बोलपट के बैरागी

डॉ. मुरलीधर जोशी चाँदनीवाला

बात शुरु करूँ, तो वर्ष 1972 के वे दिन आँखों के सामने झूल जाते हैं, जब आचार्य श्री श्रीनिवास रथ विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ.शिवमंगलसिंह ‘सुमन’ को प्रायः सुबह-सुबह भवभूति का ‘उत्तर रामचरित’ पढ़ाने जाते थे। दोनों महारथी गुरु-शिष्य की तरह आमने-सामने बैठते। आचार्य रथ जब श्लोकों का सस्वर पाठ कर उसकी सरस व्याख्या करते, तब दोनों तल्लीन हो जाते। कई बार दोनों की आँखें छलछला आतीं। कभी-कभार मैं भी आचार्य रथ के पीछे-पीछे चला जाता और एक तरफ बैठकर यह सब देखता रहता। एक बार आचार्य रथ सस्वर गा रहे थे-‘त्वं जीवितं त्वमसि मे हृदयं द्वितीयं त्वं कौमुदी नयनयोरमृतं त्वमङ्गे। इत्यादिभिः प्रियशतैरनुरुध्य मुग्धां तामेव शान्तमथवा किमतः परेण।।’ और उनका गला भर आया। ‘सुमन’ जी और आचार्य रथ की भावपूर्ण मुद्रा देखने काबिल थी। अचानक ‘सुमन’ जी ने बालकवि बैरागी के गीत का मुखड़ा याद दिला दिया-‘तू चंदा मैं चाँदनी, तू तरुवर मैं शाख रे!’ दोनों मन्द-मन्द हँस पड़े। दोनों ही बात करते-करते भवभूति से चल कर बालकवि बैरागी पर आ गये। उन दिनों ‘रेशमा और शेरा’ के लिये बालकवि बैरागी का लिखा गीत चर्चा में था। सुमन जी और आचार्य रथ के बीच बालकवि बैरागी के किस्से चल पड़े। उनके लिखे गीत-कविताओं पर गम्भीर चर्चा होने लगी। जहाँ तक मुझे याद है, ‘तू चन्दा, मैं चाँदनी’ की अनुगूँज के साथ ही हम वहाँ से बिदा हुए थे।

तब मुझे ज्यादा कुछ समझ में नहीं आया। अचरज में था, कि दो महान् व्यक्तित्व साहित्य में गोते लगाते-लगाते फिल्मी गीत में कैसे चले गये? ऐसा जरूर लगा कि भवभूति और बालकवि बैरागी एक ही पटरी पर दौड़ रहे हैं। भवभूति करुणा के कवि हैं, लेकिन उनमें शृंगार के बीजों का अंकुरण विस्मित कर देता है। यह तो मैं तब भी जानता था कि बालकवि बैरागी हिन्दी साहित्य के हैं, लेकिन वे सिनेमा में अपना गीत ले जाने के बाद भी दो दिग्गजों के बीच साहित्य का विषय बने रह सकते हैं, यह जानकर अचरज में था।

बालकवि बैरागी उज्जैन में रहते हुए सुमनजी और दादा चिन्तामणि उपाध्याय के शिष्य थे। बालकवि बैरागी के जीवन की करुण गाथा इनसे कभी छिपी हुई नहीं रही। सुमनजी अपने इस प्रिय शिष्य के प्रति बेहद संवेदनशील थे। बालकवि बैरागी के गीतों में उन्हें हृदय की करुण पुकार सुनाई देती, तो प्रेम की वह प्यास भी, जो सुमनजी और बालकवि बैरागी में बराबर-बराबर है। जब समझ आई, तब जाना कि बालकवि बैरागी का संसार बहुत बड़ा है। वे साहित्य में हैं, राजनीति में हैं, फिल्मों में हैं और इन सबके साथ अपने लोगों के बीच में भी हैं।

