जो लोग बादलजी को नहीं जानते उनके लिए उल्लेख है कि बादलजी मालवा के ऐसे लोक कवि हैं जिन्होंने प्रतिकूलताओं को अनुकूलताओं में, अपनी कमियों को अपनी विशेषताओं में और अपनी कमजोरियों को अपनी ताकत में बदल कर समय की छाती पर हस्ताक्षर किए हैं। उनकी रचनाओं में साहित्यिकता तलाश करनेवाले निराश होकर बादलजी को खारिज कर सकते हैं किन्तु बादलजी की रचनाओं मे रचा-बसा ‘लोक-तत्व’ तमाम समीक्षकों/आलोचकों को कूड़े के ढेर पर फेंक देता है। बादलजी के नाम से कवि सम्मेलनों में भीड़ जुटती है और बादलजी के न आने पर दरियाँ-जाजमें सूनी हो जाती हैं। चैन्नई के हिन्दी कवि सम्मेलनों में बादलजी की भागीदारी मानो अनिवार्यता बन गई है। चैन्नई के आयोजकों से बादलजी कहते हैं - ‘अब मुझे क्यों बुला रहे हैं? मेरे पास नया कुछ भी तो नहीं। सब कुछ पुराना है। आप सबका सुना हुआ।’ आयोजक निरुत्तर कर देते हैं - ‘यह तो हमारे सोच-विचार का मुद्दा है, आपका नहीं। आपको तो बस आना है और मंच पर बिराजमान हो जाना है।’ बादलजी सच ही कहते हैं कि उनकी कुछ रचनाएँ चैन्नई के कवि सम्मेलन प्रेमियों के बीच मानो राष्ट्रगीत का दर्जा पा चुकी हैं।
इन्हीं बादलजी के काव्य संग्रह ‘बादल के रंग’ के विमोचन का निमन्त्रण-पत्र देखकर मैं चकरा गया। अध्यक्षता, मुख्य अतिथि, विशिष्ट अतिथि जैसे सारे निमन्त्रितों में न तो किसी साहित्यकार का नाम था और न ही कलेक्टर, पुलिस अधीक्षक जैसे किसी प्रशासकीय अधिकारी का। सारे के सारे नाम, लायंस क्लब के मण्डल (डिस्ट्रिक्ट) पदाधिकारियों के थे। निमन्त्रण देने आए बादलजी से मैंने पूछा - ‘यह सब क्या है?’ जवाब मिला - ‘योगेन्द्र सागर से पूछ लीजिए। वही जाने।’ योगेन्द्र सागर याने योगेन्द्र रूनवाल - बादलजी का परम् भक्त और पुस्तक का मुद्रक तथा प्रकाशक। उसे तलाश किया तो मालूम हुआ वह परदेस मंे है। मेरा कौतूहल, अकुलाहट में बदल गया। थोड़े हाथ-पाँव मारे तो रोचक किस्सा सामने आया।
बादलजी शिक्षक रहे हैं। एक नवागत कलेक्टर साहब बादलजी के विद्यालय वाले क्षेत्र में दौरे पर आए। स्थिति कुछ ऐसी हुई कि हर कोई बादलजी का नाम ले और कलेक्टर साहब को पूछे ही नहीं। कलेक्टर साहब को बुरा लगा सो लगा, पता नहीं किस ग्रन्थि के अधीन उन्होंने बादलजी को अपना प्रतिस्पर्द्धी मान लिया। ऐसे में कलेक्टर साहब ने वही किया जो वे तत्काल ही कर सकते थे। गिनती के दिनों में ही बादलजी का स्थानान्तर आदेश आ गया। मामले को ‘कोढ़ में खाज’ बनाते हुए कलेक्टर साहब ने मौखिक आदेश दिया - ‘बादल को अविलम्ब कार्यमुक्त किया जाए।’ स्थानान्तरण होना और कलेक्टर साहब का अतिरिक्त रुचि लेना बादलजी को समझ में नहीं आया। वे ‘साहब के दरबार’ में हाजिर हुए। कलेक्टर ने ‘कवि-फवि’ और ‘साहित्यकार-वाहित्यकार’ की औकात बताते हुए बादलजी को अनसुना ही लौटा दिया। कलेक्टर के इस व्यवहार ने बादलजी के ‘सरकारी कर्मचारी’ को क्षणांश में ही ‘कलमकार’ बना दिया। ठसके से बोले - ‘आपकी आप जानो। लेकिन देखना, तीसरे ही दिन आपका यह आदेश रद्दी की टोकरी में मिलेगा और मैं वहीं का वहीं नौकरी करता मिलूँगा।’
बादलजी कुछ करते उससे पहले ही मन्त्रालय में बैठे उनके प्रशंसकों ने अपनी ओर से फोन किया - ‘घबराइएगा नहीं और कलेक्टर कार्यमुक्त कर दे तो भी चिन्ता मत कीजिएगा। अपने घर में ही रहिएगा। स्थानान्तरण आदेश निरस्त किए जाने का पत्र निकल रहा है।’ बादलजी के मुँह से धन्यवाद भी नहीं निकल पाया। विगलित हो गए। अपनी इस पूँजी पर उन्हें गर्व हो आया। बड़ी मुश्किल से कहा - ‘चिट्ठी डाक से तो भेज ही रहे हो, पहले फेक्स कर दो।’ और चन्द मिनिटोें में ही कलेक्टर की फैक्स मशीन पर बादलजी के स्थानान्तर आदेश की निरस्ती सूचना उतर गई। तीन घण्टों मे ही तीन दिन पूरे हो गए।
