...और अब अश्वगन्धा

वाणिज्यिक-औषधीय कृषोपज अश्‍वगन्‍धाको लेकर दादा श्री बालकवि बैरागी का यह लेख, ‘आधारभूत लेख’ की श्रेणी में शामिल किए जाने की पात्रता रखता है। यह लेख, कोटा (राजस्थान) के स्थापित, जाने-माने पत्रकार प्रिय भाई धीरेन्द्र राहुल और मेरे कक्षापाठी, हमसाया, मनासा के अर्जुन पंजाबी के कारण ही सामने आ पाया है। राहुल ने याद दिलाई और अर्जुन ने मनासा में लगातार भागदौड़ कर यह लेख और इसके सारे फोटू उपलब्ध करवाए। यह लेख दैनिक ‘नईदुनिया’ में 10 नवम्बर 1977 को प्रकाशित हुआ था। इस लेख में दिए गए आँकड़े उसी समय के हैं। इस लेख का नायक रामकुँवार दरक मेरा कक्षापाठी है। इस लेख के कारण हम दोनों एक बार फिर सम्पर्क में आ गए। सेठ श्री भूरालालजी बसेर का चित्र उनके पौत्र प्रिय निरंजन बसेर ने, सेठ श्री विश्‍वनाथजी विजयवर्गीय का चित्र उनके पुत्र प्रिय सुरेश कुमार विजयवर्गीय ने और दादा श्री शोभाराम नागदा का चित्र उनके परिवारी प्रिय सुरेश नागदा के कृपापूर्ण सहयोग से प्राप्त हुए हैं। लेकिन इन तीनों को ये चित्र भेजने के लिए इन सबसे अर्जुन ने ही कहा। अश्‍वगन्‍धा के चारों  चित्र सहित शेष सारे चित्र रामकुँवार ने उपलब्‍ध कराए। ‘नईदुनिया’ में प्रकाशित इस लेख की फ्रेम करवाई हुई कतरन, रामकुँवार ने आज भी अपने कार्यालय में प्रदर्शित कर रखी है।  

भोपाल से मनासा आने के लिए व्हाया इन्दौर आ रहा हूँ। यात्रा, बस से कर रहा हूँ। एक बस स्टैण्ड पर बस रुकती है और पानी पीने को भागने को होता हूँ कि एक हँसती-खिलखिलाती छोटी सी भीड़ पर नजर जाती है। ढोल की थाप पर कुछ लोग हँस रहे हैं।

सीन अटपटा सा है। चार-पाँच हिंजड़े एक देहाती किसान को चारों ओर से घेर कर फटे बाँस जैसे अपने सुर में कुछ गा रहे हैं और आसपास खड़े कुछ मनचले उस किसान का मजाक उड़ा रहे हैं। मतलब केवल इतना सा है कि वह किसान घबरा कर रुपया, दो रुपया उन हिंजड़ों को दे दे। यह एक भोंडा तमाशा है जो आप भोपाल और उसके आसपास कभी भी देख सकते हैं।

पर, जो कुछ वे हिंजड़े गा रहे थे वह आश्चर्य का विषय हो सकता है। ऐसा गीत मैंने आज तक कभी सुना नहीं था। उस गीत की जितनी कड़ियाँ सुन पाया, उतनी दे रहा हूँ -

आग लग जाए तेरे असकन्द के खेत में।
गाज गिर जाए तेरे असकन्द के खेत में। 
फट जाए कलेजा काली घटा का,
मेघा मर जाए तेरे असकन्द के खेत में।
मेरा जनाजा जो जाए मनासा
तो कबर खुद जाए तेरे असकन्द के खेत में।

