‘नोटा’ की पुकार - मुझे ‘सोटा’ बनाओ

मेरी धारणा है कि भ्रष्टाचार की जड़ें हमारे मँहगे चुनावों में हैं। नेता चुनाव लड़ता है। जीते या हारे, नतीजों के बाद वह खर्चे की भरपाई और अगले चुनाव की तैयारी के लिए धन संग्रहण में जुट जाता है। वह और कोई काम करे, न करे, धन संग्रहण करता रहता है। कह सकते हैं कि धन संग्रहण नेता का मुख्य काम है। इसीलिए भ्रष्टाचार ही आज हमारे नेताओं की मुख्य पहचान बन कर रह गया है। कोई भी नेता अकेला धन संग्रहण नहीं कर पाता। यदि वह सत्ता में है तो सरकारी  अधिकारी/कर्मचारी उसका सबसे बड़ा औजार होते हैं। हम अधिकारियों/कर्मचारियों को भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी के लिए कोसते हैं। लेकिन तनिक ध्यान से समग्र स्थितियों का विश्लेषण करेंगे तो पाएँगे कि इसके मूल में अन्ततः नेता ही होता है जो चुनावों के लिए धन संग्रह करता है। इसीलिए प्रत्येक नेता, किसी अधिकारी/कर्मचारी के भ्रष्टाचार पर गर्जना के सिवाय कभी, कुछ नहीं कर पाता। भ्रष्ट नेता के पास वह नैतिक आत्म-बल  नहीं होता कि वह किसी को भ्रष्टाचार के लिए दण्डित कर सके। ऐसे में हमारे चुनाव पूँजीपतियों, नेताओं और अधिकारियों/कर्मचारियों के ‘बँधुआ मजदूर’ बन कर रह गए प्रतीत होते हैं। आज कोई ईमानदार, भला आदमी चुनाव लड़ने की सोच ही नहीं सकता। उम्मीदवारी तय करते समय पार्टियाँ ‘जीतने की सम्भावना’ को एक मात्र पैमाना बनाती हैं और इस पैमाने पर कोई ईमानदार, भला, मैदानी कार्यकर्ता कभी भी खरा नहीं उतरता। अन्ततः कोई धन-बली, बाहु-बली ही हमारे सामने पेश किया जाता है।

चुनावों को इन जंजीरों से कैसे मुक्त कराया जाए? चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायालय सरकार को समय-समय पर चुनाव सुधारों के लिए कहते रहते हैं। लेकिन चूँकि ये सारे सुझाव नेताओं की चुनावी सम्भावनाओं पर कुठाराघात करते हैं इसलिए वे (याने कि सरकार) इन पर ध्यान-कान ही नहीं देते। सर्वोच्च न्यायालय ने अभी-अभी ही सरकार से आग्रह किया है संसद को अपराधियों से मुक्त कराने की दिशा में प्रभावी कदम उठाए। लेकिन जिस संसद में तीस प्रतिशत लोग ‘अपराध-दागी’ हों वे भला (संसद में प्रवेश के) अपने रास्ते क्यों बन्द करेंगे? 

ऐसे में मुझे ‘नोटा’ अवतार की तरह नजर आता है। मुमकिन है, मेरा सोचना ‘अतिआशावाद’ हो। लेकिन कोई भी व्यवस्था/प्रणाली सम्पूर्ण निर्दोष (जीरो डिफेक्ट) नहीं होती। ऐसे में न्यूनतम दोष (मिनिमम डिफेक्ट) वाली व्यवस्था/प्रणाली अपनाई जानी चाहिए। मुझे लगता है, ‘नोटा’ हमें यह व्यवस्था/प्रणाली देने में मददगार हो सकता है। 

अपने मौजूदा स्वरूप में ‘नोटा’, उम्मीदवारों के प्रति हमारी निराशा, उनके प्रति हमारा अस्वीकार तो प्रकट करता है किन्तु किसी एक को जीतने से रोक नहीं सकता। एक लाख मतदाताओं में से 99,900 मतदाता ‘नोटा’ का बटन दबा दें तब भी, शेष 100 में से सर्वाधिक वोट पानेवाला उम्मीदवार जीत जाएगा। मध्य प्रदेश में, 2013 के विधान सभा चुनावों में 26 उम्मीदवारों की और दिसम्बर 2017-जनवरी 2018 में हुए गुजरात विधान सभा चुनावों में 30 उम्मीदवारों की जीत का अन्तर ‘नोटा’ को मिले वोटों से कम था। जाहिर है, आज का ‘नोटा’ हमारी नाराजी तो जताता है किन्तु जिसे हम खारिज करना चाह रहे हैं उसे विधायी सदन में जाने से रोक नहीं पाता।

‘सपाक्स’ ने दो दिन पहले ‘सपाक्स समाज दल’ के नाम खुद को राजनीतिक दल में बदलने की घोषणा की है। इससे पहले तक ‘सपाक्स’ के कार्यकर्ता ‘नोटा का सोटा’ का डर दिखा रहे थे। दोनों प्रमुख पार्टियाँ भयभीत भी थीं। किन्तु वे निश्चिन्त भी थीं कि ‘नोटा’ केवल ‘नोटा’ ही रहेगा, ‘सोटा’ नहीं बन पाएगा। वह किसी न किसी को जीतने से तो रोक नहीं पाएगा। सोटा याने लट्ठ, याने मारक/घातक, याने परिणामदायी। लेकिन आज का ‘नोटा’ मारक या घातक, प्रभावी या कि जन-मनोनुकूल और इससे आगे बढ़कर कहूँ तो जिस मकसद से यह लागू किया था उसके अनुकूल परिणामदायी नहीं है। 

इसलिए ‘नोटा’ को ‘सोटा’ में बदला जाना चाहिए। ‘नोटा’ को एक उम्मीदवार की हैसियत दी जानी चाहिए। तब ही यह इसका मकसद पूरा कर सकेगा। उसके बिना यह एक आत्मवंचना के झुनझुने से अधिक कुछ नहीं है। 

‘नोटा’ को ‘सोटा’ में बदलने के लिए इसे उम्मीदवार की हैसियत दी जानी चाहिए। यदि नोटा जीत जाए तो वहाँ फिर से चुनाव कराया जाए। इस चुनाव में वे लोग उम्मीदवार नहीं हो सकेंगे जो ‘नोटा’ से परास्त हुए थे क्योंकि मतदाता तो उन्हें पहले ही खारिज कर चुके हैं। यह प्रावधान चुनावी विसंगतियों के लिए ‘मारक’ साबित होगा और राजनीतिक दल खुद को दुरुस्त करने के लिए विवश होंगेे।

उपरोक्त प्रावधान हो जाए तो इसके चमत्कारी नतीजे मिलेंगे। मेरे कुछ आशावादी अनुमान इस तरह हैं।

पार्टी कार्यकर्ताओं/समर्थकों को छाताधारी उम्मीदवारों से मुक्ति मिलेगी। देश में आज भी कई लोक सभा, विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र ऐसे मिल जाएँगे जहाँ पहले चुनाव से लेकर आज तक, उस निर्वाचन क्षेत्र से बाहर का आदमी चुनाव जीत रहा है। पार्टी लाइन या पार्टी अनुशासन के नाम पर कार्यकर्ता, बुझे मन से, मन मारकर बाहरी उम्मीदवार को विजयी बनाते हैं। ‘नोटा’ के ‘सोटा’ बन जाने के बाद कार्यकर्ता अपने नेताओं को ‘नोटा’ का भय दिखाकर बाहरी उम्मीदवार को रोक सकेंगे। तब वे कह सकेंगे कि ऐसा करके वे किसी विरोधी को विधायी सदन में नहीं भेज रहे हैं क्योंकि ‘नोटा’ के जीतने पर सब उम्मीदवार खारिज हो जाएँगे। तब पार्टी को स्थानीय उम्मीदवार तलाशना पड़ेगा। तब, बरसों से पार्टी के लिए जाजम बिछानेवाले, दरियाँ झटकनेवाले कार्यकर्ताओं में से किसी को मौका मिल सकेगा। तब लोकतन्त्र की भवनानुरूप ऐसा सच्चा और वास्तविक, स्थानीय नेतृत्व सामने आएगा जिसे अपने क्षेत्र की समस्याओं की न केवल जानकारी होगी बल्कि उन्हें हल करने में भी उसकी दिलचस्पी होगी। ऐसे उम्मीदवार के लिए तमाम कार्यकर्ता अतिरिक्त उत्साह से काम करेंगे जिसका परोक्ष प्रभाव चुनावी खर्च पर भी पड़ेगा ही पड़ेगा।

इसी नजरिये से देखेंगे तो पाएँगे कि राजनीति में परिवारवाद, भ्रष्ट-बेईमान-दागी-दुराचारियों के उम्मीदवार बनने, पार्टियों में विद्रोह, गुटबाजी, भीतरघात की सम्भावनाएँ शून्यवत होंगी। सबसे अच्छी बात होगी कि पार्टियों में आन्तरिक लोकतन्त्र पनपेगा, विकसित होगा। आन्तरिक लोकतन्त्र किसी भी पार्टी की सबसे बड़ी ताकत होती है। पार्टियों का आन्तरिक लोकतन्त्र किसी जमाने में हमारी विशेषता और पहचान हुआ करती थी। काँग्रेस की ‘युवा तुर्क तिकड़ी’ चन्द्रशेखर, कृष्णकान्त और मोहन धारिया पार्टी के अन्दर जिस तरह वैचारिक बहस करती थी उससे नेतृत्व को असुविधा होती थी। काँग्रेस के इतिहास में चन्द्रशेखर ऐसे पहले और एकमात्र व्यक्ति बने हुए हैं जिन्होंने इन्दिराजी की इच्छा के विरुद्ध अ. भा. काँग्रेस कमेटी के सदस्य का चुनाव लड़ा और जीता।  इन्दिराजी यह पराजय स्वीकार नहीं कर पाईं और पार्टी का आन्तरिक लोकतन्त्र ही खत्म कर दिया। यहीं से काँग्रेस का पराभव प्रारम्भ हुआ। यह दुर्भाग्य ही है कि सत्ता में आने के बाद प्रत्येक पार्टी काँग्रेस हो जाती है। इसीलिए आज किसी भी पार्टी में आन्तरिक लोकतन्त्र नजर नहीं आता। वामपंथी पार्टियाँ अपवाद होने का दावा कर सकती हैं किन्तु अपवाद सदैव ही सामान्यता की ही पुष्टि करते हैं।