उसके बाद हुआ यह कि बादलजी तो अपने शब्द-संस्कार के अनुसार चुपचाप नौकरी करते रहे लेकिन कलेक्टर ने बादलजी के विद्यालयवाले क्षेत्र में आना-जाना कम कर दिया। तभी जाते, जब जाना अपरिहार्य होता।
इसी घटना ने ‘बादल के रंग’ के विमोचन से ‘कलेक्टर-फलेक्टर’ और ‘अफसरों-वफसरों’ को अस्पृश्य बना दिया। बादलजी ने योगेन्द्र से कुछ ऐसा कहा - ‘कविता की समझ रखनेवाले, सड़क पर जा रहे किसी भी आदमी को बुला लेना, किसी समझदार चपरासी को बुला लेना लेकिन जो साहित्य का स, कविता का क और लेखन का ल भी न समझे ऐसे किसी कलेक्टर, एसपी का हाथ तो क्या, हवा भी मेरी किताब को मत लगने देना।’ और योगेन्द्र ने बादलजी का कहा शब्दशः माना। जो उसके बस में थे, उनसे विमोचन करवा लिया। बादलजी के कवि-मित्रों को इस आयोजन की सूचना जैसे-जैसे मिलती गई वैसे-वैसे ही, इस प्रसंग पर कवि सम्मेलन आयोजित होने की पीठिका स्वतः ही बनती गई। बादलजी ने कहा - ‘मैं पारिश्रमिक नहीं दे पाऊँगा।’ कवि-मित्रों ने ठहाकों में बादलजी का संकोच कपूर कर दिया।
इस तरह 22 जनवरी को बादलजी के काव्य संग्रह ‘बादल के रंग’ का विमोचन-यज्ञ, आत्मीयता भरे अच्छे-खासे जमावड़े के बीच सम्पन्न हुआ जिसमें कवि-मित्रों ने रात दो बजे तक आहुतियाँ दीं।
बादलजी का संग्रह कैसा है, इस पर मुझे कुछ भी नहीं कहना है। मुझमें कविता की सूझ-समझ जो नहीं है। किन्तु जिस समय में अच्छे-अच्छे, स्थापित रचनाकार, अफसरों से सम्पर्क बढ़ाने की जुगत भिड़ाते हों, प्रांजल शब्दावली में भटैती-चापलूसी करते हों, उनके सम्पर्कों से अपने स्वार्थ सिद्ध करते नजर आ रहे हों और जिन आयोजनों में उपस्थित होकर खुद अधिकारी सम्मानित अनुभव करते हों, ऐसे आयोजनों के निमन्त्रणों की प्रतीक्षा करते हों, ऐसे समय में जब किसी छोटे से कस्बे का औसत लोक-कवि शब्द सम्मान की रक्षा में ‘सीकरी’ को, जूते खोलने वाली जगह से भी वंचित कर दे यह अपने आप में आश्वस्त और गर्व करनेवाली घटन होती है। यही है बादलजी का वह रंग जिसे बिखेरने के लिए मैंने यह सब लिखा।
और चलते-चलते यह भी जान लें कि जिन कलेक्टर साहब ने बादलजी के साथ यह सब किया था, वे कलेक्टर साहब कुछ बरस पहले प्रदेश के भ्रष्ट आई. ए. एस. अफसर के रूप में सूचीबद्ध किए गए और और आज तक वहीं टँगे हुए हैं।
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।
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बहुत मजेदार और जानदार लेख. आपको आपकी शादी की वर्षगाठ की हार्दिक बधाईया.
ReplyDeleteबहुत सुंदर लेख,
ReplyDeleteआपको शादी की वर्षगाठ की हार्दिक बधाईया ओर शुभकामनाऎं
अरसिकेषु कवित्व निवेदनम्, शिरषि मा लिख, मा लिख, मा लिख।
ReplyDeleteाइसे लेखक आजकल कम ही मिलते हैं बहुत अच्छा लगा बादल जी के बारे मे जान कर आपको शादी की वर्ष्गाँठ पर बहुत बहुत बधाई। शुभकामनायें।
ReplyDeleteबादल जी का यह संग्रह नेट पर डलवाएँ. न हो तो इसका पेजमेकर फ़ाइल मुझे भिजवाएँ, इसे फ्री पीडीएफ ई-बुक के रूप में नेट पर प्रकाशित कर दूंगा.
ReplyDeleteआत्म-गौरव बनाम घमंड - ज़ाहिर है आत्म-गौरव ही प्रशस्त रहेगा! जानकारी के लिए धन्यवाद!
ReplyDeleteपोस्ट पढ़ी कलेक्टर के लिए नहीं बादल जी की कविता के लिए. और बादल बिना बरसे चले गए उमड़-घुमड़ कर. चार पंक्तियां तो लगा दीजिए बादल जी की.
ReplyDeleteकलेक्टर बड़ा चिरकुट है - उसे एक कवि से ईर्ष्या हो रही है! अपने विभाग में करता तो लगता भी!
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