पत्र

 

बालकवि बैरागी

दादा की इस कहानी की जानकारी मुझे नहीं थी। यह कहानी, उज्जैन से, अनियतकालीन प्रकाशित होती रही कहानी पत्रिका ‘सांझी’ के  कहानी विशेषांक (जनवरी 1987) में छपी थी। (अब स्वर्गीय) श्री हरीश निगम इसके सम्पादक/प्रकाशक थे। यह कहानी और ‘सांझी’ के बारे में ये जानकारियाँ मुझे प्रिय विवेक मेहता (आदीपुर/कच्छ/गुजरात) ने अत्यन्त आत्मीयता और चिन्ता से मुझे उपलब्ध कराई है। मालवांचल के ख्यात, अत्यन्त आदरणीय, किसी सन्त की तरह चुपचाप साहित्य को समृद्ध करनेवाले साहित्यकार (स्व.) श्री मंगल मेहता का बेटा है विवेक। अपने पिता के लिखे को सहेजने, डिजिटीकरण कर संरक्षित करने के लिए कोई बेटा किस तरह खुद को समर्पित कर सकता है, इसका प्रेरक, अनुकरणीय और अनुपम उदाहरण है विवेक।  


‘आप के सहृदयतापूर्ण पत्र को सारे घर-भर ने सिर पर उठा रखा है। पत्र आया, तब मैं शादी में बड़ौदा गया हुआ था। लौटा तो गुड्डू गद्गद था कि आपने बड़ी मुहब्बत से याद किया है। बच्चे कह रहे थे कि अब तो आपकी शिकायत मिट गयी कि कोई आपको पूछता ही नहीं हैं, न कोई जानता है, न याद करता हैं। लो, यह पत्र आ गया है। अब आप इसका उत्तर दे दो। रीता भी पूछती रही है कि जवाब क्यों नहीं लिखते? मेरी इतनी लम्बी रामकथा से भी वह प्रसन्न नहीं है। उसकी टिप्पणी भी है कि यह तो फूल का जवाब पत्थर से हुआ। मैंने रीता से कहा कि अभी मेरे हाथ में पत्थर नहीं, न मै आने देना चाहता हूँ। और कागज के पत्थर अब बिल्कुल बेअसर है।

‘मतलब की बात सीधे-सीधे कहना मेरा स्वभाव नहीं रहा है। खैर, जब आपने पूछा है तो बताना ही चाहिए। वैसे देखें तो परेशानी है भी और नहीं भी है। बाबूलाल से भी ज्यादा मुसीबतजदा लोग जिन्दा हैं। उनकी कोई शिकायत भी नहीं है और अगर है भी तो उनके पास मनीष बाबू जैसी पहुँच वाला जरिया नहीं है।

‘आयु सैतालीस में चल रही है। नौकरी 23 साल से कुछ ज्यादा ही है। श्यामू अभी भी बेकार है और मैं बाबा बनने वाला हूँ। भुवनेश को पुलिस के रिक्रूटमेण्ट में भरती करवा दिया है। गुड्डू ग्यारहवीं में हैं। ज्योति 14 की हो गयी। अभी 8वीं में है। अप्पू 9वीं में चला गया है। जब जिम्मेदारियों के तेज नाखून गर्दन पर चुभ रहे हैं, तब मैं आपके खत का जवाब दे रहा हूँ। इन सारे हालात में मैं

‘मेडिकली डीकेटेगेराइज्ड कर दिया गया हूँ। एक आँख से कम दिखने के कारण सरकार मुझे स्टेशन मास्टरी में नहीं रखेगी। गये पाँच महीनों से मै अवकाश पर ही हूँ। दायी आँख का ग्लूकोमा का आपरेशन पाँच महीने पहले ही हो चुका है।

‘आपरेशन सफल रहा है। अब आप उपाय पूछते हैं तो मैं बताता हूँ। मेरी पे और ग्रेड सुरक्षित रहना चाहिए। यह हो सकता है, क्योंकि मुझे विकलांग लोगों के लिए बनी योजनाओं का लाभ दिया जा सकता है।

