क्या हमारे गाँव चिड़चिड़े हो गए हैं?

 

बालकवि बैरागी

(दादा का यह लेख, इन्दौर से प्रकाशित हो रहे दैनिक नईदुनिया के, वर्ष 1993 के दीपावली विशेषांक में, पृष्ठ 16-17 पर छपा था। इसे क्या कहा जाए कि तीस बरस पहले लिखी बातें, आज की बातें लगती हैं। मध्य प्रदेश के जिला मुख्यालय नीमच से, श्रीमती शारदा संजय शर्मा के सम्पादन में प्रकाशित हो रहे मासिक ‘राष्ट्र समर्पण’ ने इसे अपने नवम्बर 2023 के अंक में छापा है। मुझे यह लेख उन्हीं के सौजन्य से मिला है। उन्हें धन्यवाद और आभार। दादा का लिखा हुआ, बहुत कुछ इधर-उधर बिखरा हुआ है। ऐसे लिखे हुए को सहेजने की कोशिश के अधीन ही यह लेख यहाँ दे रहा हूँ।)

महाकवि सुमित्रानन्दन पन्त ने लिखा है ‘भारतमाता ग्रामवासिनी’। यदि हम गहरे से देखें तो महाकवि की यह पंक्ति हमारे देश की आत्मा का सौ फीसदी सच्चा और सात्विक ही नहीं, तात्विक भी सही शब्दांकन है। 15 अगस्त 1947 के बाद हमारे पास आज करीब-करीब साढ़े पाँच लाख गाँव हैं। अखण्ड भारत में इनकी संख्या शायद सात लाख थी। कटने-बँटने के बाद हमारा भारत साढ़े पाँच लाख गाँवों में बसा हुआ है। स्थूल रूप से चाहे हम आजादी को 15 अगस्त 1947 से मान लें किन्तु भारत को निकट से पहचानने वाले राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय अध्येताओं का मत है कि सच्चे अर्थों में भारत 9 अगस्त 1942 को ही आजाद हो गया था। सरकार चाहे जिसकी और जैसी भी रही हो पर भारत ने स्वयं को उसी दिन से स्वतन्त्र मानकर जीना शुरु कर दिया था। मेरा मतलब सरकार के लेखे से ही है। सविनय अवज्ञा आन्दोलन ने यह स्थापित कर दिया था कि  विदेशी सरकार का अब कोई वजूद भारत में नहीं है।

आजादी आने के बाद शनैः-शनैः देश का स्वरूप बनना और बदलना शुरु हुआ। योजनाएँ बनने और आकार लेने लगीं। जनता में समृद्धि और सम्पन्नता की ललक जागी। यह ललक, आज ललक से बढ़कर लपट में बदल गई है। आप-हम वह सब देख रहे हैं जो हमारी कल्पना में भी नहीं था। आकांक्षाएँ और महत्वाकांक्षाएँ जिस तरह पल्लवित होकर फलने-फूलने लगी हैं उससे हम सभी औचक-भौंचक और प्रायः अवाक् तक होने लगे हैं। हमारा देहात तन और मन तथा धन से जैसा कल था वैसा आज नहीं है और बेशक, आने वाले कल को वह वैसा नहीं रहने वाला है जैसा कि आज है। 

