यह महज एक कविता के न मिलने का मामला नहीं है। यह उस ‘कुछ’ के न होने की खबर से उपजी उदासी है जिसके लिए पक्का भरोसा था कि ‘वह’ मेरे पुराने बक्से में पड़ी किसी पोटली में बँधी होगी। भरोसा था कि जब जरुरत होगी तो बक्से का ढक्कन उठा कर उसे ऐसे बाहर निकाल लूँगा जैसे आँखें मुँदी होने पर भी कौर मुँह में रख लेता हूँ। लेकिन जरुरत के मौके पर, ‘वह’ नहीं मिली तो भरोसा ऐसे टूटा जैसे लम्बी-ऊँची घास के, सीटियाँ बजाते सुनसान जंगल के बीच, रास्ते से भटका कोई पथिक, दूर से आ रही बंसी की धुन की पगडण्डी पर मंजिल की ओर बढ़ रहा हो और अचानक ही बंसी की आवाज बन्द हो जाए।
साठ के दशक वाले फोटो अलबम इस वक्त बेसाख्ता याद आने लगे हैं। ‘पेपर कार्नर्स’ की सहायता से, काली, ड्राइंग शीट के पन्नों पर फोटो लगाए जाते थे। फोटो रंगीन नहीं होते थे और एलबम का पन्ना तो काला ही होता था। सो, अलग-अलग ढंग से फोटो लगाकर एलबम को आकर्षक बनाया जाता था। किसी पन्ने पर दो तो किसी पर तीन फोटो लगाकर। कभी पास-पास तो कभी तीर्यक रेखा की तरह। फोटो खिंचवाना तब बड़ी और मँहगी घटना होती थी। एलबम सजाने में की गई मेहनत, एलबम को और अधिक कीमती बनाती थी। किसी को देखने के लिए एलबम देते समय खतरे की आशंका से उपजा अविश्वास बना रहता था-कहीं ऐसा न हो कि देखते-देखते एक-दो फोटो ही निकाल ले। और ऐसा प्रायः ही हो जाता। नजर चूकी कि माल यार के कब्जे में हो गया। उसके जाने के बाद, एलबम के किसी पन्ने पर चिपके पेपर कार्नर्स नजर आते, फोटो गायब। तब, पेपर कार्नर्स से घिरी वह ब्लेक स्पेस मानो पूरे एलबम पर छा जाती। उस एक फोटो के चुरा लिए जाने से उपजी खीझ, एलबम में लगे सारे फोटो से उपजे सुख को मात दे देती। वही पराजय भाव इस समय हावी है।
नौंवी कक्षा में होम वर्क मिला था - विभिन्न पेड़/पौधों की पत्तियों का चार्ट बनाने का। पत्तियाँ तोड़ कर, कुछ दिनों के लिए किसी किताब के पन्नों के बीच दबा कर रखनी थीं ताकि वे सूख भी जाएँ और उनका रंग भी जस का तस बना रहे। खेत की मेड़ से पत्तियाँ तोड़ कर घर आने पर देखा तो पत्तियों के बीच एक तितली लिपटी मिली। मर गई थी। चौदह बरस का किशोर मन पाप-बोध से काँप गया था। भगवान माफ नहीं करेंगे। जरूर सजा देंगे। तब पहली बार किसी तितली को छुआ था। वह अहसास-ए-नजाकत अभी भी अंगुलियों के पोरों पर लिपटा हुआ है। पता नहीं क्यों और कैसे, पत्तियों के साथ-साथ उस मरी तितली को भी किताब के पन्नों के बीच दबा दिया था। पत्तियों के सूखने पर, उन्हें ड्राइंग शीट पर चिपका कर, यथासम्भव अधिकाधिक सुन्दर और आकर्षक चार्ट बना कर कक्षा में प्रस्तुत कर दिया था। किन्तु तितली मेरे पास ही रह गई थी-पत्तियों की ही तरह सूखी और पंखों की शोख रंगत के साथ। किताब के पन्ने पलटकर उसे जब-तब, देख-देख कर खुश हो लिया करता था। दोस्तों को भी अपनी तितली बताता, गुरुर से और कुछ इस तरह कि उनमें से कोई उसे छू न ले। लेकिन पता नहीं क्या हुआ कि एक दिन तितली किताब में नहीं मिली। पन्ने पलटे, बार-बार पलटे, किताब को खूब झटका-फटका। किन्तु तितली वहाँ नहीं थी। मानो, उसमें प्राण आ गए हों और उड़ गई। तब कंगाल और बेरंग होने के अहसास ने महीनों तक घेरे रखा। बिलकुल वही अहसास इस समय हो रहा है।