बालकवि बैरागी बहुत ही छोटी आयु में अपने भीतर बैठे हुए कवि को पहचान गये थे। जीवन की उठा-पटक के बीच भी उन्होंने अपनी लय टूटने नहीं दी। कवि सम्मेलनों के मंच पर वे बार-बार बुलाये जाते रहे। वे ऐसे बिरले कवि थे, जिन्होंने कवि सम्मेलन के मंच को साधने के साथ-साथ राजनीति को भी साध लिया था। वे जिस दल में थे, उसके कर्मठ सिपाही आजीवन रहे। वर्तमान परिदृश्य में अटलबिहारी वाजपेयी और बालकवि बैरागी, ये दो ही हैं, जो जितने यशस्वी कवि थे, उतने ही स्वच्छ राजनेता। ये दोनों ही जनता के अत्यन्त प्रिय चेहरे थे।

बालकवि बैरागी सिनेमा की ओर उस तरह नहीं गये, जिस तरह नीरज और अन्य दूसरे साहित्यकार गये। सिनेमा के लिये उन्होंने बहुत सारे गीत लिखे, लेकिन वे कभी भी आगे होकर उनकी चर्चा नहीं करते थे। उनके छोटे भाई विष्णु बैरागी बताते रहते हैं कि सिने-गीतों की चर्चा वे घर-परिवार में भी नहीं करते थे। घर वालों को तभी पता चलता, जब फिल्म के साथ गीत मशहूर हो जाता।

यूँ देखा जाए, तो बालकवि बैरागी के गीत और कविताएँ सिनेमा के प्रचलित ढाँचे के अनुरूप नहीं होती थीं। बालकवि हिन्दी के सच्चे पक्षधर थे। वे ताल ठोक कर हिन्दी का परचम लहराने वाले हिन्द के सपूत थे। दूसरे सिने-गीतकारों की तरह उन्होंने कभी भी अपने गीतों में उर्दू के शब्द नहीं डाले। वे हिन्दी की ताकत से अच्छी तरह परिचित थे। खड़ी बोली से भी ज्यादा भरोसा उन्हें आंचलिक बोलियों पर था। वे बड़े-बड़े लोगों के बीच बड़े ठाठ से अपनी प्यारी मालवी में बतियाते थे। यह बात उन्होंने पद्मभूषण पण्डित सूर्यनारायणजी व्यास और सीतामऊ के राजकुमार रघुवीरसिंहजी से सीखी थी।

बालकवि बैरागी का रचनाकाल पचहत्तर बरस का है। चौदह वर्ष की आयु से लेकर अपने देहत्याग तक उनके गीतों की लय शहद की पतली धार की तरह अटूट है। उसे कहीं से भी छूकर देखो- मधुर, मदिर और जीवन से प्यार करती हुई। बालकवि बैरागी को शुरु से लेकर आखिरी तक अपने जीवन से, समाज से और इस संसार से कोई शिकायत नहीं। अपनी जड़ों को अन्तिम साँस तक सींचते रहने वाला कोई दूसरा गायक-कवि बैरागीजी को छोड़कर नहीं हुआ। दुनिया भर में अपने नाम का डंका बजा-बजाकर यह कवि हर बार लौट आता अपने उसी मनासा में, जिसने बचपन के अभाव तो दिये, लेकिन संसार में तैरना भी सिखाया। जो भी आया उनके पास, उनका होकर रह गया। शायद इसीलिए बालकवि बैरागी से जुड़े हुए हजारों लोग आज भी अपने-अपने दावे लेकर आते हैं और इस अनोखे इंसान पर अपना हक जमाते हैं। उनके संस्मरणों का पहाड़ इतना ऊँचा है, कि ठेठ ऊपर तक कोई नहीं जा सकता।

