एक जरूरी किताब


गोविन्द ने पूछा तो बस यही था - ‘एक किताब दूँ? बुरा तो नहीं मानेगा?’ कोई किताब देने से पहले, ऐसा पूछने का क्या मतलब? फिर , गोविन्द ने जिस तरह से, जिस आवाज और स्वरों में पूछा, उससे तय कर पाना कठिन हुआ कि वह संकोच कर रहा है, डर रहा है या झिझक रहा है? इस उलझन ने मुझे सहज ही ‘जिज्ञासु’ बना दिया। पूछा - ‘ऐसी कौन सी किताब है भई?’ किताबों के ढेर में से एक किताब खींच कर गोविन्द ने मेरे सामने रख दी। किसी दवा कम्पनी के मोटे, चिकने कागज वाले, किसी दवाई के प्रचार पोस्टर से आवरित की गई, मझौले आकार की किताब को मैंने ऐसे थामा मानो या तो कोई बहुत ही घातक प्रभाव करने वाली चीज हो या फिर कोई ऐसी और इतनी नाजुक चीज जो मेरे हलके से हलके स्पर्श से (शायद मेरी साँस के धक्के से ही) टूट कर वह पूर्णतः नष्ट हो जाएगी। मैंने किताब का पन्ना पलटा। किताब का शीर्षक मेरे सामने था - काम की बातें। मुझे गहरी निराशा हुई। कहा - ‘क्या यार! सफलता के सूत्र बताने वाली ऐसी पचासों किताबें फुटपाथ पर मिलती हैं और तू ऐसे दे रहा है मानो कोई अनूठी किताब हो।’ इस बार गोविन्द मुस्कुराया और खुलकर बोला - ‘मैं जानता था तू यही कहेगा। लेकिन इस किताब का ‘काम’ हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी की उठापटक वाला ‘काम-काज’ नहीं, यौन विषय वाला काम है।’ अब चौंकने की बारी मेरी थी। किताब के प्रति मेरी अब तक की भावनाएँ कपूर हो चुकी थीं। इस बार मैंने किताब को अतिरिक्त महत्व और नजरिए से टटोला। सरसरी तौर पर देखने के फौरन बाद कहा - ‘मैं इसे ले जा रहा हूँ। तसल्ली से पढ़ कर लौटाऊँगा।’ गोविन्द को मानो इसी जवाब का आकण्ठ विश्वास था। बोला - ‘मैं जानता था। तसल्ली से पढ़ना। लौटाने की कोई जल्दी नहीं है।’
किताब के बारे में आगे कुछ कहूँ, उससे पहले गोविन्द के बारे में जान लीजिए। गोविन्द मेरा ‘महाविद्यालयपाठी’ है। रामपुरा में हम दोनों साथ-साथ पढ़ते थे। वह विज्ञान का और मैं कला का छात्र था। उसके सामने स्पष्ट उद्देश्य था - डॉक्टर बनना। मेरा कोई लक्ष्य नहीं था। घरवालों ने कहा-पढ़ो। सो मैं पढ़ रहा था। गोविन्द रामपुरा का ही निवासी था। उसे डॉक्टर बनना था। बना। डिग्री हाथ में आते ही नौकरी के लिए हाथ-पाँव मारे। पहला विज्ञापन उत्तर प्रदेश सरकार का सामने आया। आवेदन भेज दिया। नौकरी मिल गई। गोविन्द उत्तरप्रदेश चला गया। इस बीच ‘अध्ययन’ निरन्तर रखा और चर्म तथा यौन रोगों में दक्षता प्राप्त की। सवा चौंतीस वर्षों का सेवाकाल पूरा कर लौटा तो रामपुरा नहीं गया। रतलाम में ही बस गया। उसका पूरा नाम डॉक्टर गोविन्द प्रसाद डबकरा है और वह रतलाम में, परामर्श सेवाएँ उपलब्ध करा रहा है। चार-छः महीनों में मैं उससे मिलने जब भी गया, उसे पहल, तद्भव, हंस जैसी पत्रिकाएँ पढ़ते या फिर ‘लफ्ज’ की वर्ग पहेली भरने के लिए परिश्रम करते पाया। मुझे लगता नहीं कि ऐसा आदमी पैसा कमाने को अपना लक्ष्य बना सकता होगा। उसका मौजूदा ‘चाल चलन’ देख कर मुझे उसके ‘प्राध्यापक’ होने का भ्रम होता है।