इस सारी होड़-दौड़ में हम देख रहे हैं कि हमारे ग्राम देवता की मूल पूँजी में दो मुकामों पर कमी आती जा रही है। किसी जमाने में कहा जाता था कि हमारा देहात भोला है, मासूम है। विकास और समृद्धि की चपेट में यह मासूमियत, यह भोलापन निरन्तर कम होता जा रहा है। हमारी दूसरी निधि थी हमारे ग्राम की शालीनता। आप मानें या न मानें पर हमारे गाँवों की यह शालीनता भी इन दिनों खीज, आक्रोश, आवेश, गुस्से और चिड़चिड़ाहट में नष्ट होती जा रही है। लगता है कि या तो हमारे देहात का कोई वाजिब हक मारा गया है या फिर कोई अवांछित और मनचाहा उसे मिल गया है। लगता है कि उसने स्वतन्त्रता और लोकतन्त्र तथा विकास जैसे शब्दों को अपना आत्म-भाष्य दे दिया है। इन तीनों तत्वों ने उसके भोलेपन और उसकी शालीनता को आमूलचूल बदल दिया है। उसने खुलेआम कहना शुरु कर दिया है कि मासूमियत का मतलब मूर्खता होता है और शालीनता का अर्थ होता है मार खाते चले जाना। आजादी को उसने उद्दण्डता तक खींचना उचित समझ लिया है और शालीनता को अपने आसपास के बहते नदी-नाले या लहराते सरोवर में विसर्जित करने का अनुष्ठान शुरु कर दिया है। उसका तेवर, उसकी भाषा, उसकी अभिलाषा और उसकी आशा सभी कुछ बदलते जाने का का यह सक्रान्तिकाल है। उसकी बोली हमारे देखते-देखते बदल गई है। आज वह वैसा नहीं बोलता है जैसा कि पहले बोलता था। और यदि हम अपने मन से पूछें तो खुद-ब-खुद उत्तर आएगा कि हममें से आज कोई भी वैसा नहीं बोलता है जैसा कि पहले बाले जमाने में बोलता था। आकांक्षाएँ भाषा को बदल देती हैं और महत्वाकांक्षाएँ समूचे संस्कार का परिमार्जन कर देती हैं। भारत के देहात के साथ भी यही हुआ। 

चाहे आप देहात में जाकर चौपाल पर बातें करें या कि वहाँ का कोई आदमी आकर आपसे आपकी बैठक में बात करे, एक बात साफ है कि हमारे गाँव को लग रहा है कि हमारे शहरों ने उसके कई हकों को उससे छीन लिया है। जो गाँव में भी होना था, वह केवल शहर में होता चला जा रहा है। चाहे वह विकास की बात हो चाहे फिर विचार की। देहात का हम पर यह आरोप है कि शहरी विकास ने उसे लूट लिया है। गली-गली दिखाई पड़ने वाली समृद्धि के बावजूद देहात को लग रहा है कि वह विपन्न होता चला जा रहा है। उसकी धूल भरी गलियों में पलने-पुसने वाली पूरी की पूरी पीढ़ी और पौध को हमारे शहरों ने पीछे धकेल ही नहीं खदेड़ तक दिया है। वह इसे अपने अस्तित्व की लड़ाई का हिस्सा मानता है। परिणाम यह है कि आज हम अपने गाँव को बात-बात पर चिड़ा हुआ और खीजा हुआ देखते हैं। इसका असर उसके अपने अन्दरूनी जीवन पर भी पड़ा है। रात-दिन वह ऐसे विवादों और प्रकरणों के दलदल में धँसता-फँसता जा रहा है जिसका कि वह आदी नहीं था। हमारी कोर्ट-कचहरियों के आँगन-प्रांगण आज हमारे देहाती पक्षकारों से भरे पड़े हैं। पहले जहाँ वर्ण-समूहों और वर्ग-समूहों के झगड़े या विवाद होते थे आज वहाँ वर्ग, वर्ण के साथ-साथ धर्म के झगड़े और प्रपंच भी पैदा होते चले जा रहे हैं। कल तक हमारा जो देहात अपने पूरे भोलेपन के साथ  शत-प्रतिशत धार्मिक था आज वह कई अर्थों में साम्प्रदायिक तक हो चला है। कच्चे-पक्के लड़के-बच्चे आज वहाँ जिस तरह की आधी-अधूरी, कचरी-अधकचरी पढ़ाई प्राप्त कर रहे हैं, उससे उसकी मानस-सम्पदा छिनती चली जा रही है। पढ़ा-लिखा गाँव अपनी सामुदायिक चेतना और भावना को खोकर तरह-तरह की इकाइयों में बँटता दिखाई पड़ रहा है। आज से नहीं हमारे इतिहास ने हमें बताया है कि हजारों सालों से भारत का मूल चरित्र लोकतन्त्र का रहा है। पर आज लोकतन्त्र का अर्थ वहाँ क्या हो गया है, इसका एक ही उदाहरण बहुत है।