‘नोटा’ को यदि उपरोक्तानुसार स्वरूप दे दिया जाए यह ‘लाख दुःखों की एक दवा हो सकता है। तब चुनाव लड़ने के लिए नेताओं को भारी-भरकम चन्दा जुटाने की आवश्यकता नहीं रह जाएगी जिसका अर्थ होगा, भ्रष्टाचार में भरपूर कमी। भ्रष्टाचार तब भी होगा किन्तु तब हमारे नेताओं में भ्रष्टाचारियों पर कड़ी कार्रवाई करने का आत्म-बल होगा।

फिर कह रहा हूँ, ‘नोटा’ को लेकर मेरा सोच अतिआशावादी हो सकता है, इसमें कमियाँ हो सकती हैं। किन्तु ‘नोटा’ को ‘सोटा’ में बदलने पर हम ‘न्यूनतम दोष’ वाली दशा में आ सकते हैं।
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दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल, 04 अक्टूबर 2018



चुनाव सुधारों के पक्ष में आक्रामक वातावरण चाहिए

मेरी यह पोस्ट दैनिक ‘सुबह सवेरे’ भोपाल में दिनांक 20 सितम्बर 2018 को (और रतलाम से प्रकाशित साप्ताहिक ‘उपग्रह में 27 सितम्बर को) छप चुकी थी। किन्तु इसका दूसरा भाग प्रकाशित होने तक के लिए मैंने इसे ब्लॉग पर देने के लिए रोक रखा था। आज, 04 अक्टूबर को इसका दूसरा भाग ‘सुबह सवेरे’ में छप गया है जिसे मैं कल ब्लॉग पर दूँगा। मुझे गा कि दोनों भाग एक के बाद एक देना बेहतर होगा। 

एक अखबारी खबर के मुतािबक एक आयोजन में बोलते हुए भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त ओ. पी. रावत ने, चुनाव में काला धन रोकने के लिए मौजूदा कानूनों को अपर्याप्त बताया है। मुमकिन है, मुख्य चुनाव आयुक्त ने और भी कुछ कहा हो लेकिन मुझ जैसे पाठकों तक तो केवल एक ही बात पहुँची कि वे केवल एक ही बात पर चिन्तित थे - चुनाव में काले धन को रोकने के लिए।

चुनाव में बढ़ता काला धन हमारी समस्या है तो जरूर लेकिन यह चिन्ता न तो एकमात्र है न ही आधारभूत। जब तक चुनावों का मौजूदा ‘अत्यधिक खर्चीला’ स्वरूप बना रहेगा तब तक काला धन न केवल अपना डंका बजाता रहा बल्कि इसका दखल बढ़ता ही जाएगा। लिहाजा, चुनावों में काले धन को नियन्त्रित करने से पहले, चुनावों को खर्चीला होने से बचाने पर विचार किया जाना चाहिए और यह काम केवल चुनाव सुधारों से ही सम्भव है। लेकिन यही सबसे कठिन काम भी है। इसलिए कि सुधार करने का अधिकार हमारे सांसदों के पास है और उनमें से शायद ही कोई इनमें विश्वास और रुचि रखता हो। यह स्थिति भारतीय चुनाव आयोग के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। लेकिन इसे केवल चुनाव आयोग की जिम्मेदारी मानकर छोड़ देना हम सबका, सबसे बड़ा अपराध है - मेरे तईं, राष्ट्रद्रोह के स्तर का अपराध। 

चुनाव आयुक्त आते-जाते रहेंगे। वे सब अपने-अपने हिसाब से कोशिशें करते रहेंगे। वे जिस वर्ग से आते हैं, उसे मँहगाई, भ्रष्टाचार, अफसरशाही, बाबू राज से कोई फर्क नहीं पड़ता। हमें पड़ता है। लेकिन हम ही उदासीन हैं। आयोग की प्रत्येक पहल अन्ततः हम आम लोगों का हित रक्षण ही करती है लेकिन हम ही इससे उदासीन हैं। हम चाहते हैं कि चुनाव आयोग ताकतवर बने लेकिन हम उसे ताकतवर बनाने में दिलचस्पी नहीं रखते। हम भूल जाते हैं कि हम ही चुनाव आयोग की ताकत हैं।

हमारे मँहगे चुनाव, भ्रष्टाचार सहित अनेक समस्याओं की जड़ हैं। ये जब तक मँहगे बने रहेंगे, काले धन का दबदबा बना रहेगा। आज पार्टियाँ उम्मीदवारों का चयन योग्यता, शिक्षा, चाल-चरित्र, ईमानदारी जैसे मूलभूत गुणों के आधार पर नहीं, ‘जीतने की सम्भावना’ के अधीन करती हैं। यह ‘सम्भावना’  धन-बल, बाहु-बल से जुटाई जाती है। इसी के चलते देश के विधायी सदन कभी-कभी अपराधियों की शरण स्थली अनुभव होने लगते हैं।

चुनाव सुधारों के लिए चुनाव आयोग प्रति पल प्रयासरत नही संघर्षरत रहता है। टी. एन. शेषन से पहले तक चुनाव आयोग ‘नख दन्त विहीन शेर’ था। शेषन ने इसे नई पहचान और नए तेवर दिए। उसके बाद से ही नेताओं को इससे असुविधा होने लगी। लेकिन गए तीन-चार बरसों में शेषन-पूर्व का समय लौटता नजर आने लगा है। इसके बावजूद चुनाव आयोग समय-समय पर जनोपयोगी और लोकतन्त्र की रक्षा करते हुए महत्वपूर्ण सुझाव देता रहता है। ‘नोटा’ ऐसा ही एक सुझाव था जो वास्तविकता बना। किन्तु आयोग के इन सुझावों को जन समर्थन कभी नहीं मिलता।

अभी-अभी आयोग ने कुछ महत्वपूर्ण सुझाव दिए हैं। एक व्यक्ति एक ही स्थान से चुनाव लड़े, दो स्थानों से जीता हुआ व्यक्ति किसी एक स्थान से त्याग-पत्र दे तो वहाँ होनेवाले उप चुनाव का खर्च उससे वसूल किया जाए या, वहाँ दूसरे नम्बर पर आए उम्मीदवार को विजयी घोषित किया जाए। ये दोनों ही सुझाव ऐसे हैं जिन्हें मंजूर कराने के लिए पूरे देश को सरकार पर दबाव बनाना चाहिए। चुनाव आयोग ने तो यह सुझाव अब दिया है लेकिन मेरे कस्बे के चार्टर्ड इंजीनीयर जयन्त बोहरा कोई बीस बरस पहले ही यह सुझाव दे चुके थे। उनके साथ मिलकर मैंने भी खूब लिखा-पढ़ी की थी। किन्तु कार्रवाई तो दूर रही, मुझे पावती भी नहीं मिली। ‘व्यवस्था’ से जवाब पाना भाग्यशालियों को ही नसीब होता है। लेकिन, त्याग-पत्र देनेवाले से खर्च वसूल करना, मौजूदा व्यवस्था को मजबूत ही करेगा। हमारे नेताओं के पास अकूत धन है। वे आसानी से खर्चा दे देंगे। इसलिए, त्याग-पत्र के बाद वहाँ दूसरे नम्बर पर आए उम्मीदवार को ही विजयी घोषित किया जाना चाहिए। तब नेता को, विधायी सदन में एक विरोधी के बढ़ जाने की चिन्ता होगी। इस व्यवस्था से न केवल उप चुनाव के ताम-झाम और उपक्रम से मुक्ति मिलेगी बल्कि लोकतन्त्र के विचार को मजबूती भी मिलेगी। 

चुनाव आयोग के इन सुझावों को प्रचण्ड जन समर्थन मिलना चाहिए। आज का समीकरण यह बन गया है कि जो नेता के हित में होता है वह नागरिकों के लिए अहितकारी होता है। इसका विलोम समीकरण यही होगा कि जो नेता के प्रतिकूल होगा वह नागरिकों के अनुकूल होगा। चुनाव आयोग के प्रस्तावित सुधार नागरिकों के अत्यधिक अनुकूल हैं। इन्हें प्रचण्ड जन समर्थन मिलना चाहिए।

अजाक्स, अपाक्स, करणी सेना जैसे संगठनों ने, अपने-अपने कारणों से इन दिनों देश में आन्दोलन छेड़ रखा है। राजनीतिक प्रतिबद्धता से ऊपर उठकर लोग जगह-जगह नेताओं-मन्त्रियों से सवाल पूछ रहे हैं, काले झण्डे दिखा रहे हैं, टमाटर फेंक रहे हैं। नेता-मन्त्री गूँगे हो गए हैं। उनके बोल नहीं फूट रहे। वे रास्ते बदल रहे हैं। दौरे निरस्त कर रहे हैं। ये तीन संगठन तो उदाहरण मात्र हैं। मेरा कहना है कि देश भर के तमाम सार्वजनिक संगठनों (इनमें मैं लायंस, रोटरी, जेसी जैसे ‘सेवा संगठनों’ को भी शरीक करता हूँ) ने चुनाव आयोग के प्रस्तावित सुधारों के पक्ष में भी ऐसा ही आक्रामक वातावरण बनाना चाहिए। केवल चुनाव सुधार ही हमें मँहगे चुनावों से मुक्ति दिला सकते हैं। 