सत्तर का दशक बालकवि बैरागी के इतिहास का स्वर्णिम काल माना जा सकता है। भारत-चीन युद्ध के दौरान कवि सम्मेलनों का जो दौर था, उसमें बालकवि बैरागी की प्रतिभा निखर कर बाहर आई। लोकभाषा कवि सम्मेलनों में अपनी मालवी कविताओं से जान फूँकने वाले गिरिवरसिंह भँवर, सुल्तान मामा, भावसार बा जैसे कवियों के साथ बालकवि बैरागी की ख्याति दूर-दूर तक जा पहुँची। 1966 में आई फिल्म ‘गोगोला’ में बालकवि बैरागी का एक गीत था, जिसमें दो नायिकाओं का शिष्ट संवाद है। कम से कम शब्दों में गहरी व्यंजना - ‘चाँद सा गोरा, बेमतवाला/रस का लोभी, मन का काला/चल हट तूने क्या कह डाला।’ और इसके आगे का अन्तरा है - ‘मैं क्या उसका रूप बखानूँ? जानूँ री जानूँ, सब कुछ जानूँ? बतियाँ तोरी मैं ना मानूँ।’ इसी फिल्म का एक और मजेदार गीत था - ‘मोहे ला दे राजा मछरिया रे!’ मुजरा शैली में गाये गये इस गीत की विशेषता थी- अपने समय के विद्रूप पर करारी चोट। यह गीत हमारी न्याय व्यवस्था को झकझोरता है, और गुदगुदाता भी है।

बालकवि बैरागी मालवा के उस छोर पर हैं, जहाँ से आगे मारवाड़ लग जाता है। यहाँ की बोली मीठे सत्तू की तरह है। मिठास और ठण्डक एक साथ। स्वभाव में चाहे कितनी ही उष्णता आ जाये, उसे पिघलते देर नहीं लगती। बालकवि बैरागी बड़ी ईमानदारी के साथ अपनी मिट्टी और उसकी सुगन्ध की तरफदारी करते हैं। वे अपनी कविता में अकादमिकता का ढिंढोरा पीटने की बजाय लोकरुचि का ध्यान रखते हैं। यही वजह है कि वे आजीवन लोक-पूजित रहे-साहित्यकारों में भी, फिल्म जगत् में भी और राजनीतिक गलियारों में भी।

बालकवि बैरागी को जिस एक गीत ने प्रसिद्ध कर दिया, वह तो ‘रेशमा और शेरा’ का वही गीत है जिसे सबने सुना और सबने सराहा-‘तू चन्दा, मैं चाँदनी, तू तरुवर मैं शाख रे। तू बादल मैं बिजुरी, तू पंछी, मैं पात रे’। किस्से बताते हैं, कि यह ख़ूबसूरत गीत जब लिखा गया, तब बालकवि बैरागी मध्यप्रदेश सूचना प्रकाशन राज्य मन्त्री थे। 1969-70 की बात है यह। संगीतकार जयदेव खुद चलकर आये थे भोपाल, उनसे गीत लिखवाने के लिये। जयदेव सप्ताह भर भोपाल मे रुके। बालकवि बैरागी ने यह गीत एक रात के लम्बे कैनवस पर लिखा। ऐसा लगता था, जैसे युग का चितेरा कवि मरुस्थल को अपने गीतामृत से सींचता चला जा रहा है और सिंचित भूमि में एक साथ कई चाँद उग आये हैं। रेगिस्तान को रससिक्त होकर उद्दाम चाँदनी में नहाया हुआ देखना हो, तो एक यही गीत है हमारे पास। जहाँ कुछ नहीं है सिवाय तपती रेत के, वहाँ पिया-मिलन की आस में गीत के जो बोल फूट पड़ते हैं, वे प्रणय का इतिहास रच देते हैं। ‘ना सरवर, ना बावड़ी, ना कोई ठण्डी छाँव। ना कोयल, न पपीहरा,ऐसा मेरा गाँव रे। कहाँ बुझे तन की तपन, ओ सैयाँ सिरमौर, चन्द्र-किरण को छोड़कर, जाये कहाँ चकोर। जाग उठी है साँवरे, मेरी कुँवारी प्यास रे! अंगारे भी लगने लगे, आज मुझे मधुमास रे!’ यह माँड गायन शैली में गाया गया वह गीत है, जिसकी जोड़ का दूसरा गीत अब शायद ही नसीब में हो, क्योंकि न अब बालकवि बैरागी हैं, न संगीतकार जयदेव, न भारतरत्न लता मंगेशकर। 