‘उसके’ होने के अहसास भर से न तो बेफिक्री में बढ़ोतरी हो रही थी और न ही समृद्धि में। अब तो वह किसी काम भी नहीं आ रही थी। किन्तु उसके न होने के अहसास ने मानो सब कुछ वीरान कर दिया। जब वह थी तो उसका कोई मोल नहीं था, पूछ-परख नहीं थी। अब वह नहीं है तो लग रहा है मानो कुबेर का खजाना लुट गया है। जगजीतसिंह की गायी गजल का शेर मानो इन्सानी शकल में सामने आ खड़ा हुआ है -
दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है।
मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है।
दिन और तारीख तो याद नहीं, बस यह याद है कि युनूस भाई (अपने रेडियोवाणी वाले युनूस भाई) का सन्देश मिला था - ‘नाग पंचमी’ शीर्षकवाली एक कविता की तलाश है।’ यह कविता मेरे कोर्स में थी। कुछ पंक्तियाँ अभी भी याद हैं-
यह ढोल ढमाका ढम्मक ढम
यह नाग पंचमी छम्मक छम
उतरेंगे आज अखाड़े में
चन्दन चाचा के बाड़े में
यह पहलवान पटियाले का
वह पहलवान अम्बाले का
युनूस भाई के सन्देश ने मन बौरा दिया। मानो ढोल की ‘ढम्मक ढम’ के साथ कविता के बोल कानों में गूँजने लगे। मैंने फौरन ही अपने कई मित्रों को फोन खटखटाया। कुछ सहपाठी थे तो दो मुझसे आगे वाले। अपने दो ‘गुरुजी’ से भी अनुरोध किया। अपने से पीछे वाले दो मित्र इसी शहर में रहते हैं। उन्हें भी कहा। एक स्कूल के प्राचार्य मेरे मित्र हैं। उन्होंने भी भरोसा दिलाया। कुल मिला कर सत्रह लोगों से अनुरोध किया। कोई नौ-दस दिनों के बाद, एक-एक कर सन्देश आने लगे। किसी को भी सफलता नहीं मिली। सोलह लोगों की क्षमा-याचना मिलने पर मैंने भी युनूस भाई से क्षमा माँग ली। उन्होंने बड़प्पन बरतते हुए धन्यवाद दिया और कहा - ‘आपने कोशिश की। यही बहुत है।’
किन्तु एक मित्र की ओर से अब तक कोई खबर नहीं आई थी। मेरे अन्दर का बीमा एजेण्ट मुझे निराश होने से बचाए हुए था। किन्तु कल रात लगभग सवा नौ बजे उसने भी क्षमा माँग ली। नीमच जिले की मनासा तहसील के छोटे से गाँव ‘आँतरी माताजी’ निवासी मेरा यह मित्र राम प्रसाद शर्मा, मेरा सहपाठी है और अभी-अभी ही प्राचार्य के रूप में सेवा निवृत्त हुआ है। किसी अपराधी की तरह उसने कहा - ‘प्रिय मित्र! (हम तमाम मित्रों को वह नाम न लेकर, इसी तरह सम्बोधित करता है) मुझे सफलता नहीं मिली। ‘नागपंचमी’ के लिए मैंने अपने गाँव के और आसपास के तीन गाँवों के स्कूलों में सन्देश दिया कि जो भी यह पूरी कविता ला देगा उसे इक्यावन रुपयों का नगद पुरुस्कार दिया जाएगा। किन्तु मित्र! मेरा दुर्भाग्य है कि यह पुरुस्कार मेरी जेब में ही पड़ा रह गया। किसी को कविता याद नहीं है।’
