आज मेरे भरोसे मत रहिएगा

इकतीस दिसम्बर और पहली जनवरी की सेतु रात्रि के ग्यारह बजने वाले हैं। एक विवाह भोज में शामिल होने के लिए कोई साढ़े आठ बजे घर से निकला ही था कि मोबाइल में, एसएमएस दर्ज होने की ‘टन्-टन्’ होने लगी थी जो भोजन करते समय और जाते-आते रास्ते भर बजती रही। घर आकर देखा - मेसेज बॉक्स छोटा पड़ चुका था और कुछ सन्देशों के हवा में तैरते रहने की सूचना पर्दे पर टँगी हुई थी।

सन्देश पढ़-पढ़ कर ‘डीलिट’ करने लगा तो हवा में तैरते सन्देश एक के बाद एक ऐसे मोबाइल में समाने लगे मानो दिल्ली के चाँदनी चौक मेट्रो रेल्वे स्टेशन पर खड़े लोग डिब्बे में घुस रहे हों। सन्देश पढ़ने और मेसेज बॉक्स खाली करने में भरपूर समय और श्रम लग गया। सन्देश पढ़ते-पढ़ते हँसी आती रही - एक ही सन्देश सात बार पढ़ना पड़ा। भेजनेवाले ने तो ‘अनूठा’ (यूनीक) ही भेजा होगा किन्तु ‘फारवर्डिंग कृपा’ से, पानेवाले तक आते-आते वह ‘औसत’ (कॉमन) बन कर रह गया। पता ही नहीं पड़ता कि तकनीक की विशेषता कब विवश-साधारणता में बदल जाती है!

कुछ सन्देश देखकर उलझन में पड़ गया। ये उन लोगों के थे जो वेलेण्टाइन डे का विरोध करते हैं और नव सम्वत्सर पर्व पर, सूर्योदय से पहले जल स्रोतों पर पहुँचकर, सूर्य को अर्ध्य देकर नव वर्ष का स्वागत खुद करते हैं और एक दिन पहले, कस्बे में ताँगा घुमा कर, लाउडस्पीकर के जरिए लोगों से, ऐसा ही करने का आह्वान करते हैं। भारतीयता और भारतीय संस्कृति की चिन्ता में दुबले होने वाले ऐसे ही दो ‘सपूतों’ ने तो अपने-अपने ‘फार्म हाउस’ पर आज विशेष आयोजन किए हैं। इन्हीं जैसे एक अन्य संस्कृति रक्षक ने अपनी होटल में, नव वर्ष स्वागत हेतु विशेष आयोजन किया है। मैं इन तीनों आयोजनों में निमन्त्रित हूँ। किन्तु मैं नहीं गया।

मैं नहीं मनाता पहली जनवरी को नया साल। इसे नया साल मानता भी नहीं। यह मेरा निजी मामला है और मुझ तक ही सीमित है। ऐसा करने के लिए किसी से आग्रह नहीं करता। मेरे आसपास के अधिकांश लोग मेरी इस मनःस्थिति को भली प्रकार जानते हैं। किन्तु इनमें से अधिकांश मुझे ‘ग्रीट’ करते हैं। मैं सस्मित उन्हें धन्यवाद और शुभ-कामनाएँ देता हूँ। मैं अशिष्ट नहीं होना चाहता।

जान रहा हूँ और भली प्रकार समझ भी रहा हूँ कि अब हमारे जन मानस ने, पहली जनवरी से ही नया साल शुरु होना मान लिया है और चैत्र प्रतिपदा के दिन नव-सम्वत्सर का उत्सव मनाना, यदि आत्म वंचना नहीं है तो इससे कम भी नहीं है। दोहरा जीवन तो हम सब जीते हैं। जी ही रहे हैं। जीना ही पड़ता है। मैं भी सबमें शामिल हूँ - घर में कुछ, बाहर कुछ और।

किन्तु कुछ मामलों में मैं ऐसा नहीं कर पाता। नव वर्ष प्रसंग ऐसा ही एक मामला है मेरे लिए। मैं चैत्र प्रतिपदा पर भी नव वर्ष नहीं मनाता। केवल दीपावली पर ही नव वर्ष मनाता हूँ। मेरे अन्नदाताओं (बीमाधारकों) में सभी धर्मों के लोग हैं। बीमा व्यवसाय शुरु करने के शुरुआती दिनों में मैं उन सबको, उनके नव वर्षारम्भ पर बधाई सन्देश भेजता था। साल-दो-साल तक ही यह सिलसिला चला पाया। उसके बाद बन्द कर दिया। मुझे लगा, मैं ‘धर्म’ को ‘धन्धे का औजार’ बना रहा हूँ। मेरी आत्मा ने ऐसा करने से मुझे टोका और रोक दिया। तबसे बन्द कर दिया। उसके बाद, अन्य धर्मावलम्बियों में से जिन-जिन से मेरे सम्पर्क घनिष्ठ हैं, उनके नव वर्ष पर बधाइयाँ देने के लिए उनके घर जाता हूँ। अब मैं अपने तमाम अन्नदाताओं को केवल दीपावली पर ही नव वर्ष अभिनन्दन और शुभ-कामना पत्र भेजता हूँ। मुझे यही उचित लगता है।

