(श्री राजशेखर व्यास के संस्मरण संग्रह ‘याद आते हैं’ में यह संस्मरण, ‘यह संस्मरण नहीं, मरण है’ शीर्षक से संग्रहीत है। संस्मरण के साथ दिया गया, श्री राजे शेखर व्यास को सम्बोधित, दादा श्री बालकवि बैरागी का पत्र इस संस्मरण की समूची भूमिका है।)
राजनीति और राजनीतिक दलों से ऊपर उठकर वे एक संवेदनशील कवि हैं। देश की दशा से चिन्तित थे। अटलजी की अस्वस्थता के समाचार से विचलित, उनके घुटनों के दर्द से बेचैन! अपने रोग, अपनी परेशानियाँ, विसंगतियाँ तो होती ही हैं। बात करते-करते यादों में खो गए। कहने लगे, “हमने भी एक ‘सर्वदलीय सरकार’ बनाई थी।” मैं चौंका - ‘सर्वदलीय सरकार’ और आपने? बोले, “सिर्फ मैंने ही नहीं, ‘श्री माँ’ ने भी बनाई थी, आज से तीस बरस पहले। तब मैं मध्य प्रदेश का पर्यटन मन्त्री था और दक्षिण भारत में डॉ. कर्णसिंह ने देश के सभी प्रदेशों के पर्यटन मन्त्रियों की एक सभा बुलाई थी।
सभा खत्म हुई तो सभी का मन हुआ अरविन्द आश्रम चलें, ‘श्री माँ’ के दर्शन करें।
बात तब की है जब पाण्डिचेरी आश्रम की अधिष्ठात्री ‘श्री माँ’ ने महासमाधि नहीं ली थी। यद्यपि वे जीर्ण चल रही थीं पर वे दर्शन देती थीं और मिलनेवालों के लिए समय निकाला करती थीं।
एक बार विभिन्न राजनीतिक दलों के कुछ नेता ‘श्री माँ’ के पास पधारे। दर्शन करने की लालसा और आशीर्वाद की प्यास उनको वहाँ तक ले गई थी। अपनी बीमारी के बावजूद ‘श्री माँ’ ने उनको समय दिया।
चर्चा के दौरान नेताओं ने ‘श्री माँ’ के सामने देश की तत्कालीन स्थिति का विवेचन करते हुए ‘श्री माँ’ से सवाल किया; “माँ! यह कितने दिन तक चलेगा? किस तरह यह नाव पार लगेगी? निराशा और अनैतिकता तथा भ्रष्टाचार एवं पाखण्ड का यह साम्राज्य ‘श्री अरविन्द भूमि’ पर कब तक ताण्डव करता रहेगा? शासन आज अपने सारे अर्थ खो चुका है, सत्ता निरर्थक होे गई है, पीढ़ी भटक गई है। नेता झुक गए हैं, व्यापारी लालची हो गए हैं, गरीब अनाथ और कलाकार करुण हो गए हैं। इस ढलान पर लुढ़कता हुआ देश कब वापस अपने भारतीय चरित्र को प्राप्त कर सकेगा? क्या आज का सत्तालोलुप नेतृत्व इस सबको इसी तरह निरीह होकर देखता रहेगा या कभी राजदण्ड का उपयोग भी करेगा?”
प्रायः सभी जिज्ञासुओं की यही मनोभूमि थी। शब्द और स्वर में भिन्नता थी पर उनकी चिन्ता का दायरा यही सब समेटे हुए था।
‘श्री माँ’ उनको गम्भीर होकर सुनती रहीं....सुनती....रहीं.....सुनती रहीं। करीब-करीब सब बोल चुके, तब ‘श्री माँ’ के होंठ एक हलकी सी दिव्य मुसकराहट के साथ हिले, उनमें कम्पन हुआ, उनकी आँखों में एक तेजस्विता चमकी और वे मुखर हुईं -
‘भारत मेरी मातृभूमि नहीं। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि मेरा यहाँ कुछ नहीं है। भारत से अलग करके मैंने अपने आपको कभी नहीं देखा। पर तुम सब लोग राजनीति में काम करते हो, सरकारें बनाते हो, बिगाड़ते हो, कुर्सियों और पदों को शोभित करते हो। मैं यही पूछती हूँ कि जिस बिन्दु पर तुम्हें चिन्तन करना है, उस पर तुम चिन्ता लेकर आश्रम तक कैसे आ गए? खैर। सुनो! किसी भी देश को नेता या व्यक्ति नहीं चलाता। उसे चलानेवाले तत्त्व का नाम है ‘चरित्र’। एक क्षण के लिए तुम कल्पना करो कि दिल्ली का शासन तुम्हारे हाथ में आ जाए, वर्तमान व्यवस्था बदल जाए और तुमको अपने मन की सरकार बनाने का अवसर मिल जाए, तब तुम क्या करोगे?’
“हम ‘सर्वदलीय सरकार’ बनाएँगे।” एक ने उत्तर दिया। ‘श्री माँ’ ने फिर एक दिव्य मुसकान के साथ कहना शुरु किया, “बहुत अच्छी बात है कि मिल-जुलकर देश को चलाने की भावना तुममें है। चलो, ‘सर्वदलीय सरकार’ बनाने के लिए केन्द्र का ‘छाया मन्त्रि मण्डल’ बनाने का पूर्वाभ्यास करो। कम-से-कम एक दर्जन ऐसे नामों की सूची बनाओ जिन नामों पर सारे देश की सहमति हो जाए, जिन पर राष्ट्रीय चरित्र के मामले में उँगली नहीं उठाई जा सके। इतने बड़े देश का काम चलाने के लिए कोई बारह व्यक्ति तो लगेंगे ही न?”
एक उतावले सज्जन ने तत्काल कलम ली और वे ‘छाया मन्त्रि मण्डल’ के लिए ‘समग्ररूपेण सहमत सूची’ बनाने को उद्यत हो गए। वे बोले, ‘जी हाँ, श्री माँ, मैं नाम दे देता हूँ।’
’श्री माँ’ तटस्थ होकर उनकी ओर इस तरह देखने लगीं मानो कोई माँ अपने बच्चों का खेल देख रही हो। सूची बनने लगी। शिष्टमण्डल का हर सदस्य अपनी राय देने लगा। चिन्तातुर लोग चिन्तन पर आ गए। उनको लगता था कि आज भारत के उद्धारकों की अन्तिम सूची बनकर तैयार हो जाएगी।
पहला नाम आया श्री जयप्रकाश नारायण का। उल्लसित भाव से सबने उस नाम को सर्वाेपरि लिख लिया। दूसरा नाम एक-दो क्षणो में विनोबाजी का उछला। किसी ने प्रतिवाद नहीं किया। तीसरे नाम पर सिर खुजाया जाने लगा। धीरे से कोई बोला - ‘अटलजी का नाम लिख लो।’ हलकी सी कसमसाहट के साथ वह नाम भी लिख लिया गया। चौथा नाम आया कामराजजी का। किसी ने कहा - ‘प्रतिक्रियावादी है।’ पर बात फिर भी सहमति पर आ गई। पाँचवा नाम लॉटरी की तरह निकला मोरारजी भाई का। तब तक बात व्यंग्य पर आ चुकी थी। फिर भी कहा गया - ‘जिद्दी होने के बावजूद उनकी राष्ट्रीयता और नैतिकता पर उँगली नहीं उठ सकेगी। लिख लो।’ अब हो गए पाँच। सात फिर भी चाहिए।
‘श्री माँ’ ने बन्द पलकें एक पल को उघाड़ीं, बनती हुई सूची पर दृष्टिपात किया और फिर आँखें मूँद कर बैठ गईं। बड़ी कठिनाई से किसी ने छठवाँ नाम बोला एस. ए. डांगे का। तभी किसी ने आपत्ति की -‘कम्युनिस्ट हैं।’ तत्काल दूसरे ने जवाब दिया - ‘सबसे अच्छी बात यह है कि कम्युनिस्ट कभी चरित्र की बात नहीं नहीं करते। उनका वाद एक अन्तरराष्ट्रीय वाद है। इसलिए उनके सामने अन्तरराष्ट्रीय चरित्र का पक्ष प्रबल होता है। फिर भी डाँगे साहब का नाम लिख लो। भारत के सन्दर्भ में वे भारतीय पहले होंगे, कम्युनिस्ट बाद में।’
इन छह नामों के बाद बात जो फँसी तो कलम चली ही नहीं। सब बहस में उलझ गए। सातवाँ नाम मिल ही नहीं रहा था।
‘श्री माँ’ ने बहस को रोका और पूछा - ‘कितने हुए? हो गए एक दर्जन?’
