यह, कुछ दिनों पहले की, इन्दौर की बात है। एक मित्र के यहाँ बैठा था। वे साहित्यकार तो नहीं हैं किन्तु ‘साहित्य और साहित्यकार प्रेमी’ हैं। इसीलिए, इन्दौर के अनेक साहित्यकारों से उनका जीवन्त सम्पर्क है। कुछ इतना कि प्रतिदिन औसतन पाँच-सात, लिखने-पढ़नेवालों से सम्पर्क हो ही जाता है - प्रत्यक्ष या फोन से।
चाय पी कर हम दोनों बतिया ही रहे थे कि, कॉलेज में पढ़ रहा उनका बेटा, अपने सात-आठ मित्रों के साथ आया। अप्रसन्नता और आक्रोश उसके चेहरे पर छाया हुआ था। वह मुझे जानता है। फिर भी, मुझे देखकर एक क्षण के लिए अचकचाया। उसने मुझे नमस्कार तो किया जरूर किन्तु उसका ध्यान अपने पिता की ओर ही था। साफ लग रहा था कि वह अपने पिता से कुछ कहना चाह रहा था किन्तु मेरी उपस्थिति उसे रोक रही थी। खुद को ‘बाधक’ पाकर मुझे असुविधा हुई। मैंने उठना चाहा तो मित्र ने रोक दिया - ‘कहाँ चल दिए। बैठिए। अपनी बात अभी तो शुरु भी नहीं हुई।‘ फिर बेटे से बोले - ‘यदि कोई नितान्त व्यक्तिगत बात न हो तो, झिझको मत। भैया के सामने कह दे।’
मेरी उपस्थिति का प्रभाव यह हुआ कि उसने अपने रोष को तनिक दबाते, तनिक संयमित होने का प्रयास करते हुए अपनी बात कही। मित्र के एक सहित्यकार मित्र का नाम लेकर उसने कहा - ‘आज मेरे इन सारे दोस्तों के सामने उन्होंने मेरी इंसल्ट कर दी।’ साहित्यकार सज्जन का नाम सुनकर मित्र को विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने कहा - ‘क्या बात करता है? वे ऐसा नहीं कर सकते।’ उनका बेटा बोला - ‘आप मेरी बात पर विश्वास मत कीजिए। मेरे इन दोस्तों से पूछ लीजिए।’ मित्र ने कहा - ‘मैं भला तुझ पर अविश्वास क्यों करूँगा। खुलकर पूरी बात बता।’ मित्र के बेटे ने जो कुछ बताया, उसी के कारण मुझे यह सब लिखना पड़ रहा है।
मेरे मित्र का बेटा अपने कॉलेज में साहित्यिक गतिविधियों का प्रभारी है। अपने कॉलेज में व्याख्यान के लिए उसने दिल्ली के एक स्थापित साहित्यकार को राजी कर लिया। नाम सचमुच में भारी-भरकम और भीड़ खींचनेवाला था। मित्र के बेटे ने अनुभव किया कि इतने बड़े, स्थापित साहित्यकार से जुड़ा आयोजन भव्य तो हो ही, व्यवस्थित और प्रभावी भी हो। उसने अनुभव किया कि वह खुद इस कार्यक्रम के संचालन के लिए उपयुक्त पात्र नहीं है। इसलिए उसने सोचा, इन्दौर के किसी साहित्यकार से कार्यक्रम संचालन करवाना बेहतर होगा। यह विचार आते ही उसे अपने पिता के एक साहित्यकार मित्र याद आ गए। कार्यक्रमों का संचालन करने के लिए वे नगर के श्रेष्ठ व्यक्ति माने जाते रहे हैं। मित्र का बेटा, अपने मित्रों सहित, बड़े विश्वास के साथ उनके पास गया था। वे भी मेरे मित्र के बेटे को भली प्रकार जानते थे। बीसियों बार मेरे मित्र के घर जलपान कर चुके थे। मित्र का बेटा मान कर ही गया था कि वे उसका अनुरोध फौरन स्वीकार कर लेंगे। लेकिन हुआ इसका एकदम विपरीत।
मित्र के बेटे की बात सुनते ही वे ‘लाल-भभूका’ हो गए। खूब खरी-खोटी सुनाई। जमकर डाँटा। जैसा मेरे मित्र के बेटे ने बताया, अपनी बात उन्होंने कुछ इस तरह समाप्त की - ‘मुझसे यह काम कराने का कहने के लिए आने से पहले कम से कम एक बार अपने बाप से तो पूछ लिया होता! वह तो जानता है कि अब मैं या तो मुख्य अतिथि होता हूँ या फिर अध्यक्षता करता हूँ। कार्यक्रमों का संचालन करने का घटिया काम मैंने कभी से बन्द कर दिया है।’ लड़का हक्का-बक्का रह गया। कुछ सूझ नहीं पड़ी। मित्रों की उपस्थिति में खाई इस फटकार ने उसे मर्माहत कर दिया। अत्यन्त कठिनाई से अपने आँसू रोक, उल्टे पाँवों लौट आया। नमस्कार करना भी भूल गया। वह दो कदम चला ही था कि उन साहित्यकार सज्जन ने आवाज लगाई - ‘सुन! अपने बाप को भी यह खबर दे देना।’