‘मैं पे और ग्रेड भी छोड़ सकता हूँ, यदि मुझे यही गुड्स क्लर्क बनाकर रख दिया जाये। मेरे लिए मकान बहुत बड़ी समस्या है। रेलवे का क्वार्टर नहीं मिला तो मैं नष्ट हो जाऊँगा। रीता ने तिनका-तिनका चुनकर जो घोंसला बनाया है, वह तबाह हो जायेगा। इस जमाने में तीन सौ रुपये महीने का मकान एफोर्ड नहीं कर सकता हूँ। गेंद अब तुम्हारे गोले में है।

‘तुमने पूछा तो मैंने लिख दिया। मैं हल्का हो गया। तुम बताओ कि अब तुम क्या करागे और मुझे क्या करना चाहिए?’

बाबूलाल के इस पत्र को मनीष बाबू ने चार-पाँच बार पढ़ा। वे जब-जब पत्र के इस अंश पर आते, एकाएक सिहर जाते। बाबूलाल का सारा परिवार उनकी आँखों में एक आकार लेता और फिर वे पाते कि सारा परिवार टूटकर बिखर रहा है। रीता भाभी की सूरत उनकी पुतलियों में तैरती और फिर वे पत्र में कुछ ढूँंढने की कोशिश में अनमने हो जाते।

बाबूलाल कभी भी मनीष बाबू का प्रशंसक नहीं रहा। मनीष बाबू का लिखा हुआ वह यहाँ-वहाँ पढ़ता और उस पर तीखी-तेज टिप्पणियाँ करता। जब भी मिलता तो गाली-गलौज करता। मनीष बाबू को यदा-कदा लगता था कि बाबूलाल में एक लेखक बनने के सारे गुण मौजूद हैं, पर बाबूलाल केवल एक पाठक बनकर रह गया। आलोचना का उसका तेवर इतना कड़वा और कसैला होता गया कि अन्ततः वह एक कुण्ठित पाठक से अधिक कुछ नहीं रह गया। उसकी यह कुण्ठा और चिढ़ उसकी आँखों के आसपास साफ झलकती थी। मनीष बाबू ने एक सहयोगी उपन्यास में अपने मित्रों के साथ एक अंश बाबूलाल से भी लिखवाया। बाबू ने लिखा भी बढ़िया था, लेकिन तब भी वह अपने आपको कुण्ठित ही पाता रहा। उसके लिखे अंश पर समीक्षकों ने बेहतर टिप्पणियाँ कीं। वह अंश पठनीय भी रहा, लेकिन बाबूलाल को न तो उपन्यास गले उतरा, न उसका लिखा अध्याय ही।

ज्योति 14 साल की हो गयी। मनीष बाबू फिर खो गये। अभी कल-परसों जैसी बात है। फिर उन्होंने याद किया। उनकी हँसी चली गयी। पूरे बारह बरस बीत गये। कल-परसों जैसा लगे बेशक, लेकिन काल पूरे बारह साल निगल गया है। तो क्या तब ज्योति दो ही बरस की थी? एक नन्हीं-सी गुड़िया, फ्रॉक में परियों जैसी थिरकती कितनी प्यारी लगती थी! फिर उन्होंने सोचा। तब फिर, गये सप्ताह रीता भाभी के साथ जो लड़की उनसे मिलने स्टेशन आयी थी, वह ज्योति ही रही होगी। और रीता भाभी? राम रे राम! सारे बाल कितने सफेद हो चले हैं! साथ-साथ देख लो तो लोग उन्हें बाबू की बड़ी बहन कहेंगे। संघर्ष सारा का सारा उनके बालों और गालों पर आ बैठा। आँखों के सिवाय रीता भाभी के पास कहीं नूर नहीं बचा था। भुवनेश को पुलिस में भरती करवा दिया। हे भगवान! माँ-बाप कितने भारी मन से बच्चों को पुलिस में भरती करवाते हैं! मनीष बाबू फिर से सिहर गये। परिवार कितना विवश होता जा रहा है। बाबू पर आती हुई जिम्मेदारियों ने मनीष बाबू को बिलकुल श्लथ कर दिया। वे अपनी कूर्सी पर लटक से गये।  