चुनाव सुधारों में दो सुधार और फौरन शरीक किए जाने चाहिए। पहला, दलबदल करनेवाला अगले छः वर्ष तक किसी दल के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने का पात्र न रहे। वह निर्दलीय चुनाव लड़े और जीत जाए तो किसी दल में शामिल न हो सके।   

दूसरा - चुनावी चन्दे के मामले में मौजूदा सरकार ने, इलेक्टोरेल बॉण्ड की व्यवस्था कर एक पाप किया है। बढ़ती पारदर्शिता के इस समय में यह व्यवस्था काले धन को बढ़ावा देती है। पार्टी के समर्थकों/कार्यकर्ताओं को मालूम होना चाहिए कि उनकी पार्टी किन लोगों से चन्दा ले रही है। इलेक्टोरोल बॉण्ड यह जानकारी छुपाते हैं। यह व्यवस्था फौरन वापस ली जानी चाहिए।

सपाक्स और करणी सेना के आन्दोलन में नोटा का जिक्र खूब हो रहा है - एक धमकी के रूप में तमाम नेता और दल इस धमकी से आतंकित हैं। नोटा का वर्तमान स्वरूप अपर्याप्त और अप्रभावी है। अभी यह असन्तोष प्रकट करने का माध्यम मात्र है। नोटा को एक उम्मीदवार की हैसियत देकर इसे प्रभावी बनाया जाना चाहिए। मेरा तो मानना है कि नोटा को यदि इसके ‘आशय’ (इंटेंशन) के अनुरूप हैसियत दे दी जाए तो हमें शनै-शनै मँहगे चुनावों से ही नहीं, अनेक राजनीतिक समस्याओं से भी मुक्ति मिल जाएगी जिसकी अन्तिम परिणति भ्रष्टाचार से मुक्ति होगी।

नोटा हमारे ‘लाख दुःखों की एक दवा’ है। यह अलग से स्वतन्त्र आलेख का विषय है। मैं इस पर अवश्य लिखूँगा। शायद अगले सप्ताह ही। लेकिन हम मूल बात को नहीं भूलें - चुनाव आयोग के प्रस्तावित चुनाव सुधारों से हम खुद को जोड़ें, आयोग को ताकत दें। हमने संसदीय प्रणाली अपनाई है। इसलिए चुनाव हमारे लिए अपरिहार्य हैं। हम चुनाव प्रणाली को ऐसी बनाएँ कि आप भी चुनाव लड़ने की हिम्मत जुटा सकें और मैं भी। 

हम सब अपने-अपने नेताओं से कहीं न कहीं असन्तुष्ट, अप्रसन्न और दुःखी हैं। हमारे ये नेता चुनाव आयोग से डरते हैं। गोया, चुनाव आयोग परोक्षतः हमारा (और प्रकारान्तर में लोकतन्त्र का) ही मनोरथ साध रहा है। इसलिए भी हमने चुनाव आयोग को खुलकर, मुक्त-हृदय, मुक्त-कण्ठ, मुक्त-मन, मुक्त-धन सहयोग करना चाहिए। 

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दैनिक ‘सुबह सवेरे’,  भोपाल, 20 सितम्बर 2018 



दुनिया की कोई ताकत मेरे चरित्र को झुका नहीं सकती

          06 जुलाई 1944 को सिंगापुर से लिखा गया, गाँधीजी के नाम नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का यह पत्र मुझे केशवचन्द्रजी शर्मा के सौजन्य से मिला है। इस पत्र में गाँधी और सुभाष के आत्मीय सम्बन्धों की खुशबू बरबस ही हमें घेर लेती है। इस पत्र में गाँधी के प्रति सुभाष का न केवल आदर भाव उत्कटता से प्रकट होता है अपितु ‘आपको आशीर्वाद देना ही पड़ेगा।’ जैसा अधिकार भाव भी सहजता से प्रकट हो जाता है। 
            नहीं जानता कि गाँधी जयन्ती पर यह पत्र कितना प्रासंगिक है। किन्तु इन दोनों राष्ट्र नायकों के आत्मीय अन्तर्सम्बन्धों की स्पष्ट झलक इसमें आसानी से अनुभव की जा सकती है। 


सिंगापुर 06 जुलाई 1944
महात्माजी!

अंग्रेजी कारागार में कस्तूरबा की मृत्यु के बाद सारे देश का, आपके स्वास्थ्य के बारे में चिन्तित हो उठना स्वाभाविक था।

हमारा उद्देश्य एक है और हम हिन्दुस्तानी जो आज हिन्दोस्तान के बाहर हैं, उनकी निगाह में साधनों की भिन्नता तो महज घरेलू सवाल है। 1929 के पूर्ण स्वराज के प्रस्ताव के बाद काँग्रेस के सभी सदस्यों का एकमात्र उद्देश्य आजादी रहा है। हम सभी हिन्दुस्तानियों की निगाह में आप जागृति के अग्रदूत हैं। जबसे आपने 1942 में गरज कर भारत छोड़ने की माँग की है तब से हमारे हृदय में आपके लिए सहस्रगुनी श्रद्धा बढ़ गयी।

मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि इस खतरनाक काम को करने के पहले मैं हफ्तों और महीनों तक मैं इसके पक्ष और विपक्ष के बारे में सोचता रहा। इतने दिनों तक अपने देश की सेवा करने के बाद, अपने देश को प्यार करने के बाद, मुझे पहला देशद्रोही बन जाने का शौक नहीं था। मैं अपनी जनता का, अपने भाइयों का विश्वास जीत चुका था और उन्होंने राष्ट्रपति बनाकर मुझे जीवन का सर्वोच्च गौरव दिया था।  मुझे एक दल मिल गया था, फारवर्ड ब्लाक, जिसका हर सदस्य मेरे लिए जान देने के लिए तैयार था। मैं जानता हूँ कि हिन्दोस्तान से भागने में न केवल मैं, वरन् मेरी पार्टी भी खतरे में पड़ रही है। लेकिन मुझे अणु भर भी विश्वास होता कि युद्धकाल में भारत में ही रहकर मैं स्वतन्त्रता का आन्दोलन चला सकूँगा तो यकीन मानिये मैं आपके चरणों से दूर न आया होता। 

हाँ, धुरी राष्ट्रों का प्रश्न शेष है। क्या उन्होंने मुझे धोखा दिया? क्या मैं धोखा खा गया हूँ? दुनिया जानती है कि अंग्रेज दुनिया की सबसे बड़ी धोखेबाज कौम है। जो व्यक्ति जीवन भर उन धोखेबाजों से जिन्दगी और मौत की लड़ाई लड़ता रहा है वह फिर दूसरों से धोखा नहीं खायेगा। अगर अंग्रेज राजनीतिज्ञ मुझे धोखा नहीं दे सके तो दूसरे भला क्या धोखा दे सकेंगे? और अगर जिन्दगी भर जेल में बन्द रखकर, मेरी नसों को चूर-चूर कर ब्रिटिश सरकार मेरी नैतिकता पर दाग नहीं लगा सकी तो यकीन मानिये कि दुनिया की कोई ताकत मेरे चरित्र को झुका नहीं सकती। मैंने आज तक हिन्दोस्तान की आन कायम रखी है। हिन्दोस्तान के झण्डे को झुकता हुआ देखने से पहले मैं हमेशा के लिए आँखें मूँद लूँगा।

एक जमाना था जब जापान हमारे दुश्मन का साथी था। जब तक जापान और अंग्रेजी की दोस्ती थी, मैं जापान नहीं आया। जब जापान ने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी तब मैं जापान आया हूँ। वैसे, चीन के साथ मेरी पूरी सहानुभूति रही है। आपको याद होगा कि सन् 1938 में मेरे ही उद्देश्यों से चीन की सहायता के लिए एक चिकित्सा दल भेजा गया था। आप खुद जानते हैं, मैं झूठे वादों पर विश्वास करना ही नहीं जानता। मैं जापान की मदद लेनेवाला आखिर व्यक्ति होता यदि मैं समझता कि जापान महज झूठे वादे कर रहा है। अगर अपने उद्योग से, आन्दोलन से भारतवासी स्वतन्त्र हो जायें तो मुझसे ज्यादा और कोई प्रसन्न नहीं होगा। अगर अंग्रेज भी आपका प्रस्ताव स्वीकार कर भारत छोड़ दें तो मैं अपना उद्देश्य पूरा समझ लूँगा। मगर न तो यह सम्भव है न मेरी समझ में आता है। एक सशस्त्र हिंसात्मक क्रान्ति की आवश्यकता पड़ेगी। 

इसलिए हम लोगों ने यहाँ आजादी की आखरी लड़ाई की रणभेरी फूँक दी है। आजाद हिन्द फौज के दल आज हिन्दोस्तान की जमीन पर लड़ रहे हैं और मौत को पीछे धकेल कर आगे बढ़ रहे हैं। यह सशस्त्र संग्राम चलता रहेगा। जब तक कि आखिरी अंग्रेज स्वेज शहर के पार नहीं ढकेल दिया जाएगा और वायसराय भवन पर तिरंगा (भारत का झण्डा) नहीं फहराने लगेगा। 