अब किताब के बारे में । 267 पृष्ठों वाली, 17 छोटे-छोटे अध्यायों में बँटी यह किताब राजकमल प्रकाशन (1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली-110001) ने प्रकाशित की है और मुम्बई के डॉक्टर प्रकाश कोठारी इसके लेखक हैं। गोविन्द ने मुझे जो प्रति दी, वह इसके प्रथम संस्करण की है जिसका मूल्य 140 रुपये है। किताब की टाइप का आकार सामान्य से तनिक बड़ा है। यदि यह आकार सामान्य होता तो पृष्ठ और कम होते। किताब को मैंने ध्यानपूर्वक पढ़ा और मेरे मन में आई पहली बात थी - ‘काश! यह किताब मुझे मेरे विवाह से पहले मिली होती।’ मेरे इस वाक्य का अर्थ आप अपनी इच्छानुसार निकाल सकते हैं। किन्तु वास्तविक अर्थ तभी अनुभव कर पाएँगे जब आप इस किताब को कम से कम एक बार पढें।

‘यौन’ चूँकि हमारे यहाँ ‘वर्जित’ (या कि अश्लील) विषय मान लिया गया है इसीलिए इसे लेकर असंख्य भ्रान्तियाँ हमारे मन में बनी रहती हैं। चूँकि हम खुलकर इस पर बात नहीं करते, सो नीम हकीमों और ‘सेक्स स्पेशलिस्टों’ के विज्ञापन प्रचुरता से दीवारों पर लिखे और पेशाबघरों में चिपके मिलते हैं। हमारे अज्ञान ने इन दुकानदारों की तथा दुकानों में पहुँचनेवालों की बाढ़ ला रखी है। जिन्‍हें खुद अपनी बीमारियों के बारे में कुछ भी पता नहीं, वे हमारे बच्चों को भयभीत कर, उनके आत्म विश्वास को जड़ों से उखाड़ फेंकने का दुष्कृत्य भी कर लेते हैं। हमारे बच्चे हमसे तो कुछ कहते नहीं किन्तु इन ‘सेक्स स्पेशलिस्टों’ के चक्कर में आकर ऐसी जड़ी-बूटियाँ और दवाइयाँ खा लेते हैं जिनसे उपजी बीमारियों का ईलाज कराना अपने आप में बड़ी समस्या बन जामा है।

जिन बातों को लेकर हमारे युवा ‘जिन्दगी बेकार हो गई’ जैसी बातों से और ‘मैं तो किसी काम का नहीं रहा’ जैसे विकारों से ग्रस्त हो जाते हैं, वे तमाम बातें कितनी छोटी और कितनी सामान्य हैं, यह इस किताब से ही जाना-समझा जा सकता है। हमारे समाज में पौरुष को ‘मर्दानगी’ का पर्याय बना कर, उसके आकलन का एकमात्र आधार व्यक्ति का यौन व्यवहार बना दिया गया है। इसीलिए, स्वप्न-दोष, गुप्तांग का टेड़ापन, हस्त मैथुन जैसी सहज प्राकृतिक बातों का हव्वा बना कर पेश किया जाता है। समुचित जानकारी के अभाव में अनेक युवा हीन भावना से ग्रस्त होकर अकारण ही शर्मिन्दगी अनुभव करने लगते हैं और परिवार से कटने लगते हैं। इस ‘यौन अज्ञान’ के कारण अनेक गृहस्थियाँ टूटी हैं। ऐसे समस्त प्रकरणों के लिए यह पुस्तक असंदिग्ध रूप से ‘रामबाण’ है - यह मैं दावे से कह सकता हूँ।

