दिल्ली अलोनी हो गई बाबू सा’ब!

बालकवि बैरागी

26 जुलाई को इस बार फिर दिल्ली पहुँच गया। ठीक एक महीने बाद। इस बार काम का बोझ ज्यादा रहा। कुछ सरकारी काम काज कुछ गैर सरकारी मित्र मिलन। पूरे चार दिन दिल्ली में बीते। इससे पहले संजयजी की शवयात्रा मे शामिल होने गया था। अत्यन्त उदास और हताश अवसर था। भोपाल में रहकर सोचता था कि शायद दिल्ली की उदासी कुछ टूटी होगी। पर दिल्ली आकर देखा तो मन और उदास हो गया। उदासी बिलकुल नहीं टूटी है। हर तरफ एक गहरा विषाद और अव्यक्त बेचैनी है।

ठीक है कि प्रधान मन्त्री ने सरकारी काम-काज करना शुरु कर दिया है, पर उनसे जो भी भेंट करके आता है वह विगलित हो जाता है। मैं तो इस बार उनके सामने जाने का साहस भी नही जुटा पाया। अब वे ‘शुद्ध माँ’ हो गई हैं। उनका मातृत्व इस उम्र में आकर अत्यधिक व्यापक और समष्टिगत हो गया है। बारीक पर्यवेक्षण करने वाले लोग ऐसा ही कहते है। पुत्र शोक ने उनकी कोमलता को एक प्रकट एव स्पष्ट आत्मीयता दी है। अपना दुःख दर्द लेकर ? मिलने जाने वाले लोग उनके सामने जाकर सब कुछ भूल जाते हैं। मालवा के किसान नर-नारियों का एक समूह गंगा यात्रा जाते समय इन्दिराजी से मिलने का कार्यक्रम बना बैठा। सदा की तरह वे सबसे भेंट करने लॉन में आईं। सैंकड़ों लोग अपनी पीड़ा पोंछने आए थे। मालवा के इस समूह ने ज्यों ही इन्दिराजी को देखा, करीब-करीब एक ही साथ सबके-सब फूट पड़े। रोते-बिलखते बाहर निकले। पढ़े-लिखे लोग भी आँखें पोंछते हुए ही बाहर आते हैं। जवाहरलाल नेहरू जैसे पिता, कमलाजी जैसी माँ, फीरोज गाँधी जैसे पति और संजय जैसे पुत्र के शोक में डूबी इन्दिराजी को नजर भर देखने का साहस जुटाना अब बहुत श्रम साध्य हो गया है। माँ और पति के सिवाय शेष दोनों मृत्युओं ने इन्दिराजी के सामने राजनीतिक समीकरण ध्वस्त कर दिए हैं। नए समीकरण बैठाना बिलकुल नई तपस्या जैसा श्रम है। वे यदा-कदा हँसती भी हैं पर हँसी की खनक के पीछे पीड़ा का अपार सागर हहराता लगता है।

स्टेशन से मध्य प्रदेश भवन जा रहा हूँ। कारवाला मारे बारिश के बदहवास-सा है। भगवान जाने कौनसा रूट उसने लिया। घनघोर बारिश में भाँय-भाँय करती घनी, छायादार सड़क पर एकाएक वह कार रोकता है। एक क्षण बाद ही वापस गियर लगा देता है। मैंने पूछा क्या हुआ भैया! उसका उत्तर मुझे भीतर, गहरे तक झकझोर देता है। कहता है- ‘दिल्ली अलोनी हो गई सा’ब।’ मै अपने दाहिने वाला शीशा साफ करता हूँ। तूफानी बारिश के पार नजर गड़ाता हूँ। देखता हूँ तो उदासी और घनी हो जाती है। वही 12 विलिंगडन क्रीसेंट। संजयजी का बंगला। न जाने क्या क्या दिमाग में कौंध जाता है। जब-जब इस बंगले के सामने से निकला, तब-तब हजारांे की भीड़। नारों का शोर। जवानों की उमंग और एक ज्वाला का आभास। आप मानें या नहीं मानें पर यह सच है कि मैंने संजयजी को कभी जीते जी नहीं देखा। उनका शव दर्शन ही किया। मन्दसौर की 1977 की एक चुनावी सभा मे मैं उनकी प्रतीक्षा में कोई सवा चार घण्टे अनवरत बोलता रहा। 50 हजार लोगांे की भीड़ उनकी प्रतीक्षा में मुझे सुनती रही। मैं मंच से उतरा तब तक मुझे नहीं बताया कि वे नीमच से ही वापस लौट गए हैं। मन्दसौर आए ही नहीं। अवसर उसके बाद भी कई बार आए, पर उनकी व्यस्तता को देखते हुए मैं ही दूर-दूर रहा। उनको बताने लायक मेरे पास कोई समस्या थी ही नहीं। कारवाला मेरी तन्द्रा तोड़ता है ‘साब! क्या मर्द पट्ठा था! दिल्ली का नमक खत्म हो गया। संजय की एक प्यार भरी दहशत थी सब पर। सब लुट गया सा’ब! आज कल गले में कौर नहीं उतरता।’

