दादा की यह कविता इसलिए तनिक अनूठी है कि यह उनके किसी संग्रह में नहीं है किन्तु यू ट्यूब पर इसके ढेरों वीडियो उपलब्ध हैं। इतने वीडियो, उनकी और किसी कविता के उपलब्ध नहीं हैं।
जब धरा पर धाँधली
करने लगे पागल अँधेरा।
और मावस धौंस देकर
छीन ले तुमसे सवेरा।
तब तुम्हारा हार कर,
यूँ बैठ जाना
बुजदिली है, पाप है
आज की इन पीढ़ियों का
बस यही सन्ताप है।
करने लगे पागल अँधेरा।
और मावस धौंस देकर
छीन ले तुमसे सवेरा।
तब तुम्हारा हार कर,
यूँ बैठ जाना
बुजदिली है, पाप है
आज की इन पीढ़ियों का
बस यही सन्ताप है।
अब भी समय है
आग को अपनी जलाओ।
बाट मत देखो सुबह की
प्राण का दीपक जलाओ।
आग को अपनी जलाओ।
बाट मत देखो सुबह की
प्राण का दीपक जलाओ।
मत करो परवाह
कोई क्या कहेगा
इस तरह तो वक्त का दुश्मन
सदा निर्भय रहेगा।
कोई क्या कहेगा
इस तरह तो वक्त का दुश्मन
सदा निर्भय रहेगा।
सब्र का यह बाँध तुमने
पूछ कर किससे बनाया?
वह कौन है जिसने तुम्हें
इतना सहन करना सिखाया?
पूछ कर किससे बनाया?
वह कौन है जिसने तुम्हें
इतना सहन करना सिखाया?
तोड़ दो यह बाँध
बहने दो नदी को।
दाँव पर खुद को लगा कर
धन्य कर दो इस सदी को।
बहने दो नदी को।
दाँव पर खुद को लगा कर
धन्य कर दो इस सदी को।
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सकारात्मक भावों से भरी ,प्रेरक रचना।
ReplyDeleteसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २९ सितंबर २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
सुंदर रचना
ReplyDeleteआभार
सादर
सुन्दर
ReplyDeleteवाह वाह बहुत खूब
ReplyDeleteक्या बात है! दादा की रचनाये संजो कर रखने के लिए शुक्रिया और आभार आदरणीय सर! बाल कवि बैरागी की लेखनी में अनूठा प्रवाह है! निश्चित ही उनकी ये रचना थके प्राणों में नव ऊर्जा भरने में सक्षम है! 🙏🙏
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