अपनी ‘व्यवस्था’ (याने कि सरकारी तन्त्र) की माया सचमुच में अपरम्परापार है। कभी कहो तो भी काम न हो और कभी न करने की कह कर भी काम कर दे।
कोई तीस बरस हो गए होंगे इस बात को। श्री गोपाल कृष्ण सारस्वत हमारे रतलाम जिले के अतिरिक्त जिला दण्डाधिकारी (एडीएम) थे। वे मेरे पैतृक गाँव मनासा से बारह-तेरह किलो मीटर दूर स्थित ग्राम कुकड़ेश्वर के दामाद थे। मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्य मन्त्री सुन्दरलालजी पटवा का पैतृक गाँव कुकड़ेश्वर ही है। सारस्वतजी के ससुर सूरजमलजी जोशीजी मनासा में भारतीय जीवन बीमा निगम के विकास अधिकारी के पद पर पदस्थ थे। प्रायः रोज का मिलना-जुलना। यह वह जमाना था जब एक का जमाई, पूरे गाँव का जमाई। सो, मैं भी सारस्वतजी को जमाईजी या कुँवर सा’ कह कर ही सम्बोधित करता था। वे भी मुझे उतना ही मान देते थे।
इस यादगार घटना के समय विधान सभा के चुनावों की प्रक्रिया शुरु हो चुकी थी। सारस्वतजी पूरे जिले के प्रभारी थे। अचानक एक सुबह जावरा रेल्वे स्टेशन के सहायक स्टेशन मास्टर खान सा‘ब आए। उनकी बिटिया अध्यापक थी और चुनावों में उसकी ड्यूटी लग चुकी थी। खान साहब मेरे ‘ज्यामितीय मित्र’ थे - मेरे मित्रों के मित्र। उन्होंने अत्यन्त विनीत भाव से कहा कि मैं उनकी बेटी की यह ड्यूटी निरस्त करवा दूँ। चुनावों को मैं ‘राष्ट्रीय त्यौहार’ और उसकी ड्यूटी को ‘राष्ट्रीय कर्तव्य’ मानता हूँ। सो, मैंने हाथ जोड़ते हुए, तनिक अधिक विनीत भाव से खान सा’ब से क्षमा याचना कर ली। मैंने कहा कि उसे ड्यूटी करनी चाहिए। आखिर हर्ज ही क्या है? खान सा’ब ने कहा-’मैं भी आपकी बात से इत्तफाक रखता हूँ लेकिन ऐन मतदान के दिन बिटिया का निकाह तय हो गया है।’ मैंने अपना आग्रह तत्क्षण त्याग दिया और वादा कर दिया - ‘तब तो ड्यूटी निरस्त करवानी ही पड़ेगी। आप बेफिक्र होकर जाएँ। निकाह की तैयारियाँ करे। बिटिया की ड्यूटी निरस्त हो ही गई समझिए।’
खान साहब को भेज कर मैं फौरन ही ‘जमाईजी’ के पास पहुँचा। खान सा’ब की बिटिया की ड्यूटी वाला आदेश उनके सामने रखा और कहा - ‘यह ड्यूटी निरस्त कर दीजिए।’ सारस्वतजी ने कागज देखे बिना ही, विनम्रता से कहा - ‘नहीं करूँगा।’ मैं आसमान से जमीन पर गिरा - धड़ाम। मैं बार-बार सारस्वतजी को कहूँ, समझाऊँ और वे हैं कि मानने, सुनने, समझने को तैयार ही नहीं। थोड़ी देर तो मैं परिहास ही मानता रहा लेकिन खुशफहमी टूटी तो मुझे गुस्सा आ गया। मैंने तमक कर कहा-‘मैं तो आपको एडीएम सा'ब, एडीएम सा'ब, जमाईजी, जमाईजी किए जा रहा हूँ और आप हैं कि भाव ही नहीं दे रहे। मत करो ड्यूटी केंसिल। बच्ची ड्यूटी पर नहीं जाएगी। क्या कर लोगे आप?’ सारस्वतजी ने पूरे शान्त भाव से मुस्कुराते हुए जवाब दिया - ‘कुछ नहीं करेंगे। मत भेजिए अपनी बच्ची को।’
मैं एक बार फिर आसमान से जमीन पर गिरा। इस बार चारों कोने चित। मैं अचकचा गया। बोल नहीं फूटे मेरे मुँह से। बौड़म की तरह उनको देखते हुए तनिक मुश्किल से बोला - ‘क्या मतलब आपका?’ इस बार मुस्कुराहट से आगे बढ़ कर सारस्वतजी तनिक हँस कर बोले - ‘मेरे कहने का मतलब यह कि रखिए अपनी बच्ची को अपने पास। मत भेजिए चुनावी ड्यूटी पर।’ सारस्वतजी ने बात तो मेरे मन की कही किन्तु मुझे विश्वास नहीं हुआ। भला ड्यूटी केंसिल हुए बिना बच्ची गैर हाजिर रही तो उसकी नौकरी पर नहीं बन आएगी? मेरी शकल यकीनन, देखने लायक हो गई होगी।
