एक हुआ करते थे तामोटजी। पूरा नाम गुलाब चन्द तामोट। खाँटी समाजवादी थे। सरकार में रहकर समाजवादी व्यवस्था लाने के लक्ष्य से, जब देश के समाजवादियों के एक बड़े धड़े ने काँग्रेस प्रवेश किया, उसी दौर में तामोटजी काँग्रेस में शामिल हुए थे। काँग्रेस में आए जरूर थे लेकिन उनका ‘चाल-चरित्र-चेहरा’ बराबर समाजवादी ही बना रहा। द्वारिकाप्रसादजी मिश्र ने उन्हें केबिनेट मन्त्री का दर्जा देकर अपनेे मन्त्रि मण्डल में शामिल किया था। वे चौथी कक्षा तक ही पढ़े थे। अपनी यह ‘शैक्षणिक योग्यता’ वे भरी सभा में खुलकर बताते थे और परिहास करते हुए, लोगों से कहते थे - ‘अपने बच्चे को अफसर-बाबू बनाना हो तो खूब पढ़ाओ और मन्त्री बनाना हो तो चौथी से आगे मत पढ़ाओ।’ किन्तु अपने अल्प शिक्षित होने को लेकर क्षणांश को भी हीनता-बोध से प्रभावित नहीं रहे। प्रशासकीय कौशल, चीजों को समझने और अपनी जिम्मेदारियों को क्षमतापूर्वक तथा सफलतापूर्वक निभाने में तामोटजी की यह ‘अल्प शिक्षा’ कभी बाधक नहीं हुई। वे आजीवन एक लोकप्रिय और कामयाब जन नेता के रूप में ही पहचाने गए।
मेरे पैतृक कस्बे मनासा में, हमारे मोहल्ले में एक थे - मोड़ीराम पुरबिया। वे हम सब के ‘मोड़ू काका’ थे। मेरे पिताजी के परम मित्र थे। दिन में कम से कम दो बार मेरे पिताजी से मिलना उनकी दिनचर्या का हिस्सा था। यदि वे नहीं आते तो दो में से कोई एक ही कारण होता - या तो मनासा से बाहर हैं या फिर बीमार। हमारे ये ‘मोड़ू काका’ निरक्षर थे। अंगूठा छाप। कभी स्कूल की ओर मुँह नहीं किया। किन्तु बुद्धि, ज्ञान, प्रतिभा, दूरदर्शिता और ‘नीर-क्षीर विवेक’ के मानवाकार थे। अनुभवी और इतने परिपक्व कि सतह से नीचे की चीजों को पहली ही नजर में भाँप लेते। अपनी जाति की पंचायत में तो सदैव अग्रणी रहे ही, अपनी इसी ‘नीर-क्षीर विवेक’ छवि के कारण गैर जाति की पंचायतों में भी आदर पाते थे। उन्होंने अपनी निरक्षरता को कभी नहीं छुपाया और न ही इस कारण कभी खुद को कमतर माना।
भारतीय जीवन बीमा निगम में एक अधिकारी हैं - राकेश कुमारजी। दो-एक बरस पहले तक भोपाल (क्षेत्रीय प्रबन्धक) कार्यालय में) क्षेत्रीय विपणन प्रबन्धक (रीजनल मार्केटिंग मैनेजर) थे। अब तक क्षेत्रीय प्रबन्धक (झोनल मैनेजर) या तो बन चुके होंगे या बनने के रास्ते में होंगे। भोपाल से दिल्ली स्थानान्तरित हुए तो उन्होंने अपने अधूरे कामों को पूरा करने के क्रम में सबसे पहले एमबीए किया। यह उपाधि प्राप्त करते समय वे अपनी आयु के 52वें वर्ष में थे। इस उपाधि के न होने से उनकी नौकरी में कोई बाधा नहीं थी और यह उपाधि प्राप्त करने के बाद न ही उनकी पदोन्नति में कोई सहायता मिलेगी। उनकी नौकरी जैसी चलनी है, चलती रहेगी। ये ही तर्क देकर मैंने उनसे (नौकरी के सन्दर्भ में) पूछा कि इस उम्र में अब इसकी क्या जरूरत थी? उन्होंने कहा कि नौकरी के लिए नहीं, खुद को समृद्ध करने के लिए उन्होंने यह किया।
