रॉकेट की यात्रा, बैलगाड़ी में बैठकर

हम दोनों, पत्नी-पति के नाम पर डाक घर में पाँच आवर्ती जमा (आर. डी.) खाते  हैं। डाक घर की बचत योजनाओं के एजेण्ट मित्रों की मदद से ये खाते चल रहे हैं। कोई तीन महीने पहले, इन एजेण्ट मित्रों ने एक के बाद एक कहना शुरु किया कि हमें डाक घर में बचत खाता अनिवार्यतः खुलवाना पड़ेगा क्योंकि डाक घर से अब न तो नगद भुूगतान मिलेगा न ही चेक से। इन मित्रों को मैंने बताया कि हमारे खाते पहले से ही दूसरे बैंकों में हैं। अब कहीं और नया खाता खुलवाने का कोई औचित्य नहीं है। डाक विभाग चेक न दे, हमारे खाते में नेफ्ट के जरिये भुगतान कर दे। लेकिन एक के बाद एक, पाँचों ने कहा कि डाक विभाग नेफ्ट से भी भुगतान नहीं करेगा। डाक घर में ही खाता खुलवाना पड़ेगा।

बात मेरी समझ में बिलकुल ही नहीं आई। तमाम आय-कर सलाहकार कहते हैं कि लोगों को कम से कम बैंक खाते रखने चाहिए। मुमकिन हो तो एक ही खाते से काम चलाना चाहिए। लेकिन यहाँ सरकार का ही एक विभाग जबरन खाता खुलवाने पर तुला हुआ है। मुझे लगा कि शायद इन एजेण्टों को नए खाते खुलवाने का ‘टार्गेट’ दे दिया गया है और प्रत्येक एजेण्ट अपने-अपने आवर्ती खाते के लिए हमारा अलग-अलग बचत खाता खुलवाना चाह रहा है। याने पाँच बचत खाते। लेकिन मेरा यह अनुमान गलत निकला। कहीं कोई टार्गेट नहीं था। हमें एक ही बचत खाता खुलवाना पड़ेगा। मेरे गले बात उतर ही नहीं रही थी।

मैं सीधा, प्रधान डाक घर के मुख्य डाक पाल से मिला। उन्होंने एजेण्टों की बात दुहराई - ‘यदि भुगतान लेना है तो आपको डाक घर में ही बचत खाता खुलवाना पड़ेगा।’ मैंने समझाने की कोशिश की तो वे अत्यधिक विनम्रता से बोले कि उन्हें मेरी बात समझ में आ रही है कि हम दोनों के नाम पर पहले से ही दूसरे बैंकों में खाते चल रहे हैं और हम चाह रहे हैं कि डाक विभाग नेफ्ट से हमारे खातों में हमारा भुगतान भेज दे। ‘लेकिन सर! इट इज नॉट पॉसिबल। आपको यहाँ खाता खुलवाना ही पड़ेगा। उसके बिना हम आपको पेमेण्ट नहीं कर पाएँगे।’ - उन्होंने शान्त स्वरों में कहा। वे तो शान्त थे लेकिन उनकी बात से मुझे चिढ़ आ गई। मुझे लगा, वे मेरे साथ ‘अफसरशाही’ बरत रहे हैं। मैंने कहा - ‘अजीब जबरदस्ती है! मेरा खाता पहले से बैंक में है। आप एक और खाता खुलवाने पर तुले हैं। मैं एक खाता और क्यों खुलवाऊँ? नहीं खुलवाना मुझे खाता।’ वे तनिक भी असहज या विचलित नहीं हुए। बोले - ‘यह तो आप ही तय करेंगे सर! लेकिन हमारी मजबूरी है कि हम आपको भुगतान तब ही कर सकेंगे जब आप डाक घर में बचत खाता खुलवा लें। आपके किसी और बैंक खाते में हम भुगतान नहीं कर सकेंगे।’

खुद पर नियन्त्रण रख पाना मेरे लिए पल-पल कठिन होता जा रहा था। धैर्य साथ छोड़ने को उतावला हुआ जा रहा था। तनिक ऊँची आवाज में मैंने कहा - ‘अजीब मनमानी है! ऐसा कोई आदेश है आपके पास?’ उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। चुपचाप अपना ड्राअर खोला और दो पन्ने मुझे थमा दिए। यह कहते हुए - ‘मुझे, यह आदेश मिलते ही लग गया था कि कभी न कभी, कोई यह सवाल जरूर करेगा। लीजिए! आप खुद ही पढ़ लीजिए।’ मैंने आदेश पढ़ा और मेरी बोलती बन्द हो गई। दोनों बातें साफ-साफ लिखीं थी - डाक घर से किया जानेवाला कोई भी भुगतान नगद या चेक से नहीं किया जाए और डाक घर के बचत खाते में ही भुगतान किया जाए। मेरे सुर बदल गए। मुख्य डाकपालजी से हो रहे सम्वादों में खिसियाहट और झेंप घुल गई। गर्मी खाने और अकड़ दिखाने पर शर्म भी आई। लेकिन गुस्सा कम नहीं हो रहा था। एक ओर तो डाक विभाग अपने तमाम डाक घरों को ‘सम्पूर्ण बैंक’ में बदल रहा है और दूसरी ओर बैंकिंग की न्यूनतम गतिविधि को अंजाम देने से इंकार कर रहा है! मैंने जानना चाहा कि आखिर क्या वजह है जो मुझे नेफ्ट से भुगतान नहीं मिल पाएगा? मुख्य डाकपालजी ने इस बार अत्यधिक विनम्रता बरती। बोले - ‘मुझे माफ करें। यह बताने की इजाजत मुझे नहीं है। आप तो व्यापक सम्पर्कों वाले आदमी हैं। पता करने में आपको देर नहीं लगेगी।’