किताब बहुत ही सरल, सुस्पष्ट और प्रवाहमय भाषा में है। पढ़ते समय प्रति क्षण लगता रहता है मानो जो बात मन में आ रही थी, वही बात सामने आ रही है। बोलचाल की भाषा में छोट-छोटे सवाल और वैसी ही भाषा में, सुस्पष्ट जवाब। जवाबों में कहीं भी क्लिष्टता या ‘डॉक्टरी भाषा’ अनुभव नहीं होती। अनेक चित्रों से बात और अधिक आसानी से समझ में आती है।

गए दिनों, ‘यौन शिक्षा’ को लेकर हमारे यहाँ बहुत बड़ा बवण्डर उठा था और लगा था मानो हमारी संस्कृति पर प्रलय आ गया है। यौन शिक्षा के नाम पर छिटकने वाले तमाम लोगों को यह किताब अवश्य पढ़नी चाहिए। इस विषय को यदि इस किताब की तरह प्रस्तुत किया जाए तो बारहवीं कक्षा के बाद बाद वाली कक्षाओं में यह विषय आसानी से, बहुत ही सहजता/सरलता से पाठ्यक्रम में शामिल किया जा सकता है।

जिन परिवारों में बच्चे विवाह योग्य हो गए हैं या बच्चों के विवाह की बात चल रही है या जहाँ रिश्ता तय होने के बाद विवाह की खरीदारी की जा रही है या जो भी परिवार अपने बच्चों को ‘नीम हकीमों’ और ‘सेक्स स्पेशलिस्टों’ के जाल से बचाकर आत्म विश्वास से भरा वैवाहिक जीवन का आनन्द लेते हुए देखना चाहता है, उस प्रत्येक परिवार में यह किताब होनी ही चाहिए-यह मेरी सुनिश्चित धारणा है। इस किताब से अधिक उपयोगी और सुन्दर और कोई भेंट नहीं होगी-यह आप तभी अनुभव करेंगे जब आप इसे पढ़ लेंगे।

मेरे बड़े बेटे के विवाह का दूसरा वर्ष चल रहा है। उसे भेंट देने के लिए इसकी एक प्रति के लिए मैंने प्रकाशक को पत्र लिख दिया है। उसे यह भेंट देकर मैं अपने आप से प्रसन्नतापूर्वक कहूँगा - बेटे! अत्यधिक विलम्ब से मैं तुम्हें यह भेंट दे पा रहा हूँ। किन्तु प्रसन्नता और सन्तोष यही है। कि इसकी जानकारी मिलते ही मैं अविलम्ब तुम तक इसे पहुँचा रहा हूँ।’
देर आयद, दुरुस्त आयद।
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

9 comments:

  1. बहुत सुंदर जानकारी दी आप ने, धन्यवाद

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  2. बेहतरीन! उम्मीद से भी उम्दा पहल

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  3. ऐसी पुस्तकें भी आवश्यक हैं.

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  4. डॉ. प्रकाश कोठारी को उनकी सेवाओं के चलते पद्म पुरस्कार से भी नवाजा गया है. उनकी एक किताब 'आर्गेज्म - न्यू डायमेंशन्स' भी बढ़िया है.

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  5. सही है। यौन शिक्षा का भार मातापिता को उठाना चाहिए। इस किताब की दूसरी प्रति भी बुक करा लें छोटे बेटे को विवाह के पहले ही उपलब्ध कराने के लिए।

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  6. to mujhe kab gift de rahen hoo...?

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  7. आज जब हमारा युवा वर्ग निसंकोच विवाहपूर्व यौन क्रीड़ा मे लिप्त हो रहा है तो फिर इस बारे मे कुछ सही जानकारी लेने मे इतना संकोच क्यो. क्यो हम यौन को एक वर्जित क्षेत्र मान लेते है जबकि अब ये बिल्कुल भी वर्जित नही रहा है कम से कम सही शिक्षा से हम इसके लिए ग़लत हाथो मे जाने से बचकर जीवन का सही आनंद ले सकते है.

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  8. राजकमल ने छापा है तो सस्तौआ किताब या पल्प लिटरेचर न होगा - यह तो जाहिर ही है!

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  9. इष्ट मित्रों एवम कुटुंब जनों सहित आपको दशहरे की घणी रामराम.

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