हम सभी हिन्दोस्तानियों के श्रद्धेय बापू! आजादी के इस धर्म-युद्ध में आपको आशीर्वाद देना ही पड़ेगा। इस पवित्र धर्म-युद्ध में हम आपका आशीर्वाद चाहते हैं। आशीर्वाद दीजिए।
- सुभाष।

खुद से बातें करता खोर का नव तोरण मन्दिर

कल, 27 सितम्बर को विश्व पर्यटन दिवस’ था, यह मुझे एक दिन बाद, आज 28 सितम्बर को मालूम हो पाया। यह मालूम होते ही मुझ ‘खोर’ की स्मृति हो आई। 

पुरातत्व मेरा विषय कभी नहीं रहा। लेकिन पुरातात्विक स्थानों पर जाना मुझे अच्छा लगता है। ‘खोर’ भी एक पुरातात्विक स्थल है। ‘खोर’, मध्य प्रदेश के नीमच जिले की जावद तहसील का छोटा सा गाँव है। मेरी बुआजी की एक बेटी, धापू जीजी जावद ही ब्याही थी। वहाँ आना-जाना हुआ करता था। तब हम लोग मनासा से नीमच पहुँच कर, रेल से केशरपुरा रोड़ रेल्वे स्टेशन उतरते थे। वहाँ से जावद जाते थे। केशरपुरा रोड़ का नाम अब नया गाँव रेल्व स्टेशन हो गया है। केशरपुरा रोड़ (याने आज के नया गाँव) से जावद जाते हुए रास्ते में खोर पड़ता है। पिताजी यहाँ के तोरण और नन्दी के बारे में बताया करते थे। पिताजी दो-एक बार हमें खोर ले गए थे तभी यह जगह देखी थी। 

अभी, इसी बरस मार्च में चित्तौड़गढ़ जाना हुआ। मेरी चार भानजियों में सबसे छोटी भानजी  रीती श्रवण वैष्णव के सुसरजी के निधन के प्रसंग पर। लौटते में हम जावद आते हुए आए। जावद में हमें, मेरी दूसरे नम्‍बर की भानजी माया, जमाई  आनन्‍दजी और इनकी बिटिया झुनझुन से मिलना थाा  निम्बाहेड़ा पार करते ही मुझे खोर याद आया और वहाँ रुकना तय किया। निम्बाहेड़ा से खोर पहुँचते-पहुँचते मैंने खोर के बारे में बातें शुरु की तो उत्तमार्द्धजी मुझसे अधिक उत्सुक और बेचैन हो गईं।

खोर में हम लोग कोई पौन घण्टा रुके। देखने के लिए कुल एक स्थान और गिनती के स्मारक। लेकिन पाषाण शिल्पों ने कुछ ऐसे मोहा और टटकाया कि मालूम ही नहीं हुआ कि कब पैंतालीस मिनिट निकल गए। 

उसी समय लिए गए, तोरण और नन्दी के कुछ चित्र यहाँ प्रस्तुत हैं। 

मुझे खोर के बारे में और तोरण-नन्दी के बारे में कोई जानकारी नहीं। वहाँ के परिचय शिलालेख पर जो लिखा, वही मेरी भी जानकारी है। वहाँ पत्थर पर, हिन्दी और अंग्रेजी में उकेरे गए परिचय की इबारत यहाँ जस की तस दे रहा हूँ।

आप जब भी सड़क के रास्ते, नीमच-महू रास्ते से निम्बाहेड़-चित्तौड़गढ़ जाएँ तो खोर अवश्य जाएँ। नीमच से थोड़ा सा रास्ता बदल कर, जावद होते हुए निम्बाहेड़ा जाएँगे तो जावद से कुछ ही किलोमीटर पर खोर आता है।

खोर सर्वथा उपेक्षित, अनदेखा स्थान है। लगता है, सुन्दर आकृतियों और सुन्दर नक्काशी से अंलकृतयह नव तोरण मन्दिर सुनसान वीरान में खड़ा मानो खुद से एकालाप कर रहा है या अपने बारे में बताने के लिए आपकी बाट जोह रहा होा इसका जिक्र भी कहीं नहीं मिलता। इसके बारे में कोई साहित्य भी उपलब्ध नहीं है। छोटा सा गाँव है। यहाँ चाय-पानी की भी व्यवस्था नहीं है। लेकिन आपको किसी सुविधा की आवश्यकता शायद ही पड़े। यहाँ देखने की एक ही जगह है। घूम-फिर कर देखने जैसी कोई बात ही नहीं है। कुछ ही मिनिटों का मामला है। 

उम्मीद है, चित्र आपको निराश नहीं करेंगे। 

सड़क से ऐसा दिखता है नव तोरण मन्दिर



परिचय शिलालेख और इस पर उकेरी गई इबारत
नव-तोरण मन्दिर, खोर
नवतोरण ग्यारहवीं शताब्दी का एक महत्वपूर्ण अवशेष है। यह दो पंक्तियों से व्यवस्थिति दस आलंकारिक महराबों से निर्मित है। इन पंक्तियों में से एक लम्बाई में तथा दूसरी चौड़ाई में है और ये केन्द्र में एक दूसरे को काटती हैं। ये सभा-भवन तथा अर्द्ध मण्डपों में स्तम्भ-युग्मों पर आश्रित हैं। यह मन्दिर पत्राकृति सीमान्त, मकरमुख तथा मालाधारी आदि अलंकरणों से सज्जित है। 
NAVA-TORAN TEMPLE AT KHOR
NAV-TORAN IS AN IMPORTANT REMNANT OF THE ELEVENTH CENTURY. IT CONSISTS OF TEN DECORATIVE ARCHES ARRANGED UN TWO ROWS, ONE LENGTH-WISE AND THE OTHER WIDTHWISE. CROSSING EACH OTHER AT THE CENTRE AND SUPPORTED ON A PAIR OF PILLARS IN THE HALL AND PORCHES. THE TEMPLE IS DECORATED WITH LEAF-SHAPED BORDERS, HEADS OF MAKARAS, GARLAND AND BEARERS ETC.





तोरण द्वारों के कुछ चित्र













नक्काशी से अलंकृत नन्दी








तोरण द्वारों के खम्भों पर उकेरी गई कुछ आकृतियाँ 


















हमारी हिन्दी: हम केवल चिन्ता करते हैं

हिन्दी दिवस पर मुख्य अतिथि बनने के, दो संस्थाओं के न्यौतों को अस्वीकार कर दिया। अब जी ही नहीं करता ऐसे आयोजनों में जाने का। सब कुछ खानापूर्ति, औपचारिकता, नकली, बनावटी लगता है। ऐसे आयोजनों में शामिल लोगों की हँसी और हिन्दी की दुर्दशा पर उनका विलाप-प्रलाप भी नकली, खुद से बोला जा रहा झूठ लगता है। हर कोई हिन्दी की दुर्दशा के प्रति क्षोभ और आक्रोश तो जताता है लेकिन जब खुद कुछ करने की बात आती है तो मानो लकवा मार जाता है।

अपने छुट-पुट शारीरिक कष्टों से मुक्ति पाने के लिए भाई ओम चौरसिया के योग केन्द्र का लगभग नियमित लाभार्थी हूँ। जिस खेप में मैं जाता हूँ उसमें आठ-दस लोग हैं। तीन दिन पहले एक ने कहा - “हिन्दी की तो ऐसी-तैसी करके रख दी है लोगों ने। एक ने अपने मकान का नाम ‘माँ की दूआ’ लिखा है। उसे ‘दुआ’ और ‘दूआ’ का फर्क ही नहीं मालूम।” सब खुल कर हँसे। मैं चुप था। एक ने मुझे उकसाया - ‘कमाल है! आपने कुछ नहीं कहा! आपको तो सबसे पहले बोलना था।’ मैंने उसी से पूछा - ‘आपने अपने मकान पर नाम लिखवा रखा है?’ जवाब हाँ में आया। मैंने पूछा - ‘हिन्दी में लिखवाया है?’ कोई जवाब नहीं आया। मैंने कहा - ‘कोई बात नहीं। अब उसे हिन्दी में लिखवा लीजिए।’ तुरन्त जवाब आया - ‘ऐसे कैसे लिखवा लूँ? सीमेण्ट से लिखवा रखा है! हिन्दी में लिखवाने पर तो दो-चार हजार का फटका लग जाएगा।’ मैं चुप रहा। बाकी सब भी चुप रहे। शायद सबने ऐसा ही कुछ कर रखा होगा। मैंने पूछा - ‘चलो! कोई बात नहीं। लेकिन आप दस्तखत हिन्दी में करते हो?’ जवाब, झेंप भरे ‘नहीं’ में आया। मैंने कहा - ‘हिन्दी में दस्तखत करने में तो एक पैसे का भी फटका नहीं लगेगा। आप हिन्दी में दस्तखत करना शुरु कर दीजिए।’ इस बार अधिक झेंप भरा जवाब आया - ‘बहुत मुश्किल है। उसकी तो आदत ही नहीं।’ 

कभी किसी बोली के तो कभी किसी भाषा के विलुप्त होने की जानकारी आए दिनों विभिन्न स्तर के सर्वेक्षण देते हैं। पहले मुझे ये सच नहीं लगते थे। लेकिन अचानक ही अपने आसपास नजर गई तो इन सूचनाओं पर विश्वास करना पड़ा। मैं तीन परिवारों से चार बोलियों को लुप्त होते देख रहा हूँ। दो परिवार तो मेरे बेटों के ही हैं। बड़े बेटे का सुसराल निमाड़ अंचल में है। यह दम्पति अब न तो मालवी में बात करता है न ही निमाड़ी में। हिन्दी में ही बतियाता है। इनका बेटा (हमारा पोता) कभी निमाड़ी और/या मालवी बोली के बारे में शायद ही जान पाए। स्कूल में वह अंग्रेजी वातावरण में ही रहता है। इस परिवार से दो समृद्ध बोलियाँ बिदा हो रही हैं।