राम प्रसाद के इसी सन्देश ने मुझे मानो झटका दे दिया। किसी कविता का याद रहना या न रहना, मिलना या न मिलना ऐसा तो नहीं कि जिन्दगी बेकार लगने लगे। किन्तु पता नहीं क्यों मुझे अकुलाहट हो रही है। मुझे अभी भी उस कविता की जरूरत नहीं है और न ही उसके बिना मेरा कोई काम रुका हुआ है। फिर भी मुझे, काली स्पेस को घेरे हुए, एलबम के पन्ने पर चिपके पेपर कार्नर्स बार-बार नजर आ रहे हैं। अपने सोने का खो जाना या/और चलते-रास्ते, किसी अनजान-पराये के सोने का मिलना, दोनों ही मालवा में अपशकुन माने जाते हैं। मेरा सोना खो गया है और मैं अपशकुन से दहशतजदा हूँ।
मुझे क्यों लग रहा है कि मरी हुई तितली अचानक ही उड़ गई है-मेरी जिन्दगी के सारे रंग अपने साथ लेकर?
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ReplyDeleteइस अद्भुत वर्णन में तितली के जिन्दा होकर उड़ जाने को एक नकारात्मक बोध से पेश किया जाना क्या आपके पेशे का प्रभाव है ? वह कविता किसी स्मृति में अवश्य होगी । स्मृति ही उसका बीमा है,मिल जाएगी। तब तितली जी उठेगी।
ReplyDeleteम.प्र. के पढ़े एक मित्र से इसी नौ तारीख को मैं भी पूछूंगा,उसे यह कविता याद है,क्या? वह भी मन्दसौर के रामपुरा का पढ़ा और शायद मनसा गांव से किसी रूप से जुड़ा है ।
तितली कहीं तो होगी. मिल जाएगी!
ReplyDeleteविष्णु जी एक कविता का खो जाना कितना मानीख़ेज़ होता है, आपके इस बेहद मार्मिक विवरण से पुन: अहसास हुआ । कविता मेरे एक पुराने मास्साब से मिल गयी है । जल्दी ही 'तरंग'पर आएगी ।
ReplyDeleteयह पढ़कर ऐसा लगता है कि जिन्दगी के आजतक के स्पेस में एक स्लाइस कम हो गई है। लिखे हुए पन्नों पर समय के छींटे पड़े और कुछ शब्द धुंधला गए हैं। भौंचक हूँ मैं...आज पता चला है कि तितली तो मेरी भी उड़ गई है.............किताब को पलट रहा हूँ बार-बार ...... देख रहा हूँ कि और भी बहुत सी तितलियाँ नहीं हैं वहाँ .... ओह! वे तितलियाँ...
ReplyDeleteपत्तियों के सूखने पर, उन्हें ड्राइंग शीट पर चिपका कर, यथासम्भव अधिकाधिक सुन्दर और आकर्षक चार्ट बना कर कक्षा में प्रस्तुत कर दिया था। किन्तु तितली मेरे पास ही रह गई थी-पत्तियों की ही तरह सूखी और पंखों की शोख रंगत के साथ। किताब के पन्ने पलटकर उसे जब-तब, देख-देख कर खुश हो लिया करता था। दोस्तों को भी अपनी तितली बताता, गुरुर से और कुछ इस तरह कि उनमें से कोई उसे छू न ले। लेकिन पता नहीं क्या हुआ कि एक दिन तितली किताब में नहीं मिली। पन्ने पलटे, बार-बार पलटे, किताब को खूब झटका-फटका। किन्तु तितली वहाँ नहीं थी। मानो, उसमें प्राण आ गए हों और उड़ गई।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर!