महल से नीचे पधारो

 

बालकवि बैरागी

महल से नीचे पधारो, देश फिर वन्दन करेगा
फिर वही अर्चन करेगा, और अभिनन्दन करेगा
महल से नीचे पधारो.....

00000

बहुत दिन पहले कहा था, फाँस गहरी गड़ रही है
नाव डगमग हो रही है, औ’ भँवर में पड़ रही है
घाव बहने लग गये हैं, ओज सब ढलने लगा है
बेबसी बढ़ने लगी है, हर रुँआ जलने लगा है
किन्तु तुमने मुँह सिकोड़ा, औ’ मुझे दी गालियाँ
और सत्ता की सुरा की, खूब ढाली प्यालियाँ

किन्तु अब मेरा कहा, फरमान बनने जा रहा है
अब सिकोड़ो नाक-भौंह, वो काल सिर पर आ रहा है

इसलिए फिर कह रहा हूँ,
महल से नीचे पधारो.....

00000

आग में रख दो, कमीनी कुर्सियों को तोड़ दो
हद से ज्यादह हो गया है, मेनका को छोड़ दो
संगठन सब सड़ गया है, कोढ़ कितनी गल रही है
तुम समझते हो कि गाड़ी, पटरियों पर चल रही है
आँख तो खोलो जरा, , देखो हकीकत और है
महल जो तुमने बनाया, किस कदर कमजोर है

पुण्य जितना था पुराना, सब भुना कर खा गये हो
तुम कहाँ पर जा रहे थे, औ’ कहाँ पर आ गये हो

इसलिए फिर कह रहा हूँ
महल से नीचे पधारो.....

00000

ये महल, ये कुर्सियाँ, गर देश है तो सब रहेंगे
बात कुछ नीची हुई तो, सब बुरा तुमको कहेंगे
इस तरह इन आँधियों में, तुम अड़े कैसे रहोगे?
पाँव ही जब तोड़ लोगे, फिर खड़े कैसे रहोगे?
अफसोस! सत्ता के नशे में, किस कदर तुम खो गये हो
सौ नरक बस जायें, इतने पाप तुम खुद कर गये हो

मैं कसम से कह रहा हूँ, अब सहा जाता नहीं है
क्या कहूँ? कैसे कहूँ, कुछ भी कहा जाता नहीं है

इसलिए फिर कह रहा हूँ,
महल से नीचे पधारो.....

00000

किस कदर तुम हो गये हो, दूर इस आवाम से
कर रही हैं पीढ़ियाँ थू-थू तुम्हारे नाम से
उफ! शहीदों का चमन, सारा उजड़ता जा रहा है
तुम बनाने जा रहे हो, पर बिगड़ता जा रहा है
हज्म तक होता नहीं है, पेट इतने भर लिये
यादवों से हाल तुमने, आप अपने कर लिये

वरदान जनने थे तुम्हें, तुम श्राप जनते जा रहे हो
तुम पतन के दूसरे पर्याय बनते जा रहे हो

इसलिए फिर कह रहा हूँ,
महल से नीचे पधारो.....

00000

आज भी विश्वास मेरा, तुम बहुत हो काम के
तुम बदल सकते हो नक्शे, आज फिर आवाम के
पर जरा नीचे पधारो, और पश्चात्ताप कर लो
फिर नई ताकत जुटाओ, देश का विश्वास लो

आस्था का देश है यह, सौ गुना फिर पाओगे
यह मुहूरत टल गया तो, देखना पछताओगे

इसलिए फिर कह रहा हूँ,
महल से नीचे पधारो.....
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झुँझनू (राजस्थान)
19 अगस्त 1963 

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