शायद किसी गजल की बहर है। इसकी पकड़ पंक्ति है, ‘असकन्द के खेत में’। मैं भीड़ को देखना भूल जाता हूँ। रह-रह कर मुखड़ा आता है ‘तेरे असकन्द के खेत में’। पर जब वे हिंजड़े गाते हैं, ‘मेरा जनाजा जाए मनासा तो कबर खुद जाए तेरे असकन्द के खेत में’ तब तो मैं हैरान रह जाता हूँ। यह सरेआम गाली है। और श्रीमान्! मेरे अपने गाँव मनासा को गाली है। फिर एक बार सोचता हूँ, कि यह ‘मनासा’ कोई दूसरा होगा। पर जब मनासा आकर छानबीन करता हूँ तो पाता हूँ कि नहीं, वे हिंजड़े मेरे अपने गाँव को ही कोस रहे थे। जिस खेत में ‘कबर खुदने’ की तमन्ना उन हिंजड़ों की थी, वह असकन्द का खेत मनासा में ही हो सकता है। 

और मैं असकन्द पर काम शुरु कर देता हूँ।

आयुर्वेद में ‘अश्वगन्धा’ का बड़ा ही महत्व है। यही ‘अश्वगन्धा’ कई नामों से पुकारी जाती है। जैसे, ‘असकन्द’, ‘असगन्ध’, ‘असींद’, ‘असन्द’, ‘अशन’ आदि। सारे भारत में आप कहीं भी घूम लें, ‘अश्वगन्धा’ की खेती नहीं मिलेगी। भारत में कुल जमा अश्वगन्धा की जितनी खेती होती है, उसकी 98 प्रतिशत अश्वगन्धा केवल मेरे अपने गाँव मनासा में पैदा होती है। रही शेष दो प्रतिशत, वह पाई जाती है मध्य प्रदेश के विदिशा जिले की ‘गंज बासौदा’ नामक बस्ती में। यह दो प्रतिशत भी नहीं के बराबर समझिए। यहाँ की सारी अश्वगन्धा भी मनासा से ही नियन्त्रित होती है। 

भारत का नक्शा लेकर आप उसे फैलाइए। जिला ढूँढिए जिसका नाम है मन्दसौर। इस जिले की एक तहसील का केन्द्र है मेरा गाँव मनासा। (30 जून 1998 को मन्दसौर जिले का विभाजन हो गया और नीमच जिला अस्तित्व में आ गया। इस पोस्ट के प्रकाशित होते समय मनासा, अब नीमच जिले का हिस्सा है।) वैसे, मेरी तहसील में कोई 300 गाँव हैं। सवा लाख की आबादीवाली इस पूरी तहसील का क्षेत्रफल अच्छा-खासा, लम्बा-चौड़ा है पर यह अश्वगन्धा पैदा कितने हिस्से में होती है? दक्षिण की ओर केवल सात मील के अर्द्धवृत्त के भीतर-भीतर, इने-गिने गाँवों में अश्वगन्ध पैदा होती है। 

कुल तीन व्यापारी इस फसल को सारे संसार में पहुँचाते हैं। केवल एक व्यापारी फर्म जो कि ‘रमेशचन्द्र रामकुँवार’ के नाम से जानी जाती है, इस फसल के सारे बाजार को उठाने-गिराने की क्षमता रखती है। शेष दो व्यापारी, श्री भूरालालजी बसेर तथा  श्री विश्वनाथजी विजयवर्गीय इसके स्टॉकिस्ट माने जाते हैं। देहात में एक ब्राह्मण किसान है श्री शोभराम नागदा। वे भी मात्र स्टॉकिस्ट हैं। पर सारा व्यापार करते हैं, ‘रमेशचन्द्र रामकुँवार’ वाले ही। इनका तार का पता भी ‘असगंधवाला’ ही है। यह फर्म माहेश्वरी जाति के नवयुवकों की है और इनका पुश्तैनी व्यापार है यह असगन्ध का निर्यात।

