कॅरिअर और परिवार के सन्तुलन का विकट संघर्ष

जीवन अपनी गति से चलता रहता है लेकिन कुछ क्षण ठहरे हुए रह जाते हैं। एक नवम्बर की उस शाम के कुछ मिनिट अब तक ठहरे हुए हैं। आध्या का कुम्हलाया चेहरा आँखों के सामने बना हुआ है और रुचि की भीगी आवाज सुनाई दे रही है। रुचि और अर्पित के बारे में मैं यहाँ लिख चुका हूँ।

वह, मेरे दाँतों के ईलाज का अन्तिम सोपान था। एक तो अपने मित्र के बेटा-बहू और दूसरा, चार महीनों के निरन्तर सम्पर्क में चार-चार, पाँच-पाँच घण्टों की बैठकें। इसके चलतेे मैं अर्पित और रुचि से ‘तू-तड़ाक’ से बातें करने लगा। दोनों की सस्ंकारशील शालीनता यह कि दोनों ने मेरे इस व्यवहार पर असहजता नहीं जताई। व्यक्ति और डॉक्टर के रूप में दोनों ने मुझे गहरे तक प्रभावित किया। इतनी कम उम्र में दोनों ने डॉक्टरी पेशे में और मरीज के साथ व्यवहार में जो परिपक्वता हासिल कर ली है वह मेरे लिए ‘आश्वस्तिदायक, सुखद, सन्तोषदायक आश्चर्य’ ही है। ये बच्चे निश्चय ही डॉक्टरी के व्यवसाय को प्रतिष्ठा दिलाएँगे। मैं बहुत अधीर और अत्यधिक पूछताछ करनेवाला मरीज हूँ। लेकिन दोनों ने जिस धीरज और विनम्रता से मुझ जैसे अटपटे मरीज की चिकित्सा की उससे मुझे एकाधिक बार खुद पर ही झेंप आई। दोनों के हाथ इतने सध गए हैं कि आँखें बन्द कर, बातें करते हुए ईलाज करते लगते हैं। 

जब मेरा ईलाज शुरु हुआ था तो मित्रों-परिजनों ने बहुत चिन्ता की थी। ईलाज के दौरान एक-एक करके सबने मुझसे कम से कम एक बार तो पूछा ही पूछा - ‘दर्द कितना हुआ? बेहोश तो नहीं हुए? हर बार साथ में कोई न कोई था या नहीं? (चार महीनों के ईलाज के दौरान हर बार मैं अकेला ही गया था।) रात को सो पाए या नहीं? भोजन बराबर कर पा रहे हैं?’ मेरा जवाब हर बार सवाल पूछनेवाले को निराश करता था। मुझे एक पल भी दर्द नहीं हुआ। दर्द के मारे एक रात भी कष्ट से नहीं गुजरी। भोजन नियमित रूप से, सामान्य रूप से करता रहा। दाँतों का ईलाज कराने का मेरा कोई पूर्वानुभव नहीं रहा। इसलिए, लोगों के सवाल सुन-सुन कर अनुमान लगाया कि मरीज को बहुत तकलीफ होती होगी। बार-बार ऐसे सवाल सुन-सुन कर मुझे हर बार इस बात की तसल्ली हुई कि मैं अच्छे, विशेषज्ञता प्राप्त कुशल डॉक्टरों के हाथों में हूँ।

रुचि की बेटी आध्या अभी लगभग डेड़ बरस की है। माँ की सबसे बड़ी, सबसे पहली चिन्ता अपनी सन्तान और बच्चे की सबसे बड़ी, सबसे पहली जरूरत होती है माँ। इसीके चलते डॉक्टरी पर ममता प्रभावी हो जाती है और रुचि की दिनचर्या तनिक गड़बड़ा जाती है। मुझे यह बात दूसरी बैठक में अच्छी तरह समझ में आ गई थी। रुचि के साथ आध्या भी क्लिनिक पर आती है। इसलिए उससे भी मेरी देखा-देखी की पहचान हो गई। 

