नेपथ्य का सच

 

बालकवि बैरागी

मेरी पगडण्डी पर बिछाने के लिए
उन्होंने बेरी से बबूलों तक,
कैर से करौंदियो तक से
उधार लिए काँटे
और बड़ी सावधानी से
मेरे रास्ते में बिछाए,
फिर मन ही मन मुस्काए
पर वे परिचित नहीं थे
आजन्म नंगे, मेरे पाँवों की सख्ती से।
मेरी एड़ियों और पगतलियों की
                                    बेलिहाज, फौलादी चोटों से।

जब धूल में मिल गए
उधार के काँटे
तब वे चिढ़े बेरी पर,
गुस्साए बबूलों पर,
खीजे कैर पर,
कोसने लगे करौंदियों को,
गरियाते रहे काँटों को।

अपनी प्रयोगशालाओं में
परीक्षण करने ले गए
मेरी पगडण्डी की धूल को।

पूछा मैंने उनकी परेशानी का सबब
तो लाल होकर बोले -
तुम्हारे लिए हमने छोड़ा राज-पथ
चले तुम्हारी राह पर
कर्जदार बने न जाने किस-किस के
और तुम इतने काँटों पर चलकर भी
न रोए, न सिसके।

कहीं-कहीं तुम्हारी पगडण्डी
अचानक काट देती है
हमारे राज-पथ को।
उन चौराहों पर कहीं तुम
रोक न दो हमारे राज-रथ को।

नेपथ्य का सच यह है कि
हमारा सारथी तुम्हें पहचानता है।
तुम्हारे पाँवों की सख्ती का लोहा मानता है।

हमें उतार कर, कहीं बैठा न ले तुम्हें
अपने राज-रथ में।
इसलिए, जहाँ से भी लाना पड़े
लाएँगे हजार तरह के काँटे
और बिछाएँगे तुम्हारे पथ में।

यह हमारी लाचारी है।
पता नहीं क्यों, हमारा राज-पथ
तुम्हारी पगडण्डी का आभारी है।
-----

यह कविता, रतलाम के सुपरिचित रंगकर्मी श्री कैलाश व्यास ने अत्यन्त कृपापूर्वक उपलब्ध कराई।

No comments:

Post a Comment

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.