बालकवि बैरागी के जितने भी सिने-गीत हैं, वे देशज संस्कृति से सराबोर होने के साथ-साथ ऊबड़-खाबड़ और बंजर जमीन में हरी-भरी दूर्वा उगाने के करिश्मे जैसे हैं। बैरागी जी कभी भी न तो किसी प्रचलित लोकगीत की लीक पर चलते हैं, न नकल का रास्ता अपनाते हैं। वे सब जगह मौलिक हैं, और मौलिक बने रहने के लिये गीत के अलोकप्रिय होने के खतरे को समझते हुए भी जोखिम उठाते हैं। 1971 में आई फिल्म ‘वीर छत्रसाल’ में बालकवि बैरागी के एक नहीं, दो नहीं, तीन गीत शामिल हैं। ‘हाय बेदर्दी पिया काली रात में तो आ’ और ‘मोरी कसम झूठी कसमें ना खा’ में जो कसक है, जो हूक सी उठती है, वह हिन्दी कविता की आत्मा का शृंगार है। इस फिल्म के गीत बहुत लोकप्रिय नहीं हुए, लेकिन यहाँ हिन्दी साहित्य को प्रतिष्ठा मिली। इस फिल्म में बालकवि बैरागी के साथ महाकवि भूषण और नीरज के गीत भी हैं। फिल्म ‘वीर छत्रसाल’ के लिये लिखा गया बालकवि बैरागी का यह गीत कैसे अनदेखा रह सकता है-‘निम्बुआ पे आओ मेरे अम्बुआ पे आओ, आओ रे पखेरु मेरी बगिया में आआ’। 

बालकवि बैरागी पल-पल प्रकृति के बीच में हैं। उनके संस्कार प्रकृति के हैं। उनके सिने-गीतों में ग्राम्य सौन्दर्य झिलमिलाता है। उन्होंने कभी चाहा भी नहीं, कि इनसे कहीं दूर भाग कर किसी चकाचौंध से भरे स्वर्ग में बस जाएँ। उन्होंने अपने गीत अपनी मिट्टी में ही उगाए। वहीं उन्हें खाद-पानी दिया। फिल्म ‘दो बूँद पानी’ का वह गीत तो याद कीजिए-‘बनी तेरी बिन्दिया की ले लूँ रे बलैयाँ। भाभी तेरी बिन्दिया की ले लूँ रे बलैयाँ। दियेना सी दमके, लाजो की सुरतिया। कर दी उजारी मेरे भैया की रतियाँ।’ इसी तरह 1978 में आई फिल्म ‘पल दो पल का साथ’ में बैरागीजी का गीत ‘सजा ली तेरी बिन्दिया, रचा ली तेरी मेंहदी’ में भी देहात का घर-आँगन मुस्कुराता, खिलखिलाता दिखाई पड़ता है। 1985 में आई शायद वह आखिरी फिल्म ‘अनकही’ थी, जिसमें एक बार फिर बैरागीजी का गीत देखने-सुनने में आया। यह भक्तिरस में पगा हुआ अप्रतिम गीत था, जिसके बोल थे-‘मुझको भी राधा बना ले नन्दलाल’।

इसमें सन्देह नहीं कि बालकवि बैरागी का रचा हिन्दी साहित्य बहुत समृद्ध है। उनकी कविताएँ स्कूल-कॉलेज के पाठ्यक्रमों में हैं, पढ़ाई जाती हैं, और पिछली पाँच-छः पीढ़ियाँ उन्हें गुनगुनाते हुए बड़ी हुईं। बैरागीजी के जीवन से जुड़े किस्से इतने मशहूर हो चुके हैं, कि केवल उन्हीं के बलबूते बालकवि बैरागी सदियों तक याद रखे जायेंगे। लेकिन यह भी सच है कि उनके सिने-गीतों का साहित्यिक विमर्श अभी शेष है। ये वे गीत हैं, जो मालवा के गाँव-देहात की सुगन्ध को हमारी उस संस्कृति में घोल देते है, जिसे हम ‘भारत की साझा संस्कृति’ कहते हैं। यही वह आईना है, जिसमें हम अपने आप को देखते हैं, और आत्म-मुग्ध होकर रह जाते हैं।

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(भोपाल से प्रकाशित मासिक ‘रंग संवाद’ के नवम्बर 2023 अंक में प्रकाशित)

1 comment:

  1. सुंदर, मौलिक लेखन।

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