दूसरा परिवार मेरे छोटे बेटे के ससुराल का है। समधी दिनेशजी चौरसिया बृज पृष्ठभूमि के हैं और समधन रीनाजी पंजाबी पृष्ठभूमि की। इनकी बहू आरती मालवी पृष्ठभूमि की। कहने को यह परिवार तीन-तीन बोलियों से जुड़ा है लेकिन पूरा परिवार हिन्दी में ही संवाद करता है। इस परिवार में न तो बृज बोली जाती है, न पंजाबी न ही मालवी। 

तीसरा परिवार मेरे छोटे बेटे का है। वह मालवी पृष्ठभूमि का है। बहू नन्दनी (चौरसिया परिवार की बेटी) की अपनी कोई बोली नहीं रही। यह दम्पति भी हिन्दी में बात करता है। हम जब भी इनके पास जाते हैं तो नन्दनी, विस्फारित नेत्रों से हम पति-पत्नी को मालवी में बात करते देखती है। इन तीनों परिवारों की पृष्ठभूमि में सम्पन्न बोलियाँ हैं लेकिन अब एक भी बोली इन परिवारों नहीं रही। 

मैं यथा सम्भव मालवी में ही बात करने की कोशिश करता हूँ। मालवी में बात शुरु करते ही सामनेवाला ‘सहज’ से आगे बढ़कर ‘आत्मीय’ हो जाता है। आत्मीयता के साथ-साथ मिठास अपने आप चली आती है। रतलाम में तो मुझे हर बार मालवी में ही जवाब मिलता है लेकिन रतलाम से बाहर (मालवा में ही) ऐसा नहीं होता। इन्दौर में मेरा डेरा, बंगाली चौराहे के पास, सर्व सुविधा नगर में रहता है जबकि मेरे मिलनेवाले राजवाड़ा से आगे के इलाकों में। मुझे सिटी बस में यात्रा करना अच्छा लगता है। कनाड़िया सड़क से महू नाका और फिर उससे आगे वैशाली नगर तक मैं एक लघु भारत के साथ यात्रा कर लेता हूँ। मालवी तो बनी ही रहती है, भोजपुरी, अवधि, बुन्देली, पूरबी, मराठी, गुजराती भी खूब सुनने को मिलती है। कभी-कभार हिम्मत करके मैं बीच में, मालवी में ही कूद पड़ता हूँ। अपनी-अपनी बोली में बतिया रहे गैर मालवी लोग स्वाभाविक ही मुझे हिन्दी में जवाब देते हैं। लेकिन मालवी में बतिया रहे लोग भी हिन्दी में जवाब देते हैं। मेरी मन्दसौरी-रतलामी मालवी और इन्दौरी मालवी में उन्नीस-बीस का अन्तर है। इस उम्मीद में कि मुझे मालवी में जवाब मिलेगा, मैं बिना बात के बात बढ़ाने की कोशिश करता हूँ। लेकिन जवाब हिन्दी में ही आता है। हिन्दी भी अंग्रेजी चाशनी से लिपटी। 

बंगाली चौराहे का और तिलक नगर का सब्जी बाजार भी लघु भारत अनुभव होता है। वहाँ मालवी में भाव-ताव करता हूँ तो पहली बार तो हिन्दी में ही जवाब मिलता है। दूसरी बार में मालवी आ जाती है। लेकिन इन बाजारों में मालवी बोलनेवाले दुकानदार धीरे-धीरे कम हो रहे हैं। लेकिन शास्त्री पुल पार करते ही बोलियों की विविधता छँट जाती है और मालवी सवाल का जवाब हर बार मालवी में ही मिलता है। यह दशा ठेठ वैशाली नगर तक बनी रहती है।

लेकिन व्यापारिक सन्दर्भों में ऐसा बिलकुल ही नहीं है। वहाँ अंग्रेजी ही अंग्रेजी है। दुकानों के नाम या उनके कागज-पत्तर, सब अंग्रेजी में। एक दुकान पर बड़ा मजा आया। दुकान का साइन बोर्ड अंग्रेजी की चौथी बारहखड़ीवाली लिपि में था। कलाकार ने मानो अपनी समूची प्रतिभा झोंक दी थी। संयोग से मुझे उसी दुकान में जाना पड़ा। दुकान के नाम और भीतरी व्यवस्था में बड़ा विरोधाभास था। दुकान में नजर आ रहे धार्मिक चित्र/प्रतीक, दुकान के नाम से कहीं भी मेल नहीं खा रहे थे। मैंने पूछा - “यह क्या? दुकान पर नाम तो ‘बाबूअली’ लिखवाया है और मूर्ति भगवान महावीर की!” दुकानदार चौंका। उसने बाहर आकर, दुकान से दूर जाकर, साइन बोर्ड पढ़ा। लौट कर तनिक चिन्ता से बोला - “आप ठीक कह रहे हो। मैंने लिखवाया तो ‘बाहुबली’ था। लेकिन आपने कहा तो मुझे भी ‘बाबूअली’ ही नजर आया। आज ही दुरुस्त करवाता हूँ।” मैंने कहा - ‘दुरुस्त करवा ही रहे हैं तो हिन्दी में लिखवा लेना। तब लोग गलत नहीं पढ़ेंगे।’ दुकानदार ने विनम्रता से धन्यवाद देते हुए कहा - ‘बिलकुल। अब हिन्दी में ही लिखवाऊँगा।’ इस घटना के अपने-अपने भाष्य किए जा सकते हैं। अपनी भाषा की उपेक्षा के खतरे असीमित होते हैं।

हिन्दी आज वहीं है जहाँ हम उसे ले आए हैं। हम इसकी दुर्दशा से दुःखी तो होते हैं किन्तु खुद कुछ नहीं करना चाहते। हिन्दी अखबारों ने हिन्दी का सर्वाधिक नुकसान किया है और किए जा रहे हैं। बची-खुची कसर, रोमन में हिन्दी लिखने का चलन पूरी कर रहा है। 

हिन्दी और अपनी बोलियों के प्रति यदि हमारा यही चाल-चलन रहा तो वह दिन दूर नहीं जब हम संकेतों और चिह्नों से ही खुद को व्यक्त करते नजर आएँगे। फेस बुक और वाट्स एप ने यह शुरुआत कर दी है। हमारी पीढ़ियाँ हमारी भाषाओं, बोलियों और लिपियों को संग्रहालयों में देखने-सुनने जाया करेंगी।

संस्कार, वे चाहे भाषायी हों या सांस्कृतिक, सदैव घर से शुरु होते हैं और उनका सार्वजनिक आचरण ही उन्हें पुष्ट, दृढ़ और हमारी पहचान बनाता है।
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दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल, 13 सितम्बर 2018

नोटबन्दी: इसमें देश कहीं नहीं था

नोटबन्दी की विफलता का बचाव करते हुए वित्त मन्त्री अरुण जेटली सच ही कह रहे थे कि नोटबन्दी का मकसद यह देखना नहीं था कि बन्द किए गए नोटों में से कितने नोट वापस आएँगे। यह कहते हुए वे यह भी कह रहे थे कि आठ नवम्बर 2016 की रात को, नोटबन्दी की घोषणा करते हुए प्रधान मन्त्री मोदी झूठ बोले थे कि नोटबन्दी का लक्ष्य  आतंकवाद, नकली मुद्रा, काले धन और भ्रष्टाचार से मुक्ति पाना था। आँकड़े और जमीनी वास्तविकताएँ बता रही हैं कि जेटली ही सच्चे हैं, प्रधान मन्त्री नहीं। नोटबन्दी का लक्ष्य देश की बेहतरी नहीं था।

तब, क्या था नोटबन्दी का लक्ष्य?

वही, जो मेरे एक सीए मित्र ने मुझे, नोटबन्दी की घोषणा के अगले दिन, नौ नवम्बर को बताया था। 

सरकारों की आर्थिक नीतियों/निर्णयों का राजनीतिक भाष्य करने के शौकीन इन सीए मित्र ने कहा था ‘यह नोटबन्दी राजनीति है बैरागीजी! जोरदार राजनीति। मुद्दा यूपी का चुनाव है। यूपी में सपा, बसपा, काँग्रेस सबकी खाट खड़ी हो गई है। भाजपा सबका सूपड़ा साफ कर देगी।’ मुझे बात न तो समझ पड़ी थी न ही इसे राजनीतिक कदम मानने को तैयार हुआ था। मेरा विश्वास रहा है कि राजनीतिज्ञ कितना ही टुच्चा, घटिया, झूठा, दम्भी हो, पार्टी या राजनीति के लिए देश को तो दाँव पर कभी नहीं लगाएगा। नोटबन्दी के बाद फैली अफरा-तफरी, अपना ही पैसा पाने के लिए तड़पते, तरसते, करुण क्रन्दन करते, अपनी बेटियों के हाथ पीले करने के लिए पाई-पाई को मोहताज हो गए, पैसों के अभाव में ईलाज हासिल न करने से मर गए लोगों को, बैंकों के सामने लाइन में लगे मरते लोगों को देख-देख कर, उनके बारे में सुन-सुन कर, पढ़-पढ़ कर भी मैं नोटबन्दी को राजनीतिक फैसला मानने को कभी तैयार नहीं हुआ। फिर, ‘संघ’ और भाजपा तो ‘दल से पहले देश’ की दुहाई देते हैं! ये भला अपने राजनीतिक लाभ के लिए देश को दाँव पर कैसे लगा सकते हैं?