अपने एक अत्यन्त कड़वे आलोचक के परिवार के प्रति वे सजल हो आये। फोन उठाकर उन्होंने अपने पारिवारिक डॉक्टर से ग्लूकोमा के बारे में विशद् जानकारी ली। उधर से डॉवटर कुछ बोल रहा था। इधर मनीष बाबू जड़वत् होते जा रहे थे। क्या बाबू वाकई इतना निरीह हो गया है? क्या सरकार उसकी तेईस बरस की सेवाओं को यूँ कूड़े की टोकरो में फेंक देगी? एक आदमी ने अपनी भरी जवानी जिस विभाग के लिए काम करते-करते होम कर दी, आज उस विभाग के पास बाबू के लिए केवल पदावनति ही बची है? अपने आदमी पर मुसीबत हो, तब उसकी मदद की जानी चाहिए या उसे और अधिक अपाहिज बना दिया जाना चाहिए? हमारी सरकारों के ये कैसे नियम हैं? वे विचारों में खो गये। उन्होने अपने उद्वेलन को संयत करने की कोशिश की। फिर उनको लगा कि उनके सारे कमरे में ग्लूकोमा का अँधेरा फैल गया है। बाबूलाल अन्धा हो गया है। रीता भाभी उसे नहलाने के लिए बाथरूम की तरफ ले जा रही हैं।

वे जोर से चीखे, ‘नहीं! नहीं!! बाबूलाल अन्धा नहीं होगा। उसका आपरेशन सफल हुआ है।’ चीख सुनकर मनीष बाबू की पत्नी भागती हुई आयी। पसीने से नहा चुके थे मनीष बाबू। उन्होंने घबराये हुए बाबूलाल का खत अपनी पत्नी को थमा दिया। पत्र देखते ही वे समझ गयीं कि खत बाबूलाल का है। बिना पढ़े ही वे बोलीं, ‘बाबू भाई को ऊलजलूल लिखने-बोलने और कहने की आदत है। आपकी ताजा रचना पढ़कर वे कुछ लिख बैठे होंगे। इतना परेशान होने को क्या बात है? लेखकों, कवियों के सामने तो इस तरह के क्षण आते ही रहते हैं। माँ-बहन की गालियाँ तक तो आज के आलोचक देने लगे हैं। फिर बाबू भाई का मामला तो...’

मनीष बाबू ने उन्हें रोका, ‘नहीं। नहीं। बात ऐसी नहीं है। बाबूलाल और उसका परिवार बिलकुल तबाह होने की कगार तक पहुँच गया है। उसके बारे में भी दस-बारह दिन पहले ही मंगलजी ने सब कुछ बताया तो पत्र लिखकर सारा हालचाल पूछा। बाबू ने जो कुछ लिखा है, वह रोमांचकारी है।’ और मनीष बाबू एक क्षण को फिर बाबूलाल को स्टेशन मास्टरी करते देखने लगे - वह सिग्नल के लिए कण्ट्रोल से पूछ रहा है। रजिस्टर में गाड़ियों के नम्बर ओर टाइमिंग दर्ज कर रहा है। टेबलेट के लिए टेबलेट बाक्स पर लगी घण्टी को ठीक कर रहा है। और अनायास उसका हाथ अपनी दाहिनी आँख पर जा टिकता है। वह आँख मसलता है और फिर उसे एक अनचाही चौड़ाई देते देते हए, माथा लटकाकर टेलीफोन कान से लगाकर कहता है, ‘हलो....कण्ट्रोल! हलो... कण्ट्रोल...!’