लेख की फ्रेमबन्द तस्वीर के साथ रामकुँवार दरक और अर्जुन पंजाबी

सेठ श्री भूरालालजी बसेर

सेठ श्री विश्‍वनाथजी विजयवर्गीय
                                                               
श्री शोभारामजी नागदा
                                                                   
 रामकुँवार के कार्यालय में लगी  हुई, लेख की कतरन की, फ्रेमबन्द तस्वीर

1974 में केवल ढाई हजार क्विण्टल अश्वगन्धा पैदा हुई। आप दो प्रतिशत गंज बासोदा को भी मिला लीजिएगा। याने, सब मिलाकर, सारे भारत का तीन हजार क्विण्टल। गए कुछ सालों से इसका भाव बराबर बढ़ता जा रहा है। दो साल पहले यह कोई दो सौ से लेकर तीन सौ रुपये क्विण्टल तक गई। गए साल यह पाँच सौ से लेकर छः सौ रुपये क्विण्टल तक तुली। 1974 में इसका भाव आया एक हजार रुपया क्विण्टल और 1975 में इससे भी ज्यादह। मनासा के इतिहास में गए कुछ साल निकले जबकि अश्वगन्धा की चोरियाँ हुईं और इसके एक खेत के लिए खड़ी फसल पर झगड़ा हुआ। वरना कोई इस फसल को पूछता भी नहीं था। 

अश्वगन्धा एक खरीफ की फसल है। पर यह फसल न सियालू (शीतकालीन) न उन्हालू (ग्रीष्मकालीन)। वह हमेशा ‘आलसी किसान’ की फसल रही है। जो किसान खेती से जी चुराए, वह असगन्ध बोता है। न कोई पशु खाता है न पक्षी।  किसी रखवाली की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसे किसी खाद या पानी की जरूरत नहीं है। हुई कि नहीं आलसियों की खेती? सावन की अमावस्या से लेकर भादों की अमावस्या तक के बीच के दिनों में यह फसल बो दी जाती है। जन्माष्टमी के बाद तक किसान इसे बोता है। अत्यधिक बरसात इस फसल की दुश्मन है। बीज बह जाए और खेत साफ। इसका बीज ‘फूँका’ जाता है। इस फसल का बीज बहुत हल्का होता है। आप लाल मिर्च को मसल लीजिएगा। उसमें जो बीज निकलता है, करीब-करीब वैसा ही बीज। खेत में बीज हाथों से फेंक दिए जाते हैं, जिसे ‘फूँकना’ कहते हैं। बारिश में फिर बीज टिकेगा ही कहाँ? शायद इसीलिए हिंजड़े गा रहे थे - ‘फट जाए कलेजा काली घटा का, मेघ मर जाए तेरे असकन्द के खेत में’। 

आसोज (आश्विन) महीने तक किसान यदि पाता है कि अश्वगन्धा के पौधे ठीक उग आए हैं (जिसे कहा जाता है ‘असगन्ध ठीक मँड गई’) तो फिर उसको रहने देगा। वरना वह खेत में नए सिरे से हल डाल कर रबी की फसल बो देगा। 

अश्वगन्धा का पौधा बहुत छोटा होता है। अमूमन एक फुट से ऊँचा नहीं उठता। पर, अश्वगन्धा पत्तियों के ऊपर लगनेवाली फसल नहीं है। यह जमीन के भीतर पैदा होती है। ठीक मूली की तरह, किन्तु मूली जितनी मोटी नहीं। जितना लम्बा पौधा (जमीन से) ऊपर होगा, करीब-करीब उतनी ही गहरी यह नीचे भी ‘बैठ’ जाती है। याने, जिसे आप अश्वगन्धा कहते हैं वह जमीन के नीचे नौ इंच से लेकर एक फुट तक जड़ जैसी होती है। अश्वगन्धा का सबसे बड़ा खाद है - कड़क सर्दियाँ। जिस समय मेरे गाँव में आसपास की सारी फसलें शीत दाह से जल जाती हैं, उस समय भी अश्वगन्धा का किसान खुश रहता है। उतरते माघ के आसपास इस फसल को उखाड़ लिया जाता है। यह कम्बखत यदि कहीं खलिहान में ही पड़ी हो और बादल आ जाएँ या मावठा हो जाए तो फिर अश्वगन्धा की सम्हाल पूरी करनी होगी। पानी इसका दुश्मन है। 