नेतागण निराश होकर बोले, ‘मदर! बड़ी कठिनाई से आधा दर्जन नाम तय हुए हैं। आगे कुछ सूझता नहीं है।’
और तब ‘श्री माँ’ के चेहरे पर अवसाद की रेखाएँ उभर आईं। वे आर्द्र हो उठीं। कहने लगीं - ‘ऐसा नहीं है कि इस देश में चरित्रवान लोगों का अकाल पड़ गया है। करोड़ों लोग हैं, जो उदात्त राष्ट्रीय चरित्र के मालिक हैं। पर तुममें से कोई उन्हें जानता तक नहीं और जिन्हें तुम जानते हो, उनके पास चरित्र नहीं है। कैसी विडम्बना है! (तब 50 करोड़) आज 100 करोड़ से अधिक की आबादीवाले इस महान् देश के पास एक दर्जन लोग भी नहीं हैं, जो चारित्रिक भाव-भूमि पर इस देश को चला सकें! जिन्हें राजनीति में काम करनेवाले तुम जैसे लोग भी जानो। कभी तुमने चरित्रवानों को भीड़ में अपना नायक ढूँढने की कोशिश की है? जिनके पास चरित्र नहीं है, तुम लोग उनकी जय-जयकार करते फिर रहे हो, और जिनके पास चरित्र है, उनका तुम नाम तक नहीं जानते! क्या अधिकार है तुम्हें इस देश की दशा पर आँसू बहाने का?’
और करीब-करीब निढाल-सी होकर ‘श्री माँ’ ने कहा, ‘तुम्हारा चिन्तन शुरु हुआ या नहीं, यह मैं नहीं जानती, पर तुमने मेरे सामने चिन्ता का द्वार खोल दिया है। मेरे बच्चों! ईश्वर तुम्हारा कल्याण करे। हमारा देश संसार का सिरमौर देश बने, पर मेरी आँख का आँसू आज इसलिए चिन्तित है कि इस सूची में तुम लोग जयप्रकाश और विनोबा का नाम लिखते हुए तनिक भी नहीं झिझक रहे हो। तुम्हें पता है इनकी उम्र क्या है? ये लोग सत्तर को पार कर गए! देश को चलानेवाला चरित्र तुम अतीत में ढूँढ़ रहे हो! तुमने भविष्य में चरित्र ढूँढ़ने की कभी कोशिश की? वर्तमान से कभी पूछा तुमने कि तेरे चरित्र को क्या हो गया है?’
एक क्षण को ‘श्री माँ’ फिर विराम लेकर गहरी साँस छोड़ते हुए फूट पड़ीं - ‘मुझे दुःख है कि तुममें से किसी एक तक को अपना खुद का नाम भी इस काबिल नहीं लगा कि वह इस सूची में रख दिया जाता। ओफ्!’
उस शिष्टमण्डल में सभी राजनीतिक दलों के, तरह-तरह के राजनेता थे। सब जमीन देख रहे थे। किसी को यह तक पता नहीं चल सका कि ‘श्री माँ’ कब उठकर दूसरे कमरे में चली गईं।
कहते-कहते बालकवि ‘दादा’ रुक गए। कण्ठ अवरुद्ध हो गया, आँखें भीग आईं, “कौन जानेगा इतने बरस पहले ‘सर्वदलीय सरकार’ की बात ‘श्री माँ’ के सामने भी आई तो थी। वह सपना भी आज सच हो गया है। मगर कैसा सच? आज हम 50 से 100 करोड़ हो गए हैं। कहाँ है वह चरित्र?”
मैं भी डबडबाई आँखों से उस ‘चरित्र’ को खोजता रहा।
कभी आपसे मिले तो कहिएगा, देश भी उसे खोज रहा है!
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