लेकिन धीरे-धीरे सामने आई, आती रही वास्तविकताओं से मोह भंग होने लगा। सरकार द्वारा जारी किए गए, दो हजार के जाली नोट तो नोटबन्दी की अवधि में ही काश्मीर में आतंकियों से बरामद हो गए। आठ नवम्बर को नोटबन्दी की घोषणा हुई और नवम्बर समाप्त होते-होते ही 155 बड़ी आतंकी घटनाएँ हो गईं। 2017 में ये बढ़कर 184 हो गईं और 31 जुलाई 2018 तक 191 घटनाएँ हो गईं। आतंकियों के हाथों हमारे जवानों का मरना जारी रहा।

भ्रष्टाचार के मामले में हमारी दशा तो बद से बदतर हो गई। ट्रांसपरेंसी इण्टरनेशनल की रिपोर्ट के मुताबिक, भ्रष्टाचार के मामले में, 2017 में दुनिया के 175 देशों में हमारा स्थान 79वाँ था जो 2018 में 81वाँ हो गया। 

जाली नोटों के मामले में, आतंकवादी हमें असफल साबित कर ही चुके थे। देश में भी ‘कलाकारों’ ने हमें धूल चटा दी। सरकारी रिपोर्टों के अनुसार 2016-17 में देश में 2000 के 638 नकली नोट बरामद हुए थे। 2017-18 में यह संख्या बढ़कर 17,929 हो गई। 

काले धन के मामले में तो न केवल सरकार की बल्कि हमारे देश की, अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर जोरदार किरकिरी हो गई। बन्द किए नोटों के मूल्य के 99.3 प्रतिशत नोट वापस आ गए! सरकारी आँकड़ों के मुताबिक केवल 10,270 हजार करोड़ रुपये ही वापस नहीं आए। लेकिन इस रकम को भी पूरी तरह काला धन नहीं कह पा रहे क्योंकि नेपाल-भूटान में अभी भी हमारे पुराने नोट चल रहे हैं। नौ दिसम्बर 2016 को सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को अपना अनुमान बताया था कि नोटबन्दी से तीन से चार लाख करोड़ रुपयों के नोट वापस नहीं आएँगे। अब जेटली कह रहे हैं कि नोटबन्दी का लक्ष्य यह देखना नहीं था कि कितने नोट वापस आएँगे। सच यही है। नोटबन्दी का लक्ष्य यह नहीं था।

वापस आए नोटों की संख्या का समाचार 30 अगस्त को सामने आया तो मेरे ज्ञान-चक्षु खुले। मैंने उन सीए मित्र को फोन लगाया। वे बाहर थे। मैंने पूछा - ‘आपने कैसे कहा था कि नोटबन्दी का मुद्दा यूपी चुनाव हैं?’ वे बोले - ‘मुझे पता था, आप फोन करोगे ही करोगे। अभी बाहर हूँ। सोमवार रात को आऊँगा। मंगलवार को बात करेंगे।’

बड़ी ही आकुलता में बीते मेरे ये पाँच दिन। मंगलवार (4 सितम्बर) की सुबह, उन्हें फोन किए बिना ही उनके यहाँ पहुँच गया। वे उठे-उठे ही थे। खुलकर हँसते हुए अगवानी की। मुझसे रहा नहीं जा रहा था। बैठते-बैठते ही पूछताछ शुरु कर दी। और जोर से हँसते हुए बोले - ‘अरे! इतनी भी क्या जल्दी? इस उमर में ऐसी बेकरारी शोभा नहीं देती। सब बताता हूँ। बैठिए तो सही!’ 

उनके मुताबिक राजनीति उनका विषय नहीं है न ही इसमें उन्हें दिलचस्पी है। सीए होने के कारण सरकार की आर्थिक नीतियों/निर्णयों पर उनकी नजर रहती है। इसीलिए इन नीतियों/निर्णयों के राजनीतिक प्रभावों का अनुमान लगाने की कोशिश करते हैं। नोटबन्दी के राजनीतिक आयाम भी इसी तरह देखने की कोशिश की थी। नोटबन्दी की घोषणा के ‘टाइमिंग’ से उन्होंने अनुमान लगाया और यह मात्र संयोग ही रहा कि कड़ियाँ एक के बाद एक, कुछ ऐसी जुड़ती गईं कि उनका अनुमान  सही निकला।

उन्होंने सविस्तार पूरी कहानी सुनाई। मौजूदा सरकार में अब सीबीआई इकलौता तोता नहीं रह गया। संवैधानिक संस्थाएँ एक के बाद एक ‘तोता-दशा’ प्राप्त करती जा रही हैं। सो, यूपी के चुनावों का पूरा खाका सरकार के पास था ही। आठ नवम्‍बर की रात को नोटबन्दी की घोषणा के कारण जेब में पड़ा पैसा अप्रभावी-अनुपयोगी हो गया। बैंकों से लेन-देन की सीमा लगा दी गई। 27 दिसम्बर को, बसपा के पार्टी फण्ड में जमा 104 करोड़ रुपयों की जाँच शुरु कर दी गई। 17 जनवरी को यूपी विधान सभा चुनाव घोषित हो गए। मँहगी रैलियाँ हों या साधन-संसाधन, हर मामले में भाजपा ही भाजपा थी। भाजपा के 30 से अधिक हेलिकाफ्टर उड़ रहे थे। बाकी पार्टियों के पास 10 भी नहीं थे। ‘आपको याद होगा, तब अखबारों में भाजपा कार्यकर्ताओं के लिए खरीदी गई, पार्टी के रंग और चुनाव चिह्नवाली सैंकड़ों मोटर सायकिलों के फोटू छपे थे। ये सब नोटबन्दी से पहले ही खरीद ली गईं थीं।’ 12 मार्च को यूपी विधान सभा चुनाव परिणाम आए। भाजपा ने सबका सूपड़ा साफ कर दिया। इसके ठीक अगले ही दिन, 13 मार्च को चुनाव आयोग ने घोषणा की कि बसपा के पार्टी फण्ड के 104 करोड़ रुपयों के मामले में कोई गड़बड़ी नहीं पाई गई। और इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह कि 13 मार्च को,  यूपी विधान सभा चुनाव परिणाम घोषित होने के अगले ही दिन, रिजर्व बैंक ने बैंकों से रकम निकासी सीमा पर लगाया प्रतिबन्ध हटा लिया।
उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनावों के दौरान भाजपा कार्यकर्ताओं के लिए खरीदी गई मोटर सायकिलों 
का ऐसा ही चित्र उन दिनों अखबारों में छपा था।  यह चित्र फेस बुक से 05 सितम्बर को लिया गया है।  


सीए मित्र की बातें सुनते-सुनते मुझे भी कुछ बातें याद आने लगीं। नोटबन्दी के बाद दिल्ली के मुख्य मन्त्री अरविन्द केजरीवाल ने एक चैनल पर बैंकों के आँकड़े दिए थे जिनके मुताबिक 2016 की, जुलाई-सितम्‍बर वाली दूसरी तिमाही में बैंकों में जमा धन, पूर्व वर्षों की इसी  समयावधि के मुकाबले कई गुना अधिक था। केजरीवाल का दावा था कि नोटबन्दी की पूर्व सूचना मिलने के बाद भाजपा ने ही यह धन जमा कराया था। यह भी याद आया कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की अध्यक्षतावाले सहकारी बैंक में बहुत बड़ी संख्या में (सम्भवतः भारत के किसी भी सहकारी बैंक में सबसे ज्यादा) पुराने नोट जमा किए गए थे। यह भी याद आया कि स्विस बैंकों में भारतीयों के जमा धन में 50 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। यह याद आते-आते जेटली का वह वक्तव्य भी याद आया जिसमें उन्होंने कहा था कि स्विस बैंकों में भारतीयों का जमा धन सारा का सारा काला धन नहीं कहा जा सकता।     

पूरी कहानी सुनते-सुनते मुझे, अपने स्कूली दिनों में पढ़े हुए, कर्नल रंजीत के जासूसी उपन्यास याद आ गए। जिसे सारा देश राष्ट्र सेवा मान रहा था, अपना ही पैसा पाने के लिए, लाइनों में लगे, एड़ियाँ रगड़ते-रगड़ते मर गए लोगों के परिजनों को सीमा पर शहीद हुए जवान याद दिलाए जा रहे थे, वह सब झूठ, छलावा था! इस सबमें देश कहीं नहीं था! देश के लिए राजनीति थी या राजनीति के लिए देश को काम में ले लिया गया! 

