई परेशानी नहीं हो रही, तुम्हारा काम और तुम्हारे भाई का गेरेज बिना किसी बाधा, बिना किसी रुकावट के अच्छा-भला चल रहा है, तुम्हारे सर्कल में सभी धर्मों के लोग हैं और तुम कह रहे हो कि वे कभी भी तुम्हारे मुसलमान होने का अहसास भी नहीं कराते तो फिर मुल्क में, धर्म के नाम पर ये मरने-मारने, तोड़-फोड़, हंगामा, आगजनी, यह नफरत क्यों फैली हुई है।?’

अविचल और निर्विकार भाव से, किसी यन्त्र की तरह कार चलाते हुए वसीम ने शान्त, संयत और सधी हुई आवाज में जवाब दिया - ‘सर! अनपढ़-गँवार लोग ये सब बेकूफियाँ करते हैं। वे न तो कुछ जानते-समझते हैं न ही जानना-समझना चाहते हैं। ऐसे लोग सर! हर कौम, हर मजहब में होते हैं। कुछ पढ़े-लिखे धन्धेबाज लोग इन्हें जरिया बनाकर अपनी दुकानें चलाते हैं। बस! यही मुश्किल है सर।’ मैंने कहा - ‘लेकिन ये तो बहुत थोड़े लोग हैं। गिनती के। ये गिनती के लोग पूरे देश में बवाल कैसे पैदा कर देते हैं?’ इस बार वसीम ने मेरी ओर देखा और थोड़ा रुक कर बोला - ‘सर! गिनती के ये लोग जब हम लोगों को भीड़ में बदल देते हैं तो सब कुछ गड़बड़ हो जाता है। आप तो जानते ही हो सर! कि भीड़ का दिमाग नहीं होता। वो तो भेड़ों का रेवड़ बन जाती है। यदि गिनती के इन लोगों पर सख्ती से रोक लग जाए और हम लोग भीड़ में न बदलें तो कोई प्राब्लम ही न हो सर! हमारा भीड़ बन जाना ही सारी प्राब्लम है सर!’

शाम करीब पाँच बजे वसीम हमें घर पर छोड़ गया है। लेकिन उसकी निर्दोष बातों की पोटली मेरे सामने खुली पड़ी है। आधी रात बीत गई है। मैं पोटली को उलट-पुलट रहा हूँ। वसीम की बातें मुझे एक से बढ़कर एक, अनमोल जेवरों की तरह लग रही हैं। लेकिन मैं इन्हें बाँधकर अपनी आलमारी में नहीं रख सकता। इन्हें तो चौराहों पर लुटाने में ही इनकी सार्थकता और मेरी समझदारी है।

अचानक ही जिज्ञासा हो आई - ‘वसीम’ के मायने क्या हैं? मैं उर्दू-हिन्दी शब्दकोश उठाता हूँ। वसीम के मायने बताए गए हैं - ‘सुन्दर, शोभित, खूबसूरत।’ आधी रात में मेरी सुनहरी सुबह हो गई हो, ऐसा लग रहा है मुझे। 

यह वसीम तो फकत एक नौजवान नहीं, मेरा मुल्क है जो खुद अपना परिचय दे रहा है - सुन्दर, शोभित, खुबसूरत।
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6 comments:

  1. आज भारत के हर शहर,नगर और गाँव मे कई ऐसे इलाके है,जहाँ,हिन्दू और मुस्लिम दोनों समाज के लोग भाई चारे के साथ रहते है,नेता फैला रहे है नफरत का जहर और हम इनके बहकावें में आकर देश का नुकसान कर रहे है ।

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  2. आम नागरिक ऐसा ही उदार,सहयोगी एवं समावेशी स्वभाव लिए है।शेष जो हो रहा है,वह रचा जा रहा है।

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (14-04-2017) को "डा. भीमराव अम्बेडकर जयन्ती" (चर्चा अंक-2940) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 18 अप्रैल - विश्व विरासत दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  5. धर्म को यदि नितांत निजी मामला बना दिया जाए तो धर्मांधता पर अंकुश लग सकता है ।

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आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.