हमारे मंगल प्रसंग भी मेरे लिए ऐसे ही मामले हैं। मेरे बेटे के वाग्दान (सगाई) के समय हमारी होनेवाली बहू सहित हमारे समधीजी, सपरिवार उपस्थित थे। दोनों पक्षों की रस्म एक ही साथ पूरी की थी हम लोगों ने। किसी ने ‘मुद्रिका पहनाई’ (रिंग सेरेमनी) की बात कही। मुझे उसी समय मालूम हुआ कि दोनों के लिए अँगूठियाँ भी तैयार हैं। किन्तु मैंने इसके लिए दृढ़तापूर्वक निर्णायक रूप से मना कर दिया। ‘रिंग सेरेमनी’ हमारा न तो संस्कार है और न ही परम्परा। मुमकिन है, मेरे बेटे-बहू को (और मेरे परिजनों को भी) मेरी यह ‘हरकत’ ठीक नहीं लगी हो किन्तु इसमें मुझे रंच मात्र भी सन्देह नहीं कि उस दिन उपस्थित तमाम लोग आजीवन इस बात को याद रखेंगे कि ‘रिंग सेरेमनी’ भारतीय संस्कार/परम्परा नहीं है।

मैं देख रहा हूँ कि हम अपना ‘काफी-कुछ’ खो जाने का रोना तो रोते हैं किन्तु यह याद नहीं रखना चाहते कि ‘वह सब’ खो जाने देने में हम खुद या तो भागीदार होते हैं या फिर उसके साक्षी। हम बड़े ‘कुशल’ लोग हैं। जब भी हमारी ‘आचरणगत दृढ़ता’ का क्षण आता है तो हम बड़ी ही सहजता से, कोई न कोई तार्किक-औचित्य तलाश लेते हैं और वह सब कर गुजरते हैं जो हमारा ‘काफी-कुछ’ हमसे छीन लेता है।

हमारे नेता ऐसे कामों में माहिर होते हैं और चूँकि हम ‘आदर्श अनुप्रेरित समाज’ हैं, इसलिए आँख मूँदकर अपने नेताओं के उन अनुचित कामों का भी अनुकरण कर लेते हैं जिनके (अनुचित कामों के) लिए हमने उन नेताओं को टोकना चाहिए। मसलन, मेरे प्रदेश के मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चौहान। वे चैत्र प्रतिपदा के दिन ‘हिन्दू नव वर्ष’ मनाने के लिए अपनी पूरी सरकार के सरंजाम लगा देते हैं और खुद, नया साल मनाने के लिए 31 दिसम्बर को किसी प्रसिद्ध पर्यटक या धार्मिक स्थल पर पहुँच जाते हैं।

ऐसे स्खलित आचरण के लिए हम अपनी ‘उत्सव प्रियता’ का तर्क देने में न तो देर करते हैं और न ही संकोच। यदि ऐसा ही है तो हम भारत में ही प्रचलित अन्य धर्मों के मतानुसार उनके नव वर्षारम्भ पर उत्सव क्यों नहीं मनाते? मैं जानना चाहता हूँ कि जन्म दिन पर केक काटना कब से भारतीय संस्कार और परम्परा बन गया? मुझे हैरत होती जब मैं अटलजी के जन्म दिन पर उनके समर्थकों को केक काट कर जश्न मनाते देखता हूँ।

अपने आप को ‘अपने समय में ठहरा हुआ’ करार दिए जाने का खतरा उठाते हुए मैं, पहली जनवरी को नव वर्षारम्भ मानने को भी हमारी गुलाम मानसिकता का ही प्रतीक मानता हूँ - बिलकुल, राष्ट्र मण्डल खेलों की तरह ही।

सो, पहली जनवरी को मेरा नया साल शुरु नहीं हो रहा है। इस प्रसंग पर मैं अपनी ओर से किसी को बधाइयाँ, अभिनन्दन, शुभ-कामनाएँ नहीं देता। जो मुझे यह सब देता है, शिष्टाचार निभाते हुए मैं भी उसे यह सब कहता तो हूँ लेकिन अपने स्थापित चरित्र को कायम रखते हुए साथ में व्यंग्योक्ति भी कस देता हूँ - ‘जी हाँ, हम हिन्दुस्तानियों को अंग्रेजों का नया साल मुबारक हो।’

इसलिए, जो भी महरबान पहली जनवरी से अपना नया साल शुरु होना मानते हों, वे मेरे भरोसे बिलकुल न रहें। वे अपना जश्न मनाने के लिए फौरन ही मेरे मुहल्ले में चले आएँ। क्योंकि यह सब लिखते-लिखते रात के बारह कब के बज चुके हैं और मेरे अड़ोस-पड़ौस के बच्चे, सड़क पर पटाखे छोड़ते हुए खुशी में चीखते हुए एक-दूसरे को ‘ग्रीट’ कर रहे हैं।
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12 comments:

  1. अनूठे के औसत बन जाने के इस दौर की अब तक अनूठी पोस्‍ट. नये साल की न सही, नये साल के नाम पर इस बढि़या पोस्‍ट के लिए मुबारकबाद.