प्रदेश की खाद्यान्न और वितरण समस्या को लेकर इस बार कई महत्वपूर्ण लोगों से मिला। बात सबने की, पर थोड़ी-थोड़ी देर में हर संजीदा आदमी दूर क्षितिज पर देखता-सा लगा। मैंने अदेखे संजय के बारे में जगह-जगह कहा था, ‘श्रीमती इन्दिरा गाँधी व्यक्ति नहीं, इस देश की भावना है और संजय गाँधी हमारी सम्भावना है। लोग-बाग सम्भावना और भावना दोनों पर प्रहार करने पर तुले हुए हैं। और अब हमें फिर नई सम्भावना का निर्माण करना होगा। हमारे पास केवल भावना बची है। सम्भावना को प्रभु ने हमसे चकमा देकर छीन लिया।’

संजय पर मेरी कलम कभी नहीं चली। मेरी कविताओं में वे आज से 15 वर्ष पूर्व एक जगह कहीं आए थे। कहीं मैंने लिखा था, ‘जिस दिन राजू-संजू को खुद केसरिया पहिनाएगी’ ऐसी ही पंक्ति थी। तब वे मात्र 10 वर्ष के थे। उन्हें संजू कहा या लिखा जा सकता था। शनैः-शनैः वे विकसित होते गए। उनके कदम दृढ़ और पंजे सशक्त हुए। उनके जबड़ों पर एक भिंचाव आता गया। उनकी आँखों में सपने जवान हुए। उनका प्रभा मण्डल विस्तीर्ण हुआ और हमारी सम्भावना हो गए। पर आज! ‘दिल्ली अलोनी हो गई, बाबू सा’ब।’

कई राज-नेता मिले। कुछ चिन्तित, कुछ अचिन्तित। दो एक संवेदनशील लोग तो उस शव-यात्रा के बाद से आज तक बीमार चल रहे हैं। एक से मैं मिला भी। विचित्र-सा रिक्तता का बोध हो रहा है। शून्य को तोड़ने की कोशिश में लोग क्षुब्ध होकर खुद टूट रहे हैं। राजीव भाई या श्रीमती मेनका गाँधी का बिलकुल नया सिलसिला सुगबुगाहट ले रहा है। दूकानों और दफ्तरों में संजयजी के बड़े-बड़े फोटो और कैलेण्डर इस उदासी को और भी गहरा कर देते हैं। अब गाँधी-दर्शन की तरह ‘संजय - राष्ट्र का सपूत’ जैसी फोटो प्रदर्शनी, छोटी-बड़ी रेलों में लगाकर सारे देश में घुमाई जाए, यह तैयारी शुरु हो गई है। पण्डित कमलापतिजी त्रिपाठी इसकी तैयारी हेतु निर्देश देते देखे गए।

दिल्ली से वापसी पर जब मध्य-प्रदेश भवन छोड़ता हूँ तो पहले दिन वाली कार के बदले दूसरी कार मिलती है। तीन मूर्ति के पास में नार्थ एवेन्यू का रास्ता लेते समय मैं विलिंगडन क्रीसेंट की तरफ एक उदास नजर दौड़ाता हूँ। बारिश नहीं है। बदराया मौसम जरूर है। सूनी सड़क पर 12 नम्बर कोठी के बाहर घने पेड़ों की छाँह में एक गुमटी पर संजयजी की कई तस्वीरें विभिन्न मुद्राओं में लगी हुई दूर से ही दिखाई पड़ती हैं। यह गुमटी तब भी थी। अब भी है और शायद कल भी रहेगी। उस दिन वाले ड्राइवर के शब्द शिराओं से झनझनाते हैं-‘दिल्ली अलोनी हो गई बाबू सा’ब!’

स्टेशन पर अखबारों के ताजे सायंकालीन संस्करण खरीदता हूँ। आदत के अनुसार पहले देखता हूँ। फिर बन्द कर देता हूँ। फिर पृष्ठ उलटता पलटता हूँ। एक साप्ताहिक का मुख ? पृष्ठ पूरी सजधज से कहता है, ‘छोटे भैया के बाद बड़े भैया आ रहे हैं।’ राजीव गाघी की एक गम्भीर तस्वीर भी छपी हुई है। 

कौन कह सकता है कि कल क्या होगा। दिल्ली में इस बार काम तो बहुत हुआ पर मन नहीं लगा। 

लगता भी कैसे? 

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‘नईदुनिया’, इन्दौर में 10-08-1980 को प्रकाशित यह लेख, देवासवाले श्री ओमजी वर्मा (मोबाइल नम्बर 93023 79199)ने उपलब्ध कराया।


2 comments:

  1. यह दादा के दिल की आवाज थी जैसा वह सोचते थे वैसा कागज पर उकेरते थे मैंने भी यह लेख पढ़ा था

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    1. टिप्‍पणी के लिए बहुत-बहुत धन्‍यवाद। बहुत देर से उत्‍तर देने के लिए कृपया मुझे क्षमा कर दें।

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