सारा कमरा अवसाद से भर गया है। मनीष बाबू को लगा कि उनके हाथों को लकवा हो गया है । सख्त परेड करता हुआ भुवनेश उन्हें खयालों में दिखाई दिया। उसका यूनिफार्म गन्दा है। उसका परेड-हवालदार उसे माँ-बहन की गालियाँ दे रहा है। कॉशन कम, गालियाँ ज्यादा देते हुए हवालदार को जमकर डाँट पिलाने लिए मनीष बाबू मुँह खोलना ही चाहते हैं कि टेलीफोन की घण्टी घनघना उठती है। वे ललाट का पसीना पांेछकर चोंगा उठा लेते है, ‘हलो....यस...मनीष दिस साइड.. जी हाँ, मैं मनीष बोल रहा हूँ। आपका शुभ नाम?’ और उधर से पहले एक ठहाके की आवाज गूँजती है। फिर सीधा-सा जवाब आता है, ‘मैं बोल रहा हूँ। बाबूलाल।’ मनीष बाबू रोमांचित हो जाते हैं, कम्बख्त यह बाबूलाल कितना क्रूर है?

वे इसकी चिन्ता में रो रहे हैं, वो उधर हँस रहा है। सूखते हुए कण्ठ में थूक निगलते हुए मनीष बाबू ने पूछा, ‘क्या बात है बाबू भाई? यह ट्रंक करके पैसा क्यों बिगाड़ा? खत ही लिख देते। क्या स्टेशन से बोल रहे हैं?’

‘स्टेशन से ट्रंक काल को सुविधा कहाँ है? तुमसे बात करने के लिए सारा परिवार यहाँ रशीद मियाँ के घर आकर बैठा है। बच्चे कह रहे हैं कि अंकलजी से बात करेंगे। तीन मिनट का समय है। लो, एक-एक वाक्य सबसे सुन लो।’

मनीष बाबू की चेतना विलुप्त हो गयी। क्या सुनना था? किसका सुनना था? पहली आवाज रीता भाभी की थी, ‘सुनिए मनीष बाबू? मैंने इन्हें तैयार कर लिया है। आपके साथ ये दिल्ली जाने को तैयार हो गये हैं। आप वहाँ जाकर रेल मन्त्रालय में.....’ आगे के शब्द मनीष बाबू सुन सकें, इस मनःस्थिति में नहीं थे। उनके हाथ काँपने लगे। तभी दूसरे छोर से ज्योति बोली, ‘हलो अंकलजी! मैं आपकी ज्योति! आप पापा की बातों का बुरा मत मानिए। आप अपने साथ इनको दिल्ली ले जाइए। आपके सिवा हमारा कौन है? माँ भी यही कह रही थी। आपको कुछ-न-कुछ करना ही है। पापा तो कोरे आलोचक हैं। आलोचक का होता भी कौन है? प्लीज अंकलजी.....।’ मनीष बाबू के हाथ से चांेगा कभी का छूट चुका था। वे बिलकुल बिखर गये थे। रोते-रोते उनकी हिचकियाँ बँध गयीं। कमरे का दरवाजा खुला था और रास्ते आते-जाते लोग उनको हमेशा की तरह देख रहे थे। पर वे अपना यश, अपनी कीर्ति और अपनी प्रतिष्ठा सब भूलकर अनवरत रोये जा रहे थे।