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  2. नये साल के उपलक्ष्य मे बेहतरीन रचना
    आपको नव वर्ष की हृार्दिक शुभकामनाये

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  3. बहुत अच्छी प्रस्तुति। नव वर्ष 2011 की हार्दिक शुभकामनाएं!

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  4. जो भी मनाये, उनकी शुभकामनायें आपको। हर दिन नववर्ष सा अनुप्राणित रहे आपका जीवन।

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  5. बिलकुल इन्ही विचारों पर एक अधूरी पोस्ट मेरे ब्लोगर ड्राफ्ट में पडी है... बधाई...

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  6. बहुत सुंदर ढंग से आप ने अपने मन की बात कह दी, धन्यवाद

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  7. सहमत, हर दिन नववर्ष पर आने वाले उत्साह के समान हो!

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  8. बाऊ जी,
    नमस्ते!
    ज़िंदगी मुबारक! और क्या कहें?
    अच्छा लगा आपको पढना....
    सादर,
    आशीष
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    हमहूँ छोड़के सारी दुनिया पागल!!!

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  9. नया साल छोड़िये। वैसे ही मुबारक। नया दिन तो है न!

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  10. आपको भी सपरिवार नये साल की हार्दिक शुभकामनायें।

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  11. ये सही है कि हम अपने संस्कारों और त्यौहारों को भूलते जा रहे हैं। लेकिन, मुझे ये ठीक नहीं लगता कि अपनी चीज़ को बचाने के लिए दूसरे के प्रति रवैया कड़क हो। दूसरों की कोई आदत अगर अच्छी हैं तो उसे अपनाने में हर्ज नहीं। आपको जो सही लगे वो कीजिए, कोई भी इंसान बिना खुद के चाहे किसी भी दबाव में नहीं आ सकता हैं।

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  12. @ दीप्ति दुबे

    सबसे पहले तो टिप्‍पणी के लिए धन्‍यवाद।

    मुझे लग रहा है कि हमसे श्रेष्‍ठ दोगला या पाखण्‍डी समाज और कोई नहीं होगा। हम चाहते हैं कि हमारी चीजें बची भी रहें और यह भी चाहते हैं कि दूसरों की अच्‍छी चीजें स्‍वीकार भी कर लें। दोनों एक साथ कैसे रह सकती हैं दीप्ति? एक को रखने पर दूसरी को को तो एक तरफ करना ही पडेगा न? क्‍या पति और ब्‍वाय फ्रेंड एक साथ रखे और साधे जा सकते हैं? और यदि हॉं, तो क्‍या यह नैतिक, उचित, समाजसम्‍मत और विधिसम्‍मत होगा?

    नहीं दीप्ति! नहीं। एक कोई एक 'स्‍टैण्‍ड' लेना होगा। वह 'स्‍टैण्‍ड' गलत भी हो सकता है और सही भी। किन्‍तु रखना तो कोई एक ही होगा।


    जहॉं तक कडक रवैये की बात है तो लगता है तुमने मेरी पोस्‍ट या तो पढी ही नहीं या फिर ध्‍यान से नहीं पढी। पोस्‍ट क इस अंश को एक बार फिर ध्‍यान से पढो -

    ''मैं नहीं मनाता पहली जनवरी को नया साल। इसे नया साल मानता भी नहीं। यह मेरा निजी मामला है और मुझ तक ही सीमित है। ऐसा करने के लिए किसी से आग्रह नहीं करता। मेरे आसपास के अधिकांश लोग मेरी इस मनःस्थिति को भली प्रकार जानते हैं। किन्तु इनमें से अधिकांश मुझे ‘ग्रीट’ करते हैं। मैं सस्मित उन्हें धन्यवाद और शुभ-कामनाएँ देता हूँ। मैं अशिष्ट नहीं होना चाहता।''


    जिसे पहली जनवरी को नया साल मनाना हो मनाए। मुझे कोई आपत्ति नहीं। किन्‍तु मैं नया साल कब मनाऊँ, यह सुविधा मुझे भी मिलनी ही चाहिए। यदि मैं अपनी इस सुविधा का आग्रह करता हूँ तो इसे कडक रवैया नहीं माना जाना चाहिए।

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