बेटे की बात सुनकर मेरे मित्र गम्भीर हो गए। उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि शब्द से सरोकार रखनेवाला कोई आदमी ऐसा व्यवहार कर सकता है, ऐसी भाषा वापर सकता है। उन्होंने बेटे की ओर देखा। वे कुछ कहते उससे पहले ही बेटा बोला - ‘आपको विश्वास नहीं हो रहा ना? आप मेरे साथ चलिए। मैं आपके सामने ही उनसे यह सारी बात कह दूँगा।’ मित्र ने फौरन कहा - ‘इसकी कोई जरूरत नहीं। मैंने पहले ही कहा है कि मैं तुझ पर अविश्वास नहीं करूँगा। कोई जरूरत नहीं है उनके सामने यह सब कहने की। पर तू भूल जा इस बात को। अपना मन छोटा मत कर। चल! बैठ! अपन पाँच-सात साहित्यकारों के नाम छाँट लेते हैं। कोई न कोई तो कार्यक्रम का संचालन करने को तैयार हो ही जाएगा। मैं खुद चलूँगा तेरे साथ।’ बेटे को राहत मिली। उसका गुस्सा और कम हुआ। लेकिन चोट की पीड़ा समाप्त नहीं हुई थी। बोला - ‘‘वो तो ठीक है पर अब आगे से आप उन्हें अपने यहाँ मत बुलाना। आपके लिए उन्होंने बार-बार ‘बाप‘ कहा। वह मुझे अच्छा नही लगा। वे ‘तेरे पिताजी’ भी तो कह सकते थे!’’ मित्र ने बेटे का हाथ खींचकर अपने पस बैठाया। उसके सर पर हाथ फेरा। बोले - ‘ठीक है। मैं नहीं बुलाऊँगा। लेकिन वे खुद कभी आ गए तो? घर आए का सम्मान तो करना पड़ेगा ना?’ बेटा कुछ नहीं बोला। अपने मित्रों के साथ दूसरे कमरे में (शायद अपने कमरे में) चला गया।
वातावरण बोझिल हो गया था। मेरा जी कसैला हो गया था। मित्र जिन साहित्यकार सज्जन का नाम लिया था, उन्हें मैं भी व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ। उनसे ऐसे व्यवहार की कल्पना मैं सपने में भी नहीं करता। मित्र भी असहज हो गए थे। मेरी दशा यह कि मैं चलने की कहने की हिम्मत भी नहीं जुटा रहा था। हम दोनों चुप थे। अन्ततः मित्र ने ही चुप्पी तोड़ी। फीकी हँसी हँसते बोले - ‘आधा-आधा कप चाय और हो जाए?’ मेरी चुप्पी ही मेरी सहमति थी। चाय के दौरान मित्र ने निराशा के साथ बताया कि वे साहित्यकार मित्र पहले भी कुछ और लोगों के साथ ऐसा व्यवहार कर चुके हैं। वे समझ नहीं पा रहे थे कि साहित्यकार सज्जन ऐसा क्यों कर रहे हैं।
मैं चलाआया। रास्ते में ही याद आया, गए दिनों मेरे कस्बे में सम्पन्न हुआ, साहित्यिक केलेण्डर का विमोचन समारोह। उस आयोजन में डॉक्टर जयकुमारजी जलज श्रोताओं में, सबसे आगे बैठे थे। मुझे पहले से ही पता था कि वे श्रोताओं में ही बैठेंगे किन्तु उन्हें इस तरह श्रोताओं में बैठे देखकर मुझे बड़ी असुविधा हो रही थी। उन्हें इस स्थिति में देखने की आदत नहीं मेरी आँखों को। जलजजी मेरे कस्बे के अग्रणी (‘अग्रणी’ नहीं, ‘प्रथम’) सारस्वत-पुरुष हैं। उस आयोजन में मंचासीन महानुभावों सहित उपस्थित समुदाय में जलजी ‘शिखर पुरुष’ थे। उस आयोजन के स्तर से कहीं अधिक स्तरीय आयोजनों में मैंने जलजजी को हमेशा मंच पर ही देखा। सो मुझे असुविधा हो रही थी। किन्तु जलजजी पूरे सहज सहज भाव से बैठे रहे और सबको सुनते रहे। एक क्षण को भी उन्होंने अपने ‘बड़ेपन’ का आभास भी नहीं होने दिया। वे सहजता से आये, सहजता से बैठे, सहजता से बैठे रहे और सहजता से चले गए।
श्रोताओं मे बैठे जलजजी