फोन की घण्टी फिर बजी, मनीष बाबू की श्रीमती ने फोन उठाया। उधर से बाबू की आवाज थी, “भाभी! पहली बात पूरी नहीं हो पायी। जरा मनीष बाबू से बात करवा दीजिए। उनकी एक ताजा कविता मैंने अभी-अभी ‘पंकज’ में पढ़ी है!” मनीष बाबू को चोंगा थमाकर उनकी श्रीमतीजी मनोभावों का आकलन करने वाली शैली में खड़ी हो गयी। बाबू बोल रहा था, “मनीष बाबू! आज वाली कविता एकदम फूहड़ और थोथी है। आप जैसा कवि इतना घटिया लिखे, यह उम्मीद नहीं थी। पत्र-पत्रिकाओं वाले भी नाम को रोते हैं। आप अगर यह कविता नहीं लिखते तो हिन्दी साहित्य का ज्यादा भला होता। खैर, बहरहाल ज्योति बिटिया कुछ और कहना चाहती है। जरा उसकी बात सुन लो।’ मनीष बाबू बिलकुल गुमसुम, कान पर चोगा लगाये बैठे सुनते रहे, ‘हेलो! ज्योति बेटा! में मनीष अंकल बोल रहा हूँ। बोलो बेटे! क्या बात है?’ ‘अंकलजी! मम्मी, पापा को बुरी तरह डाँट रही है। देखिए, अभी भी पापा ने कितना कड़वा बोल बोल दिया हैं आपको! ये तो बस ऐसे ही हैं। आप अंकलजी, बोलिए न, पापा कौन-सी गाड़ी का पास बनवाएँ? माँ ने कहा है कि आपको किराये के लिए अपना कुछ खर्च नहीं करना पड़ेगा। अभी उसके हाथों में कंगन है......।’

मनीष बाबू के लिए अब सुनना और सहना मौत जैसा हो गया था। लोक-लाज का डर नहीं होता तो वे दहाड़ मार-भार कर रोते। वे उठे। नल के नीचे जाकर हाथ-पाँव धोये। मटके में से पानी का गिलास भरा। ठण्डा पानी पिया। आश्वस्त हुए। कुरसी सरकाकर लिखने की टेबल के छोरों से सटकर बैठे। टाइप रायटर आगे को सरकाया। उसमें कागज फँसाया। स्पेसिंग किया। एक नजर सामने वालो दीवार पर डाली। और उनकी ऊँगलियाँ टाइप मशीन की चाबियों पर चलने लगीं। पहला ही वाक्य जो उन्होंने टाइप किया, वह था - ‘आदरणीय रेल मन्त्रीजी....सादर अभिवादन....’ और कबूतरों की फड़फड़ाहट जैसी, चाबियों की आवाज सारे कमरे में भर गयी। उन्हें आभास भी नहीं था कि उनकी श्रीमतीजी उनकी कुर्सी से कभी की सटी खड़ी हैं। बोलीं -‘इस तरह के काम पत्रों से नहीं होते। खुद दिल्ली के लिए निकल जाइये। मैं बाबू भाई को फोन कर दूँगी कि आप रवाना हो चुके हैं।’

रोलर को उल्टा घुमाते हुए मनीष बाबू ने अधूरा पत्र बाहर निकाला। फाड़कर रद्दी को टोकरी में डाला। कुर्सी से उठे और....

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5 comments:

  1. आदरणीय सर, सादर प्रणाम। आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ। मानवता का पाठ पढ़ाती आपकी यह सुंदर और भावपूर्ण रचना बहुत ही अनमोल है। बचपन में मेरी नानी माँ मुझे बताया करती थी कि हमारे शस्त्र यह कहते है कि अन्न , जल एवं औषधि पर किसी का एकाधिकार नहीं होता, यदि शत्रु भी इनकी मांग करे तो नीना विचार किए देना चाहिए। अपने घोर एवं अकारण आलोचक के प्रति मनीष बाबू की सहृदयता और करुणा पढ़ कर मन भर आता है, साथ ही साथ बाबूलाल और मनीष बाबू के परस्पर विलोम स्वभाव से मनुष्य के दो पहलु देखने को मिलते हैं, एक हर प्रकार से सज्जनता का प्रतीक और दूसरा कठोर और अभिमानी । आपकी यह रचना दसवीं से बारहवीं के किसी पाठ्यपुस्तक में होनी चाहिए । हार्दिक आभार एवं पुनः प्रणाम ।

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