मैं आर्थिक मामलों का जानकार नहीं। लेकिन नोटबन्दी की विभीषिका एक सच है। उस पर, ‘कर्नल रंजीत’ की तरह मेरे इन सीए मित्र का दिया यह ब्यौरा! जहाँ चश्मदीद गवाह न हों, दस्तावेजी सबूत न हों, वहाँ परिस्थितिजन्य साक्ष्य बोलते हैं। 

तो क्या ‘दल से पहले देश’ वाला मुहावरा उलट दिया गया था? जेटली यही तो नहीं कह रहे थे?
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दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल, 06 सितम्बर 2018



पुलिसवाले तो पैसे लेते हैं सर! देते नहीं

लोकोक्तियाँ एक दिन में नहीं बनतीं। पीढ़ियों के अनुभवों
का निचोड़ होती हैं लोकोक्तियाँ। प्रत्येक लोकोक्ति के
अपवाद जरूर मिल जाएँगे लेकिन इस बात का क्या कीजिए कि अपवाद सदैव सामान्य नियमों की ही पुष्टि करते हैं। ऐसी ही एक लोकोक्ति है - ‘पुलिस वालों की न दोस्ती अच्छी न दुश्मनी।’ सारी दुनिया की छोड़ दीजिए, अनेक पुलिसवालों को यह लोकोक्ति उच्चारते हम सबने सुना होगा - कभी परिहास में तो कभी चेतावनी की तरह। लेकिन सबके अपने-अपने अनुभव होते हैं। पुलिसवालों को लेकर मेरे भी अनेक अनुभव हैं। लोकानुभवों पर सवाल उठाए बिना कह पा रहा हूँ, मेरे ये सतरंगी अनुभव सुखद अधिक रहे हैं। दुःखद अनुभव अपवाद ही रहे।

हम बीमा एजेण्टों को कभी-कभार दफ्तर की प्रक्रियाओं के जुर्माने भुगतने पड़ते हैं। कभी हँस कर तो कभी दुःखी होकर हम लोग ये जुर्माने कबूल कर लेते हैं। लेकिन कभी-कभी स्थिति होती है कि जुर्माना हमारी सामान्य सामर्थ्य से बाहर हो जाता है। तब प्रक्रिया में चूक करनेवाले कर्मचारी पर बन आती है और जुर्माना उसे चुकाना पड़ता है। लेकिन तब ऐसी स्थिति में  एजेण्ट प्रायः ही स्वैच्छिक स्तर, प्रसन्नतापूर्वक उस कर्मचारी के जुर्माने में आंशिक भागीदारी कर लेता है।

जुर्माने की यह स्थिति तब बनती है जब दफ्तर की किसी चूक के कारण किसी पालिसीधारक को अधिक भुगतान कर दिया जाता है। विशेषतः पॉलिसी के अन्तिम/परिक्वता भुगतान के समय। यह जानकारी ऑडिट के समय सामने आती है। ऑडिट पार्टियाँ चार-पाँच दिनों के लिए आती हैं। ऑडिट चलने के दौरान ही ये गलतियाँ मालूम हो जाती हैं। यदि ये गलतियाँ ऑडिट रिपोर्ट में शामिल हो जाएँ तो दफ्तर की ‘रेटिंग’ बिगड़ जाती है। इसलिए दफ्तर की कोशिश होती है कि ऑडिट रिपोर्ट बनने से पहले, अधिक भुगतान की गई ऐसी रकम जमा करा दी जाए। चूँकि पॉलिसी पूरी हो चुकी होती है इसलिए अपना भुगतान मिलने के बाद ग्राहक द्वारा अपनी ओर से, दफ्तर से सम्पर्क करने की सम्भावनाएँ पूरी तरह समाप्त हो जाती हैं। कानूनी प्रक्रिया तो यह है कि दफ्तर उस ग्राहक को पत्र लिख कर अधिक भुगतान की गई रकम वापस जमा करने के लिए कहे। लेकिन  पत्र लिखने में ही इतना समय लग जाता है कि ऑडिट पार्टी के लौटने का दिन आ जाता है। तब, सम्बन्धित एजेण्ट से मदद का ‘आग्रह’ किया जाता हैै। हमारे काम की प्रकृति ही ऐसी है कि हम एजेण्टों को कुछ न कुछ ‘पाप’ करने ही पड़ते हैं। कुछ तो ऐसे ‘पापों’ का अपराध बोध और कुछ यह कि दफ्तर से काम तो रोज-रोज पड़ता है। थोड़ी राहत यह कि यह रकम सामान्यतः एजेण्ट की ‘सहन शक्ति की सीमा’ में होती है। सो एजेण्ट प्रायः ही अपनी जेब से यह रकम जमा कर देते हैं और ऑडिट रिपोर्ट में दफ्तर की रेटिंग बिगड़ने से जाती है।

ऐसा ही एक मामला मेरे ग्राहक का सामने आया। लेकिन रकम थी - पूरे साढ़े सात हजार रुपये। मेरी भी सहन शक्ति से बाहर और बाबू की सहन शक्ति से भी। लेकिन, रकम जमा करने के लिए मुझसे कहे कैसे? एक तो मैं मेरी शाखा का सबसे पुराना एजेण्ट। दूसरा सबसे बूढ़ा एजेण्ट भी। तीसरा, मेरा ‘पत्थर मार’ स्वभाव। चौथा और सबसे बड़ा कारण - मैं रतलाम से बाहर और मेरी वापसी, ऑडिट पार्टी की वापसी के बाद। तनिक हिम्मत जुटाकर, बहुत ही हिचकिचाते हुए सम्बन्धित कर्मचारी ने मुझे फोन किया। रकम सुनकर मैंने अविलम्ब इंकार कर दिया। मेरी ओर से मामला खत्म हो गया।

लौटा तो मालूम हुआ कि यह वसूली ऑडिट रिपोर्ट में शामिल कर ली गई थी। सम्बन्धित कर्मचारी से मिला तो वह दोहरा घबराया हुआ। केवल रकम के आँकड़े से ही नहीं, ग्राहक के कारण भी। ग्राहक, एक सेवा निवृत्त पुलिस उप अधीक्षक। एक तो पुलिसवाला, ऊपर से डिप्टी एसपी! कर्मचारी ने जुर्माने को अपनी नियती मान लिया। 

लेकिन तभी सहा. प्रशासकीय अधिकारी ने दखल दिया। उन्हें लगा कि रकम तय करने में ऑडिटर ने चूक की है। उनके हिसाब से यह रकम ढाई हजार होनी थी। उन्होंने अपने हिसाब से गणना के ब्यौरे ऑडिट विभाग को भेजे। विभाग ने अपनी चूक मानी और वसूली साढ़े सात हजार से ढाई हजार पर आ गई। हम सबकी सहानुभूति कर्मचारी के साथ थी। उसने घपला तो किया नहीं था! मैंने ग्राहक का नाम पूछा। (तब तक मुझे केवल रकम बताई गई थी, ग्राहक का नाम नहीं।) नाम सुनकर मैं बल्लियों उछल पड़ा। वे मेरे अच्छे मित्र निकले। मैं उन्हें तब से जानता हूँ जब वे उप निरीक्षक (सब इंस्पेक्टर) थे। नाम है - श्री ए. पी. तोमर। रेकार्ड में श्री अनंग पाल सिंह तोमर और दुनियादारी में श्री आनन्द पाल सिंह तोमर। वे खण्डवा में हैं। बहुत ही शानदार आदमी। उनसे बात किए बिना ही मैंने सबको भरोसा दिला दिया कि वे रकम लौटा देंगे। कर्मचारियों ने अविश्वास और हैरत से कहा - ‘लौटा देंगे! आप कैसे कह रहे हैं? आपने बात कर ली उनसे?’ मैंने बताया कि वे ऐसे आदमी हैं जिनसे बात किए बिना ही उनकी ओर से वादा किया जा सकता है। और अधिक अविश्वास और अचरज से मित्रों ने पूछा - ‘क्या बात कर रहे हैं आप? वो पुलिसवाले हैं! पुलिसवाले तो पैसे लेते हैं सर! देते नहीं।’ मैंने हँस कर, उसी बेफिक्री से कहा - ‘आप सच कह रहे हैं। लेकिन मैं भी सच कह रहा हूँ। तोमर सा‘ब मेरे कहते ही पैसे लौटा देंगे।’ सुनकर सब खुश तो हुए लेकिन विश्वास किसी को नहीं हुआ। मानो चुनौती दे रहे हों, कुछ इस तरह बोले - ‘देखते हैं सर!’

मैंने उसी क्षण तोमर सा‘ब को फोन लगाया। पूरी बात बताई और कहा - ‘एलआईसी ऑफ इडिया के नाम पर ढाई हजार का चेक भिजवा दीजिए।’ तोमर सा‘ब ने जवाब दिया - ‘मैं ब्लेंक चेक भेज रहा हूँ। रकम आप भर लेना और मुझे फोन पर बता देना।’ मैंने पूछा - ‘चेक कब तक भेज देंगे?’ उधर से जवाब आया - ‘अब आज तो नहीं भेज पाऊँगा। लेकिन कल पक्का भेज दूँगा। स्पीड पोस्ट से। भेजने का काम मेरा। आप तक पहुँचाने का काम पोस्ट ऑफिस का।’ धन्यवाद देकर मैंने फोन बन्द कर दिया। मुझे घेरे हुए कर्मचारी मित्रों ने अविश्वास से पूरा संवाद सुना।

डाक वितरण व्यवस्था की मौजूदा दशा के आधार पर मेरा अनुमान था कि चेक आने में सात दिन तो लग ही जाएँगे। लेकिन मेरे अनुमान को ध्वस्त करते हुए डाक विभाग ने चौथे ही दिन चेक पहुँचा दिया। चेक लेकर मैं दफ्तर पहुँचा तो सबने उस चेक को हाथ में ले-ले कर दुनिया के आठवें अजूबे की तरह देखा।

सम्बन्धित कर्मचारी गद्गद और विह्वल था। वह मुझे बार-बार धन्यवाद दिए जा रहा था। मैंने रोका और पूछा - ‘अब बोलो! क्या राय है? पुलिसवाले पैसे देते हैं कि नहीं?’ उसने छूटते ही, बिना विचारे (विदाउट थॉट) मासूमियत से जवाब दिया - ‘सर! वो आपको देते हैं। सबको नहीं।’

यह जवाब, लाजवाब था। जोर का ठहाका लगा। सब इस ठहाके में शरीक थे। मैं भी।
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खुद पर हँसने का हासिल