मैं चुपचाप चला आया। इतना चुपचाप कि धन्यवाद ज्ञापित करने का शिष्टाचार निभाना भी भूल गया। वहाँ से निकलते ही सीधा अपने बैंक में गया। वहाँ मित्रों को सारी बताई तो वे गम्भीर हो गए। बोले - ‘सर! उन पर गुस्सा मत कीजिए। वे दया के पात्र हैं। हम उनकी कठिनाई समझ सकते हैं। एक तो स्टॉफ कम और दूसरे, लगभग जीरो इन्फ्रास्ट्रक्चर। वे भी क्या करें? उन्हें नेफ्ट करने की टेक्नोलॉजी ही उपलब्ध नहीं कराई गई है।’ जाहिर था, मुझे न केवल खाता खुलवाना था बल्कि चेक बुक भी जारी करवानी थी। (ताकि वहाँ की रकम अपने बैंक के खाते में जमा करा सकूँ।)

एक एजेण्ट मित्र से खाता खुलवाने की खानापूर्ति करवाई। कोई एक महीने में पास बुक मिली। पास बुक मिलते ही मैंने एजेण्ट मित्र से चेक बुक दिलाने में मदद माँगी। तीन दिन बाद उन्होंने कहा इसके लिए कि मुझे एक आवेदन देना पड़ेगा। फौरन आवेदन दिया। लेकिन चेक बुक फौरन ही नहीं मिली। कोई डेढ़ महीने बाद मिली। चेक बुक देख कर मैं हैरान रह गया। चेक बुक के आवरण पन्ने पर जरूर मेरी उत्तमार्द्धजी का नाम (संयुक्त खाते में पहला नाम उन्हीं का है) और खाता नम्बर लिखा था लेकिन अन्दर सारे के सारे चेक एकदम खाली थे - चेकों पर न तो नाम छपा था न ही खाता नम्बर। अब प्रत्येक चेक पर अपना खाता नम्बर और हस्ताक्षरों के नीचे अपना नाम मुझे ही लिखना है। बैंकिंग प्रक्रिया का यह बहुत ही महत्वपूर्ण काम डाक घर ने मेरे ही जिम्मे कर दिया। 

यहाँ मैं चेक बुक के आवरण पन्ने की और एक चेक की फोटू लगा रहा हूँ। आवरण पन्ने पर चेक बुक का नम्बर छपा है और पहले चेक पर भी वही नम्बर छपा है जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि उसी चेक बुक का चेक है।

चेक बुक का आवरण पृष्ठ। चेक बुक नम्बर 751281 दृष्टव्य है।



चेक बुक का पहला खाली चेक जिस पर चेक नम्बर 751281 आसानी से देखा जा सकता है।

बहुत हैरत हो रही है और उतना ही गुस्सा भी आ रहा है। लेकिन भोंडा मजाक यह कि मेरे इस गुस्से के पात्र उच्चाधिकारी मेरे सामने नहीं हैं और जो कर्मचारी सामने हैं वे इस अव्यवस्था के लिए कहीं जिम्मेदार नहीं हैं। याने कुढ़ना, खीझना, झुंझलाना मुझे ही है - खुद पर ही।

डिजिटल इण्डिया का सपना शायद इसी तरह पूरा होगा - राकेट में यात्रा करनी है लेकिन अपनी बैलगाड़ी में बैठकर।
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3 comments:

  1. Yah sab to 2024 ka target hai, aap 2018 me hi sarkar se 100% digital bharat ki chaah rakh rahe hai.
    Behtr likha aapne dada.

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (23-04-2018) को ) "भूखी गइया कचरा चरती" (चर्चा अंक-2949) पर होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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  3. पोस्ट ऑफिस की सेवाएं शुरू से ही इतनी घटिया और उबाउं है,कि मैंने बरसों पहले इससे दूरी बना ली । डाक विभाग धीमी गति का समाचार होकर उन्नीसवीं सदी में जी रहा है । इसे तो बन्द ही कर देना चाहिये । वित्तीय काम स्टेट बैंक को हस्तांतरित कर देना चाहिए ।

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