मैं द्वितीय श्रेणी में कला स्नातक हूँ और मेरी उत्तमार्द्ध प्रथम श्रेणी में स्नातकोत्तर उपाधिधारी हैं। किन्तु शैक्षणिक योग्यताओं के इस अन्तर ने हमारे जीवन में क्षणांश को भी (जी। सचमुच में क्षणांश को भी) हस्तक्षेप नहीं किया। मुझसे अधिक शिक्षित मेरी उत्तमार्द्ध, हमारे विवाह के पहले दिन से लेकर इस क्षण तक मुझे दुनिया का सबसे शानदार, सबसे सुन्दर, सबसे अधिक स्मार्ट आदमी मानती हैं और आदर्श भारतीय गृहिणी की ‘पहले आप’ की परम्परा का निर्वाह किए जा रही हैं। हाँ! इसी परम्परा निर्वहन के अधीन वे मुझे दुनिया का सबसे नासमझ और गैर जिम्मेदार आदमी भी मानती हैं और ‘ये तो मैं हूँ जो निभा रही हूँ। कोई और होती अब तक, कभी का छोड़ कर चली जाती।’ वाला, समस्त भारतीय गृहिणियों का स्थायी सम्वाद, अपनी सुविधानुसार मुझे सुनाती रहती हैं। समझदारी और जिम्मेदारी वाले मामलों में मेरी बोलती बन्द हो जाती है किन्तु अपेक्षया कम शिक्षित होने के कारण हीनता बोध से कभी ग्रस्त नहीं हुआ और खुद को यथेष्ठ प्रगतिशील और पुरुष-नारी समता का नारा बुलन्द करते हुए अपने ‘पतिपन’ का उपयोग किए जा रहा हूँ।
मेरे कस्बे रतलाम में एक डॉक्टर दम्पति हैं - डॉ. जयन्त सुभेदार और डॉ. पूर्णिमा सुभेदार। उम्र में मुझसे छोटे हैं किन्तु मुझ पर अत्यन्त कृपालु औ उदार। 21 नवम्बर 1987 को उन्होंने अपना दवाखाना शुरु किया। उद्घाटन हेतु प्रख्यात डॉक्टर (अब स्वर्गीय) डी. आर. सोनार (पूरा नाम दीनानाथ रामचन्द्र सोनार) आमन्त्रित थे। कार्यक्रम का संचालन मेरे जिम्मे था। मुझे बताया गया कि वे, बिड़लाजी (घनश्याम दासजी बिड़ला) के निजी चिकित्सक हैं। यह वह समय था जब देश में औद्योगिक घरानों की गिनती ‘टाटा-बिड़ला-डालमिया’ से शुरु होती और इन्हीं पर समाप्त हो जाती थी। कार्यक्रम समाप्ति के बाद भोजन के दौरान मैंने उनसे बिड़लाजी के निजी जीवन के बारे में जानना चाहा। उन्होंने कई बातें बताईं किन्तु एक बात ने मुझे रोमांचित किया। बिड़लाजी को अन्तरंग हलकों में ‘बाबू’ सम्बोधित किया जाता था। सोनारजी ने वह बात कुछ इस तरह सुनाई - “गर्मी, सर्दी, बरसात, कोई भी मौसम हो, बाबू सोते समय अपने कमरे की खिड़कियाँ खोलकर रखते थे। यह उनकी सेहत के लिए नुकसानदायक हो सकता था। मैंने उन्हें, ऐसा न करने के लिए बार-बार कहा लेकिन उन्होंने हर बार मेरी बात अनसुनी कर दी। एक दिन मैं अपनी बात पर लगभग अड़ ही गया। बाबू बोले - ‘डॉक्टर तुम्हारी बात पहली ही बार मेरी समझ में आ गई थी। मैंने तुम्हारी बात पर कभी भी न तो हाँ किया न ना। लेकिन आज तुम जिद कर रहे हो तो सुनो। सारी दुनिया जानती है कि घनश्यामदास की पत्नी अब दुनिया में नहीं है। रात दो बजे मैं पेशाब करने उठूँ, बत्ती जलाऊँ तो सारी दुनिया देखती है कि रात दो बजे घनश्यामदास के कमरे की बत्ती जली। पचास सवाल खड़े हो जाएँगे। खिड़कियाँ खुली रखने से ऐसे सवाल पैदा ही नहीं हो सकते। ”