एक नवम्बर से पहलेवाली सारी बैठकों में आध्या मुझे हर बार तरोताजा, हँसती-खेलती, खिलखिलाती मिलती थी। लेकिन उस शाम वह सुस्त, चुपचाप, मुरझाई-कुम्हलाई हुई थी। मेरे मन में शंकाएँ-कुशंकाएँ उग आईं। रहा नहीं गया। पूछा बैठा - ‘आध्या सुस्त क्यों है? तबीयत तो ठीक है?’ रुचि ने जवाब दिया - ‘एकदम फर्स्ट क्लास है अंकल। तबीयत बढ़िया है।’ सुनकर तसल्ली तो हुई किन्तु आध्या का चेहरा, उसका गुमसुमपन रुचि की बात की पुष्टि नहीं कर रहा था। लेकिन रुचि की बात पर अविश्वास करने का भी कोई कारण नहीं था। (वह तो खुद ही डॉक्टर है!) तनिक हिचकिचाते हुए मैंने पूछा - ‘सब कुछ फर्स्ट क्लास है और तबीयत भी ठीक है तो यह बीमार जैसी सुस्त क्यों है?’ रुचि ने जवाब तो दिया लेकिन मुझसे आँखें चुराते हुए - “वो क्या है अंकल, इसकी ‘स्लीप सायकिल’ बदलनी है। चाइल्ड स्पेशलिस्ट ने कहा है।” मैं चौंका। याने आध्या की दिनचर्या बदली जा रही है। ऐसे कामों को मैं प्रकृति के काम में अनुचित हस्तक्षेप मानता हूँ। फिर, बच्चों के मामले में तो मैं तनिक अधिक दुराग्रही हूँ। मेरा बस चले तो पाँच बरस की उम्र तक बच्चे के कान में ‘स्कूल’ शब्द पड़ने ही नहीं दूँ। ढाई बरस की उम्र होते-होते बच्चों को स्कूल भेजने को मैं बच्चों पर ‘क्रूर, अमानवीय अत्याचार’ मानता हूँ। यह बच्चों से उनका बचपन छीनने के सिवाय कुछ भी नहीं है। बच्चों को जब नींद आए तब उन्हें सोने दिया जाए। जब वे जागें तब उन्हें खेलने दिया जाए। मैं दो बच्चों का बाप हूँ। अपनी शिशु अवस्था में मेरे दोनों बच्चे दिन में सोते थे और रात में जागते थे। आधी रात के बाद तक (कभी-कभी भोर तक) उनके साथ जागना पड़ता था। उन्हें कन्धे पर लेकर, थपकते हुए कमरे में घूमना पड़ता था। इसका असर हम पति-पत्नी की, अगले दिन की दिनचर्या पर होता था। दिन में भरपूर काम रहता था। सोने की तनिक भी गुंजाइश नहीं। बिना कुछ सोचे मुझे बात समझ आ गई। आध्या भी दिन में सोती होगी और रात में जागती, खेलती होगी। डॉक्टर माँ-बाप थक कर चूर रहते होंगे। चाहकर भी उसे वक्त नहीं दे पाते होंगे। ऐसे में यही एक निदान हो सकता था। 

रुचि की आवाज में खनक नहीं थी। स्वर भी मद्धिम था। चार महीनों की बैठकों के दौरान आध्या के बहाने बच्चों के प्रति माँ-बाप के व्यवहार को लेकर मेरी मानसिकता से वह भली भाँति परिचित हो चुकी थी। उसे लगा होगा, मैं कोई खिन्नताभरी असहमत टिप्पणी करूँगा। लेकिन मैंने ऐसा कुछ नहीं किया। 

यह केवल अर्पित-रुचि की बात नहीं थी। आज की पीढ़ी के, प्रत्येक व्यवसायी दम्पति (प्रोफेशनल कपल) की कष्टदायी हकीकत है। कॅरिअर तथा परिवार की चिन्ता और देखभाल में सफलत सन्तुलन करना ‘डूब कर आग का दरिया पार करना’ जैसा दुसाध्य है। फिर, यह सब वे बच्चों की बेहतरी के लिए ही तो कर रहे हैं!


यह चित्र रुचि की क्लिनिक में ही लिया हुआ है। मेरी इच्छा थी कि रुचि, डॉक्टर का एप्रेन पहन कर ही चित्र में रहे। लेकिन रुचि ने दृढ़तापूर्वक मना कर दिया - ‘नहीं अंकल! आध्या को इनफेक्शन का खतरा मैं नहीं उठाऊँगी।’

ये सारी बातें, कुछ ऐसे युगलों के चित्र एक पल में मेरे मन में उभर आए। मैं कुछ नहीं बोला। बोलता कैसे? बोल ही नहीं पाया। मैं तो चुप हो ही गया था, रुचि भी चुपचाप अपना काम करती रही। काम खत्म करने के बाद बोली - ‘एक महीने बाद आपको फिर आना है अंकल। चेक-अप के लिए।’ उसकी आवाज अब तक सामान्य नहीं हो पाई थी।

मैं कल, चार दिसम्बर को अर्पित-रुचि के पास जा रहा हूँ।  अभी से असहज हो गया हूँ। आध्या मुझे कैसी मिलेगी? हँसती-खिलखिलाती, चहचहाती या सुस्त, मुरझाई-कुम्हलाई? उसकी दशा से ही मैं अर्पित और रुचि की दशा का अनुमान कर पाऊँगा।

ईश्वर अर्पित-रुचि को और तमाम अर्पितों-रुचियों को सदैव सुखी, समृद्ध रखे और यशस्वी बनाए। ये बच्चे ही हमारा कल हैं। ये सेहमतन्द रहें ताकि हमारा आनेवाला समूचा समय सेहतमन्द रहे। कॅरिअर और परिवार में समुचित सन्तुलन बनाए रखते हुए अपने लक्ष्य तक पहुँचना इनका विकट संघर्ष है। लेकिन इनकी उत्कट जिजीविषा इन्हें सफल बनाएगी ही। 

कल शुभेच्छा सहित जाऊँगा - आध्या चहकती मिले। आध्या तो मिले ही, उससे पहले रुचि मिले - चहकती हुई, निष्णात् चिकित्सक और श्रेष्ठ माँ: रुचि।
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6 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (04-12-2018) को "गिरोहबाज गिरोहबाजी" (चर्चा अंक-3175) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. नौकरी और पेशा दोनों में ही आजकल परिवार के लिए समय निकालना मुश्किल रहता है,ऐसे में संयुक्त परिवार की अहमियत मालूम होती है । बच्चों को 5 साल की उम्र के पहले स्कूल ( चाहे वह प्ले स्कूल ही क्यों न हो ) भेजने के पक्ष में मैं भी नहीं हूँ ।

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  3. Very nice post sir g.... God bless you always ji...

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