उखाड़ने के बाद अश्वगन्धा के पत्ते काट कर फेंक दिए जाते हैं। पत्तों के ठीक नीचे से जो तना शुरु होता है, वहाँ से आधे तने तक का टुकड़ा ‘बेहद अच्छी अश्वगन्धा’ माना जाता है। पूरी जड़ को चार टुकड़ों में काट लेते हैं - श्रेष्ठ, अच्छी, ठीक और बेकार। काटने के बाद मजदूर इसे मोटी लाठी से कूटते हैं। फिर इसे हवा में उफन लेते हैं। उफनाई के बाद अलग-अलग क्वालिटी के माल को छाँट लिया जाता है। एक बीघा में यह सूखी-सट्ट आधा क्विण्टल बैठ जाती है। याने, एक एकड़ में एक क्विण्टल से कुछ ही ज्यादा।

          

                  

                                        


                                          


                                              

गुणवत्ता क्रम से दिखाई गई अश्वगन्धा  

इसकी गन्ध की विशेषता ही यह है कि आपको लगेगा, अभी-अभी यहाँ से हजार-दस हजार घोड़े निकले हैं और अपनी गन्ध छोड़ गए हैं। 

आयुर्वेद ने इसका बहुत गुण गाया है। गठिया, वायु और हाथ-पाँव काँपने की बीमारी पर यह अकसीर मानी जाती है। पौष्टिक तो यह होती ही है पर धातुवर्द्धक भी है। मनुष्य को अश्व तक बनाने की क्षमता है इसमें। हिंजड़ों की शिकायत का यह भी एक मुद्दा रहा होगा। उनका सम्प्रदाय इसके कारण नष्ट होता होगा। इसीलिए वे गा रहे थे - ‘आग लग जाए’ और ‘गाज गिर जाए’। 

अश्वगन्धा के बड़े-बड़े ग्राहकों के नाम आप सब जानते हैं। जैसे कि वैद्यनाथ आयुर्वेदवाले, झण्डु फार्मेसी, मद्रास के जे. एण्ड जे. डिशेन कम्पनीवाले, चरक और धूतपापेश्वर आदि। अश्वगन्धा का रेशा-रेशा यहाँ से उठा लिया जाता है। ‘अश्वगन्धारिष्ट’ जैसी औषधि का नाम तो स्पष्ट है, पर अन्य और भी दवाइयाँ बनाने के समाचार मिलते रहते हैं। अश्वगन्धा की तासीर गरम है। सर्दियों में इसका पाक तैयार किया जाता है। मनासा और आसपास के प्रौढ़ तथा बूढ़े पुरुष इसका सेवन अक्सर करते हैं। जिस तरह गोंद और केसर या सुपारी का पाक बनता है उसी तरह अश्वगन्धा का भी पाक तैयार करके कमजोर पुरुषों को खिलाया जाता है। कहा जाता है कि यह पाक या दवा औरतों को नहीं दी जाती है। इधर के साधनहीन और गरीब लोग जब अश्वगन्धा का सेवन करना चाहते हैं तो किसी भी दुकान से इसके दो-चार टुकड़े माँग लेते हैं और उन्हें पीस कर, कपड़े से छान कर उस सूखे पावडर को फाँक लेते हैं। मर्द की काठी मजबूत रहती है। आपके शहर में भी यह चीज पंसारी की दुकान पर मिल जाएगी। 

चलते-चलते एक बात और कह दूँ। इस फसल का कोई काला बाजार या स्मगलिंग नहीं होता है। यह हर जगह आसानी से उपलब्ध हो सकती है। इसे हासिल करने के लिए आपको मनासा आने का कष्ट करने की कोई आवश्यकता नहीं है। आप चिट्ठी लिख सकते हैं। आपको यह अवश्य लिखना पड़ेगा कि आपको अश्वगन्धा की आवश्यकता क्यों कर महसूस हुई? मैं आपको वाजिब कीमत पर भेजने के लिए मेरे नगर के व्यापारियों से निवेदन कर दूँगा। 

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1 comment:

  1. बहुत सुन्दर और रोचक आलेख, इसे साझा करने के लिए विष्णु जी आप को धन्यवाद। पिछली बार भारत से लौटते समय अश्वगन्धा की गोलियाँ खरीद कर लाया था, इसलिए असकन्द की जानकारी खोज रहा था।

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