रे! नागरिक! अपनी औकात समझ

शुक्रवार। 11 मई 2018। सुबह के साढ़े नौ बजे हैं। मैं इन्दौर में हूँ। अपराह्न तीन बजे वाली बस से रतलाम लौटूँगा। बोरिया-बिस्तर बाँधना है। लेकिन उससे पहले यह सब लिखने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूँ। लिख तो रहा हूँ लेकिन मर्मान्तक पीड़ा से। आँसू बह रहे हैं, अक्षर धुँधला रहे हैं। लिखा नहीं जा रहा। लेकिन लिख रहा हूँ। मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा कि कि मुझे क्या लिखना है और यह लिखना कहाँ, कैसे खत्म करूँगा। 

मालवा अंचल के अनगिनत गरीबों का सहारा बना हुआ, सात मंजिला महाराजा यशवन्त अस्पताल अपनी पहचान ‘सर्वाधिक अव्यवस्थित अस्पताल’ के रूप में बना चुका है। मन्त्री, अफसर इन्दौर आते हैं, इस अस्पताल का निरीक्षण करते हैं। हर बार अनगिनत कमियाँ पाते हैं। हर बार डॉक्टरों, कर्मचारियों को डाँटते-फटकारते हैं। चले जाते हैं। अखबारों के पहले पन्नों पर यह सब छपता है। लेकिन शायद ही कभी कुछ होता-जाता हो। 

गए दस-बारह दिनों से यह अस्पताल लगातार अखबारों के नगर पन्नों की पहली खबर बना हुआ है।

इन्दौर से तीस-बत्तीस किलो मीटर दूर के बेटमा का 42 वर्षीय अब्दुल सलाम यहाँ भर्ती है। उसकी, पेट की बड़ी आँत का ऑपरेशन हुआ है। टाँकों पर डेªसिंग के कारण पसीना आने से बहुत तकलीफ होती है। वार्ड वातानुकूलित नहीं है। अब्दुल के परिजन मजबूरी में घर से कूलर लाए। कूलर से अतिरिक्त बिजली खर्च होती है। सो, डॉक्टर ने आसानी से अनुमति नहीं दी। परिजनों को कई बार गुहार लगानी पड़ी। 

अस्पताल की पहली मंजिल पर महिला वार्ड है। बीस बिस्तर हैं। लेकिन पंखे कुल 12 ही लगे हैं। इनमें से भी एक निकल गया है। उसे सुधरवाने के लिए किसी के पास समय नहीं है। समय तो तब हो जब इस ओर किसी का ध्यान जाए और इसे सुधरवाना जरूरी समझा जाए।

रोगियों के परिजन बाहर से न तो भोजन ला सकते हैं न चादर और न ही कोई और सामान। रोगियों के पास बैठनेवालों (अटेण्डरों) के बैठने की व्यवस्था नहीं है। उन्हें या तो मरीज के बिस्तर पर बैठना पड़ता है या धरती पर। अस्पताल की अधिकांश मंजिलों के खाद्य भण्डारों (पेण्ट्रियों) में पानी की व्यवस्था नहीं है। रोगियों के परिजन अस्पताल के आसपास बनी प्याउओं से पानी लाते हैं। रोगी की पहियेदार कुर्सी (व्हील चेयर) रोगी के परिजनों को ही धकेलनी पड़ती है।

अस्पताल के इण्डोस्कोपिक ऑपरेशन थिएटर नम्बर एक में प्रतिदिन दो-तीन ऑपरेशन होते थे। वह बन्द कर दिया गया है। आईसीयू और ऑपरेशन थिएटर में एयर कण्डीशनर अनिवार्य होते हैं क्यों कि ठण्डक में बैक्टिरिया नहीं पनपते। इस ऑपरेशन थिएटर का एयर कण्डीशनर खराब हो गया है। इसलिए इसे बन्द कर देना पड़ा। 

लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इस अस्पताल में सब कुछ ऐसा ही, इतना ही खराब हो। एक मरीज के लिए इस अस्पताल की पाँचवीं मंजिल पर बने कार्डियक इको चेस्ट सेण्टर को विशेष वार्ड में बदल दिया गया है। मरीज के परिजनों की सुविधा के लिए नर्सों के लिए बने कमरा नम्बर 513 को प्रायवेट रूम में बदल दिया गया है और डायलेसिस इकाई का एयर कण्डीशनर निकाल कर यहाँ लगा दिया गया है। अस्पताल का पूरा स्टॉफ, अस्पताल के तमाम रोगियों को भूलकर इस रोगी की तीमारदारी में और इसके परिजनों की खातिरदारी में लगा अनुभव हो रहा है। 

बात कुछ खास नहीं है। 91 वर्षीया एक वृद्धा को 21 अप्रेल को छाती में दर्द हुआ। मालूम हुआ कि उसे निमोनिया की भी शिकायत है। सर्वोच्च वरीयता देकर उस वृद्धा को तत्काल भर्ती किया गया। यह सब उसी वृद्धा के लिए हो रहा है।  यह  सब उसी वृद्धा के लिए हो रहा है। यह संयोग ही है कि यह वृद्धा, प्रदेश के चिकित्सा शिक्षा विभाग के अपर मुख्य सचिव की माँ है। 