आप किसी भी गाँव में चले जाएँ, यदि सहज बात करेंगे तो उस गाँव के निवासी चाहेंगे कि भारत की लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव तो बिलकुल समय पर हो जाने चाहिए। पर ज्यों हीं आप पंचायत चुनावों की बात शुरु करेंगे कि वहाँ के दो-चार लोग इस बात की खुली वकालत करेंगे कि पंचायत के चुनावों को अभी रोक देना चाहिए और वहाँ जो जिस पद पर बैठा है उसे वहीं काम करने देना चाहिए। आप चकित रह जाएँगे जब आप सुनेंगे कि हमारी कई ग्राम पंचायतों की सामान्य बैठके चार-चार, पाँच-पाँच सालों से हुई ही नहीं हैं। तब भी वहाँ पंचायत का कामकाज चल रहा है। वह सब हो रहा है जो कि नहीं होना चाहिए। गाँव की जनता त्रस्त है पर कोई बोलने का साहस नहीं कर रहा है। पंचायत के मन्त्रीजी के कागजों में बैठकों के विवरण हैं किन्तु जब ग्राम पंचायत उन मन्त्रीजी से पूछताछ करती है तो वे सरपंच महोदय की तरफ कातर दृष्टि से देखते मिलते हैं। कई उदाहरण आपको इस तरह के मिल जाएँगे जहाँ कि लोकतन्त्र की प्रतिपक्षी भूमिका के आलोचक भाव को वे लोक विरोध तक ले गए और अब? अब तो वह विरोध से भी आगे दुश्मनी तक में बदलकर वहाँ के जन-जीवन को सनातन तनाव में लिप्त रखने लगी है। भारत के प्रधान मन्त्री तक के सामने चुनावों में आप हममें से किसी को भी चुनाव लड़ने का संवैधानिक अधिकार है और लोग उनके सामने लड़ते भी हैं। पर गाँव में दुश्मनी इस बात की है कि ‘आप देखिए साहब! इस दो कौड़ी के टटपूँजिए की हिम्मत इतनी बढ़ गई है कि इसने मेरे सामने फॉर्म भर दिया? यह चुनाव में मेरे सामने खड़ा हो गया? इसकी औकात देखी आपने?’ ये संवाद आपको गाँव-गाँव सुनने को मिल जाएँगे। अपने सामने किसी विपक्षी या प्रतिपक्षी को चुनाव में वे खड़ा होते भी देखना नहीं चाहते। चुनाव में अपने सामने किसी को खड़ा नहीं होने देना और यदि खड़ा हो गया हो तो उसको लाठी तक से निपटाना तथा येन-केन-प्रकारेण लोकतान्त्रिक कुर्सी पर बैठकर फिर कई-कई सालों तक पंचायत की बैठकें तक नहीं करना, यह सब किस भविष्य का संकेत है? 

सच मानिए हमारा देहात लोकतान्त्रिक होते हुए भी आज मन से आत्मतन्त्रवादी होता जा रहा है। अपने भले बुरे का औचित्य सिद्ध करना उसने खूब सीख लिया है। समय ने उसे कितना प्रशिक्षित कर दिया है? ग्रामवासिनी भारत माता का यह सर्वथा नया स्वरूप है। एक तो शहरों ने उसे अपने पेट में डाल लिया और दूसरे उसने खुद शहर बनने की प्रक्रिया में अपने आपको न जाने क्या बना डाला। ज्यों-ज्यों जमीनों का मूल्य बढ़ता जा रहा है त्यों-त्यों अपने पड़ौसी की और सार्वजनिक या सरकारी भूमि पर अतिक्रमण करके कब्जा करना उसने अपना हक मान लिया है। चारागाहों, श्मशानों और सार्वजनिक तालाबों तथा कब्रस्तानों की भूमियों पर आज किस-किस के कब्जे हैं यह सूची आप देखेंगे तो चकित रह जाएँगे। नतीजा यह है कि वहाँ की वैयक्तिक संवेदनशीलता प्रायः सामूहिक बनकर भभकती लगती है। आव-आदर का स्थान तनाव और बेबनाव ने ले लिया है। विकास आज वहाँ कार्यक्रम नहीं अपितु सौदेबाजी बन गया है। जन प्रतिनिधियों को गुलाल और फूलमाला के बाद भी प्रताड़ित और अपमानित करना तथा अपना दबेल बनाकर रखना उसने खूब समझ और सीख लिया है। सम्मान सहित अपमान करने की कला में हमारा देहात आज हमारे शहर से ज्यादा प्रशिक्षित है। विनम्रता को वह कायरता मानता है और विनय को टेपा। 

इस लेख को आप अपने मनोनुकूल विस्तार दे सकते हैं। 

मौसम अच्छा है। शुरु हो जाइए।

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