प्रधान मन्त्री मोदी की शैक्षणिक योग्यता को लेकर देश-दुनिया के चाय के प्याले में आया तूफान चौंकाता है। इस देश ने एक ओर अनेक पढ़े-लिखे अज्ञानियों को स्वीकार कर, पदासीन किया और अपनी चूक समझ पड़ने पर प्रतीक्षा की और समय आने पर अपनी चूक का परिष्कार कर उनसे मुक्ति पाई तो दूसरी ओर अशिक्षित/अल्प शिक्षित गुणियों को माथे का मौर बनाया। उन्हें सराहा और अपने चयन को दुहराया। हम जिस लोकतन्त्र में जी रहे हैं उसमें सबका समावेश है। किसी को योग्यता के आधार पर पदांकन मिलता है तो कोई पदासीन होने के बाद अपनी योग्यता/अयोग्यता प्रमाणित करता है। पदासीन व्यक्ति की शैक्षणिक योग्यता पर उसकी, लोकतन्त्र-संचालन की क्षमता, योग्यता और आचरण सदैव भारी पड़ता है। पद पर पद के योग्य आदमी है या अयोग्य को बैठा दिया है? बड़ी कुर्सी पर बड़ा आदमी बैठा है या बड़ी कुर्सी पर छोटा आदमी बैठ गया है? बड़े आदमी ने बड़ी कुर्सी पर बैठकर कुर्सी को छोटा तो नहीं कर दिया? बड़ी कुर्सी पर छोटा आदमी तो नहीं बैठ गया? बैठ गया तो कोई बात नहीं, कुर्सी को छोटा नहीं कर दिया?
हम सबकी इच्छा होती है कि सारी दुनिया हमें देखे और सम्भव हो तो केवल हमें ही देखे। किन्तु व्यक्ति जब शिखर पर होता है तो सारी दुनिया को नजर तो आता है, तब उसका एकान्त भी बढ़ता जाता है। शिखर पर जाना जितना मुश्किल होता है, वहाँ बने रहना उससे कम मुश्किल नहीं होता। प्राण दाँव पर लग जाते हैं क्योंकि प्राण-वायु (ऑक्सीजन) भी कम होने लगती है। शिखरस्थ होने पर आप चूँकि सारी दुनिया की नजरों में आते हैं तो इसकी कीमत भी चुकानी ही पड़ती है। तब आपका निजत्व समाप्त हो जाता है और आपकी हर बात, हर साँस, हर हरकत सार्वजनिक हो जाती है और यह तो हम सब जानते हैं कि सार्वजनिकता और पारदर्शिता एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं।
सिक्का बाजार में चलता रहे, इसके लिए दोनों पहलुओं का चमकदार बने रहना अनिवार्य शर्त होता है। मुझे लगता है, मोदी की शैक्षणिक योग्यता को लेकर मचा घमासान इन दोनों पहलुओं के चमकदार होने की सत्यता जानने की जिज्ञासा के सिवाय और कुछ नहीं है।
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(भोपाल से प्रकाशित दैनिक ‘सुबह सवेरे’ ने यह आलेख आज, 11 मई 2016 को अपने पाँचवें पृष्ठ पर छापा है।)
विष्णुजी,
ReplyDeleteनमस्कार,
आपने अपनी रौ में अपने अनुभवों से फिर से ब्लॉग पर लिखना शुरू किया । सच में मैं बहुत आभारी हूँ ।
नीरज
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (14-05-2016) को "कुछ जगबीती, कुछ आप बीती" (चर्चा अंक-2342) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपके ब्लॉग से बहुत कुछ सीख मिली, पर आजकल की पीढ़ी में यह भाव कम ही देखने को मिलते हैं।
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