इन्दौर अत्यधिक सजग शहरों में गिना जाता है। सामाजिक बदलावों के लिए यह शहर समूचे मालवा अंचल को दिशा देता है। लोक सभा स्पीकर श्रीमती सुमित्रा महाजन यहीं से सांसद हैं। भाजपा के राष्ट्रीय महामन्त्री और भारी-भरकम राजनेता कैलाश विजयवगीर्य यहीं के बाशिन्दे हैं। यहाँ के पाँचों विधायक भाजपा के हैं और पाँचों ही मन्त्री बनने की पात्रता रखते हैं। मुख्य मन्त्री इन्दौर को अपना दूसरा घर कहते हैं। लेकिन सात मंजिला अस्पताल में हो रही इस असामान्य अनहोनी से किसी का कोई लेना-देना नजर नहीं आ रहा। 

‘लोक कल्याण’ किसी भी राज्य, किसी भी प्रशासन की पहली जिम्मेदारी होती है। लेकिन यहाँ तो राज्य या कि प्रशासन ही ‘लोक’ को दुखी किए हुए है और दुखी किए ही जा रहा है। शासन-प्रशासन की जिम्मेदारी होती है यह देखना कि गरीब को उसका हक मिल रहा है या नहीं, किसी गरीब का हक कोई सरमायेदार तो नहीं छीन रहा। लेकिन यहाँ तो शासन-प्रशासन खुद ही गरीब का हक हड़प रहा है।
अपनी स्कूली किताबों में हम किस्से पढ़ा करते थे कि अपनी प्रजा के हाल जानने के लिए किस तरह राजा भेस बदल कर रात को गलियों, पगडण्डियों के चक्कर लगाते थे। अपने मनसबदारों के आचरण पर वे पैनी नजर रखते थे। लेकिन इन्दौर का यह किस्सा तो एकदम उलटा है! राजा और उसके मनसबदार खुद ही गरीब का हक हड़प रहे हैं, वह भी चौड़े-धाले!

इन्दौर में बारहों महीने किसी न किसी धार्मिक आयोजन का पाण्डाल तना ही रहता है। इस पर मैं कल ही विस्तार से लिख चुका हूँ। मैं अनुमान लगा रहा हूँ कि इन्दौर के धार्मिक आयोजनों के एक वर्ष के खर्च की रकम से इस अस्पताल की सारी तकनीकी और मशीनी जरूरतें पूरी की जा सकती हैं। पूरे अस्पताल के एयर कण्डीशनर, पंखे, पीने के पानी के कूलर बदले/खरीदे जा सकते हैं। लेकिन ऐसा कोई नहीं करेगा। अस्पताल की इन प्राणलेवा अव्यवस्थाओं की जानकारी नगर के तमाम धर्म-पुरुषों को है। लेकिन इस काम के लिए कोई आगे नहीं आएगा। क्योंकि वे यदि अस्पताल की काया पलट करेंगे तो वह सब सारी दुनिया को नहीं दिखेगा। केवल अस्पताल में ही सिमट कर रह जाएगा। उसकी खबर भी एक दिन ही छप कर रह जाएगी। लेकिन कथाएँ, भण्डारे, चुनरी यात्राएँ बारहों महीने, सातों दिन, चौबीसों घण्टे उन्हें लोगों के बीच सर्वव्यापी बनाए रखते हैं और उनकी राजनीतिक ताकत बढ़ाते हैं। ऐसे आयोजनों में वे भी खुशी-खुशी जाते हैं जिनका हक यहाँ मारा जा रहा है और वे तो सबसे पहली पंक्ति में बैठते ही हैं जो गरीबों का हक मारते हैं। कथावाचक भी पूरी अन्तर्कथा जानता है लेकिन वह चुप रहने की समझदारी बरतता है। वह भली प्रकार जानता है कि यदि वह अंगुली उठा देगा तो कल से उसका पाण्डाल सूना हो जाएगा और उसे ‘एकान्त आराधना’ करनी पड़ जाएगी।

यह सब अनुभव करते हुए, लिखते हुए मुझे मर्मान्तक पीड़ा हो रही है। हम कहाँ आ गए हैं? या कहिए कि कहाँ ले आए गए हैं? सामान्य नागरिक के रूप में हमारी क्या औकात रह गई है? हमें तो मनुष्य भी नहीं माना जा रहा! हम तो केवल वोट बनकर रह गए हैं! वोट भी ऐसा जिसका अपना कोई सोच ही नहीं रह गया है! हमने किन हाथों में खुद को सौंप दिया है? 

मेरी आँखें अभी भी बहे जा रही हैं। अक्षर धुँधला रहे हैं। लेकिन केवल अक्षर ही क्यों? मुझे तो अपना आनेवाला समूचा समय ही धुँधलाता नजर आ रहा है।
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3 comments:

  1. अब तो मीडिया भी आपके लिखे जनमानस की चेतना की पुकार को स्थान नही देंगे ।



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  2. मंदिरों में दान में आये धन के 90 प्रतिशत भाग का उपयोग जन उपयोगी शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च करने का विधान होना आज की प्रमुख आवश्यकता है । क्या मोदी जी और उनकी सरकार इस पर गौर करेगी ?

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  3. मन विचलित हो जाता है-सामान्य नागरिक जाये भी कहाँ ?

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