इस याद से उबरता उससे पहले एक और बात याद आ गई। बरसों पहले, मध्य प्रदेश के लोक निर्माण विभाग ने, पूरे मध्य प्रदेश में, सड़कों के किनारे, थोड़ी-थोड़ी दूरी पर, एक ‘सुभाषित’ लिखे बोर्ड लगवाए थे। यह ‘सुभाषित’ था - ‘बड़ा होना अच्छा है किन्तु बड़प्पन उससे भी अच्छा है।’
ये दोनों बातें याद आते ही मैं ठिठक गया। एक के बाद एक बातें मन में घुमड़ने लगीं। खुद को बड़ा बताने/जताने के लिए लोग महलों/कोठियों में बन्द हो कर बैठ जाते हैं और खुश होते रहते हैं कि वे बड़े बन गए। किन्तु वे ‘बड़ेपन’ और ‘बड़प्पन’ का अन्तर नहीं जानते।
वे सड़कों पर आते तो यह अन्तर जान पाते।
बैरागी जी,
ReplyDeleteक्या कहा जाए? इस पर। बहुत लोग हैं ऐसे। किस किस पर उंगली रखी जाए। कभी ऐसा लगता है कि कुंदन समझा था वो दो धातुओं का मेल पीतल निकला।
इसका प्रिंट आउट निकाल कर उस सज्जन को भेज दें. नहीं तो पता मुझे दें, मैं उन्हें भेज दूंगा :)
ReplyDeleteआपका कहा, आपके कहने से पहले ही मान लिया गुरुदेव। यह पोस्ट, साप्ताहिक 'उपग्रह' में छप चुकी है। 'उपग्रह' के उस अंक की दो प्रतियॉं 'उन सज्जन' को भेज दी थी और कुछ ही दिनों बाद फोन करके प्राप्ति की पुष्टि भी कर ली थी। 'वे'कुपित थे।
Deleteऑफ़ कोर्स, उन्हें अधिकार है - पहले अपमानित करने का और फिर कुपित होने का - बकौल उनके, ब्रह्मांड उनके इर्द गिर्द ही घूमना चाहिये ...
Deleteवे इतने कुपित थे कि मेरी बात सुने बिना ही फोन बन्द कर दिया। एक ही वाक्य कहा - 'आपने यह अच्छा नहीं किया।'
Deleteऔर, उन्हें यह बात बतानी भी जरूर चाहिए. कभी कभी स्वयं की गलती का अहसास स्वयं को नहीं हो पाता.
ReplyDelete‘बड़प्पन’ बड़ा होने से नहीं आता ..... बड़ों से ऐसे व्यवहार की उम्मीद नहीं की जा सकती ।
ReplyDeleteशर्मनाक ,अनपेक्षित ,अक्षम्य
ReplyDeleteबड़प्पन बना रहे, मंच हो या रंगमंच।
ReplyDeleteबैरागी भाई साहब आप जैसे बेबाक आदमी से उन महापुरुष का नाम किस संकोच में छुट गया . चलिए आपकी सज्जनता को प्रणाम , किन्तु प्रताड़ित बाबु साहब का चित्र अवश्य डालें जिससे उन भैया जी को कम से कम अपने महान कृत्य का ज्ञान होना चाहिए और लोगो के मानसिक भर्तसना का डर होना ही चाहिए. इससे बाबू साहब को लगेगा आपने सही का साथ दिया
ReplyDeleteउनका नाम मैंने जान बूझकर नहीं दिया। इस पोस्ट की दो प्रतियॉं उनको पहले ही भेज चुका था। वे 'कुपित' हुए। मैं आशा करता हूँ कि उन पर यथेष्ठ प्रभाव हुआ होगा। प्रताडित बाबू साहब का नमा देने से दूसरा नाम अपने आप ही सामने आ जाता।
Deleteभांति-भांति के लोग!
ReplyDeleteजलजजी की सरलता अनुकरणीय है। साहित्यकारजी के लिये तो रहीम का दोहा ही सटीक लग रहा है:
ReplyDeleteआब गई आदर गया, नैनन गया सनेहि।
ये तीनों तब ही गये, जबहि कहा कछु देहि॥
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 04-10 -2012 को यहाँ भी है
ReplyDelete.... आज की नयी पुरानी हलचल में ....बड़ापन कोठियों में , बड़प्पन सड़कों पर । .
उदारता के बिना बड़प्पन कहाँ !
ReplyDeleteपहली बार नई-पुरानी हलचल के माध्यम और संगीता जी के सौजन्य से आप के ब्लॉग पर आई हूँ
ReplyDeleteबहुत सुंदर पोस्ट है और सोचने पर मजबूर करती है कि क्या ऐसा भी होता है ???
साहित्यकार विनम्रता भूल जाए ,,,, ये सोच मन को उद्वेलित कर देती है कि जो व्यक्तित्व समाज को अच्छाइयों से रू ब रू करा सकता है वो ऐसा उदाहरण प्रस्तुत कर रहा है
बड़प्पन छोटा-बड़ा होने से नही ...विन्रमता से आँका जाता है ....
ReplyDeleteबहुत कुछ सिखाती पोस्ट .....
आभार !