दो दिन मैं खूब हँसा। किसी और पर नहीं, खुद पर ही।  लेकिन खुल कर नहीं। कुछ इस तरह कि हँसी दिखाई भले ही दे लेकिन सुनाए किसी को नहीं।

केमरा मुझे बचपन से ही अपनी गिरफ्त में लिए हुए है। छुपाए जाने वाले इश्क की तरह। कभी धन की कमी तो कभी वक्त की। यूँ तो जिन्दगी आसान ही बनी रही किन्तु इतनी भी नहीं कि दुनिया को भूल कर केमरा थाम लूँ। हाँ, लेकिन यह जरूर हुआ और लगातार होता रहा कि जब-जब जिन्दगी ने मौका दिया, केमरे को सहला लिया।

आग्फा क्लिक-III मेरा पहला केमरा था। बड़ी ही मुश्किलों में खरीदा था। लेकिन एक तो उससे जुड़े रीलों, रीलों की धुलाई, फोटुओं की बनवाई के खर्चों ने दिमाग दुरुस्त कर दिया और दूसरे, बाल-बच्चेदार बैरागी को जिन्दगी ने तनिक अधिक व्यस्त कर दिया। 

लेकिन चार बरस पहले अचानक ही केमरा खरीदने की मरोड़ें उठने लगीं। खुद को ही कोई कारण और औचित्य नजर नहीं आ रहा था केमरा खरीदने का। महीनों तक द्वन्द्व चलता रहा। इस बार यह द्वन्द्व बुद्धि और विवेक के बीच नहीं, मन और विवेक के बीच था। बुद्धि जब-जब भी बीच में आई, मन ने झिड़क दिया। विवेक समझाता रहा लेकिन मानना तो दूर, मन तो सुनने को ही तैयार नहीं हुआ। मन इतना बदमाश बना रहा कि किसी और से पूछने, सलाह लेने से भी रोके रखा। कम से कम चार महीनों तक यह बेकली, बेचैनी बनी रही। और अन्ततः, अपनी जेब पर डाका डाल कर निकान डी 5100 केमरा खरीद ही लिया। चैन तो पड़ा लेकिन अचानक ही अपराध बोध भी मन पर हावी हो गया। दशा यह हो गई कि किसी को केमरा बताना/दिखाना तो दूर, किसी को सूचना देने की भी हिम्मत नहीं रही। वैसे भी रतलाम में बात करूँ, रास्ता पूछूँ भी किससे? दुनिया भर में रतलाम का नाम रोशन करनेवाले ख्यात केमरा कलाकार देवेन्द्र भाई शर्मा मुझ पर आदरभरा स्नेह रखते थे। केमरा लेकर, रात के अँधेरे में उनसे मिला। वे बड़े खुश हुए। खूब तारीफ की, हिम्मत बँधाई और प्रेरित किया। कुछ प्रारम्भिक निर्देश दिए। तय हुआ कि अगले रविवार को मुझे उनके पास बैठना है। लेकिन वे भी उलझे रहे और मैं भी। और वह रविवार कभी नहीं आया। अब आएगा भी नहीं।

केमरा, बेग में ही बन्द पड़ा रहा। फरवरी 2016 में अण्डमान गया तो केमरा साथ ले गया। वहाँ ढेर सारे फोटू लिए। परिजनों और कुछ मित्रों को दिखाए। सबने तारीफ ही की। लेकिन मन की झेंप रत्ती भर भी कम नहीं हुई। आत्म विश्वास तो कभी रहा ही नहीं था।

एक दिन अखबार से अचानक ही मालूम हुआ कि रोटरी
क्लब प्राइम के सहयोग से, रतलाम का सृजन केमरा क्लब, 30 अगस्त से 01 सितम्बर के बीच, ख्यात अन्तरराष्ट्रीय केमरा कलाकार श्री चित्रांगद कुमार की तीन दिवसीय फोटो प्रदर्शनी और दो दिवसीय वर्क शॉप आयोजित कर रहा है। समाचार ने मन को उकसाया और मैं अपना केमरा लटका कर पहुँच गया। चित्रांगदजी का भारी-भरकम नाम तो पहले से ही सुना हुआ था, कुछ महीनों पहले जब देवेन्द्र भाई की स्मृति में एक आयोजन हुआ था तब महावीरजी वर्मा ने उनसे परिचय भी कराया था।  

पहली शाम तो प्रदर्शनी के उद्घाटन में ही बीत गई। चित्रांगदजी से औपचारिक बातें हुईं। मैंने वर्क शॉप में शामिल होने की इच्छा जताई। उन्होंने अत्यधिक गर्मजोशी से मुझे सहमति दी। वर्क शॉप का समय बताया अगले दिन दोपहर तीन से पाँच बजे।

तय समय पर मैं पहुँचा। आयोजकों के अलावा लगभग पचास बच्चे जुटे हुए थे। तीस बरस से अधिक उम्र का शायद ही कोई बच्चा रहा होगा। सबने मुझे अजूबे की तरह ही देखा। मेरे हौसले पस्त हो गए। लेकिन मन ही मन हनुमान चालीसा पढ़ता हुआ बना रहा। कुर्सियाँ लगभग सारी भर गई थीं। मैं सबके पीछेवाली कुर्सी पर बैठा। (सबसे आगेवाली कुर्सी मिलती भी तो भी मैं वहाँ बैठने की हिम्मत तो नहीं ही जुटा पाता।) उसके बाद से ही खुद पर हँसने का सिलसिला शुरु हो गया।

चित्रांगदजी ने बात शुरु की तो कुछ ही पलों में सारे बच्चे उनसे जुड़ गए। मेरी स्थिति बड़ी विचित्र थी। एक तो उम्र। दूसरे, मुझे वैसे भी थोड़ा कम सुनाई देता है। तीसरे, सबसे पीछे बैठना। चौथे, तेज गति से चल रहे पंखों से उपज रही सरसराहट का शोर। पाँचवें, सभागार की कम ऊँचाई और खिड़कियाँ कम होने से आवाज का गूँजना। छठवें, चित्रांगदजी का तेजी से बोलना। और इन सबसे आगे बढ़कर, मेरी, विषय की ज्ञान-शून्यता। सारे बच्चे तकनीक और तकनीकी ज्ञान से लैस। उनकी बातें, उनकी शब्दावली मेरे लिए तो ‘काला अक्षर, भैंस बराबर’ थी। पहले ही पल मैं ‘गूँगा-बहरा दर्शक’ की बन कर रह गया। उधर, चित्रांगदजी ने मुझसे कुछ पूछा तो मैंने कानों पर हाथ रखकर इशारा किया - ‘मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा।’ उन्होंने बुला कर अपने पास बैठा लिया। अब मुझे सुनाई तो सब दे रहा था लेकिन ‘केमरा’, ‘लेंस’, ‘आब्जेक्ट’, ‘क्लिक’ जैसे शब्दों के सिवाय कुछ भी समझ नहीं पा रहा था। उम्र के लिहाज से मेरी दशा ‘बछड़ों के बीच बूढ़ा बैल’ और ज्ञान के लिहाज से ‘स्नातक कक्षा में घुस आया पहली का छात्र’ जैसी थी। अपनी यही दशा मुझे खुद पर हँसाए जा रही थी। लेकिन अजीब बात यह रही कि वहाँ से भागने का विचार पल भर भी मन में नहीं आया।

दूसरे, अन्तिम दिन चित्रांगदजी ने अपने खींचे विभिन्न चित्रों के जरिए काफी-कुछ समझाया। एक बच्ची को मॉडल बनाकर प्रकाश व्यवस्था/प्रबन्धन  समझाई। मुझसे भी एक फोटू क्लिक करवाया। लेकिन समझ के मामले में मेरी दशा में कोई अन्तर नहीं आया। मुझे लगा तो बहुत अच्छा लेकिन सूझ-समझ कुछ नहीं पड़ा। मैं वहाँ बराबर बना रहा। मेरी झेंप लगभग समाप्त हो गई - यह सबसे बड़ा हासिल रहा मेरे लिए।

कल शाम, वर्क शॉप से लौटते समय, देवेन्द्र भाई के बेटे हरीश के जरिए चित्रांगदजी को आज सुबह की चाय मेरे साथ पीने के लिए न्यौत कर आया था। हरीश उन्हें तो लाया ही, सृजन केमरा क्लब के संस्थापकों में से एक (और रतलाम के पुराने केमरा कलाकार) श्री कमल उपाध्यायजी को साथ लेकर आया। कोई घण्टा भर हम लोग बैठे। मैंने, अण्डमान में खींचे फोटू उन्हें दिखाए। वे चुपचाप देखते रहे। उनकी चुप्पी मुझे भयभीत बनाए  रही। सूर्योदय श्रृंखला का एक चित्र देखकर जब उन्होंने सहसा ‘वाह!’ कहा तो मेरे रोंगटे खड़े हो गए। मेरा डर एकदम छू हो गया। सारे फोटू दिखाने के बाद मैंने पूछा - ‘मैं आगे बढ़ूँ या केमरे को ताला लगा दूँ?’ उन्होंने कहा - ‘नहीं! नहीं!! आप रुकिए नहीं। आगे बढ़िए। बाहर निकलिए।’ 

उनकी इस बात ने मेरा हौसला और आत्म विश्वास बढ़ाया है। मैं सृजन केमरा क्लब का सदस्य बन रहा हूँ। झेंप तो समाप्त हो ही गई है। आत्म विश्वास भी बढ़ा है। 

दो दिन खुद पर हँसने का यह हासिल बुरा नहीं। 
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वर्क शॉप के कुछ चित्र दे रहा हूँ। इतने चित्र एक साथ देने का मौका पहली बार आया है। इसलिए इन चित्रों का न तो को सिलसिला है न ही सलीका।