मेरी दशा देख सारस्वतजी इस बार खुल कर हँसे। बोले - ‘आप क्या समझते हैं कि एक मास्टरनी के दम पर चुनाव हो रहे हैं। अरे! हमने स्पेशल पोलिंग पार्टियाँ बना रखी हैं। कोई ड्यूटी पर नहीं आएगा तो क्या चुनाव का काम रुक जाएगा? अरे! भाई सा’ब। किसी न किसी को भेज दिया जाएगा।’ मैंने घुटी-घुटी आवाज में कहा - ‘लेकिन उसकी नौकरी?’ सारस्वतजी इस बार ठहाका मार कर हँसे। बोले - ‘कुछ नहीं होगा उसकी नौकरी को। आपने पूछा था न कि हम क्या कर लेंगे? तो सुनिए! हम उसे एक कारण शो-काज नोटिस जारी कर स्पष्टीकरण माँग लेंगे। वो जवाब दे देगी कि उस दिन उसका निकाह था इसलिए ड्यूटी पर नहीं आ पाई। कागज फाइल में लग जाएगा। बस। बात खतम।’
सब कुछ मेरे मन का हो रहा था किन्तु जिस अन्दाज में हो रहा उससे मेरी धुकधुकी बन्द नहीं हो रही थी। सारस्वतजी ने दिलासा देते हुए कहा - ‘भाई सा’ब! आप तो जेन्युइन केस लेकर आए हो। लेकिन यदि मैंने यह एक ड्यूटी केंसिल कर दी तो मेरे दफ्तर के बाहर लाइन लग जाएगी और अपात्रों की लॉटरी लग जाएगी। इसलिए आप तो बेटी के बाप से कहिए कि ड्यूटी-व्यूटी को भूल जाए और बेटी के हाथ पीले करे।’
सारस्वतजी के कमरे से बाहर आते हुए मैं तय नहीं कर पा रहा था कि सारस्वतजी को धन्यवाद दूँ या उन पर गुस्सा करूँ? उन्होंने मेरा कहा तो माना नहीं लेकिन मेरा काम कर दिया था।
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कोई तीस बरस हो गए होंगे इस बात को। श्री गोपाल कृष्ण सारस्वत हमारे रतलाम जिले के अतिरिक्त जिला दण्डाधिकारी (एडीएम) थे। वे मेरे पैतृक गाँव मनासा से बारह-तेरह किलो मीटर दूर स्थित ग्राम कुकड़ेश्वर के दामाद थे। मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्य मन्त्री सुन्दरलालजी पटवा का पैतृक गाँव कुकड़ेश्वर ही है। सारस्वतजी के ससुर सूरजमलजी जोशीजी मनासा में भारतीय जीवन बीमा निगम के विकास अधिकारी के पद पर पदस्थ थे। प्रायः रोज का मिलना-जुलना। यह वह जमाना था जब एक का जमाई, पूरे गाँव का जमाई। सो, मैं भी सारस्वतजी को जमाईजी या कुँवर सा’ कह कर ही सम्बोधित करता था। वे भी मुझे उतना ही मान देते थे।
इस यादगार घटना के समय विधान सभा के चुनावों की प्रक्रिया शुरु हो चुकी थी। सारस्वतजी पूरे जिले के प्रभारी थे। अचानक एक सुबह जावरा रेल्वे स्टेशन के सहायक स्टेशन मास्टर खान सा‘ब आए। उनकी बिटिया अध्यापक थी और चुनावों में उसकी ड्यूटी लग चुकी थी। खान साहब मेरे ‘ज्यामितीय मित्र’ थे - मेरे मित्रों के मित्र। उन्होंने अत्यन्त विनीत भाव से कहा कि मैं उनकी बेटी की यह ड्यूटी निरस्त करवा दूँ। चुनावों को मैं ‘राष्ट्रीय त्यौहार’ और उसकी ड्यूटी को ‘राष्ट्रीय कर्तव्य’ मानता हूँ। सो, मैंने हाथ जोड़ते हुए, तनिक अधिक विनीत भाव से खान सा’ब से क्षमा याचना कर ली। मैंने कहा कि उसे ड्यूटी करनी चाहिए। आखिर हर्ज ही क्या है? खान सा’ब ने कहा-’मैं भी आपकी बात से इत्तफाक रखता हूँ लेकिन ऐन मतदान के दिन बिटिया का निकाह तय हो गया है।’ मैंने अपना आग्रह तत्क्षण त्याग दिया और वादा कर दिया - ‘तब तो ड्यूटी निरस्त करवानी ही पड़ेगी। आप बेफिक्र होकर जाएँ। निकाह की तैयारियाँ करे। बिटिया की ड्यूटी निरस्त हो ही गई समझिए।’
खान साहब को भेज कर मैं फौरन ही ‘जमाईजी’ के पास पहुँचा। खान सा’ब की बिटिया की ड्यूटी वाला आदेश उनके सामने रखा और कहा - ‘यह ड्यूटी निरस्त कर दीजिए।’ सारस्वतजी ने कागज देखे बिना ही, विनम्रता से कहा - ‘नहीं करूँगा।’ मैं आसमान से जमीन पर गिरा - धड़ाम। मैं बार-बार सारस्वतजी को कहूँ, समझाऊँ और वे हैं कि मानने, सुनने, समझने को तैयार ही नहीं। थोड़ी देर तो मैं परिहास ही मानता रहा लेकिन खुशफहमी टूटी तो मुझे गुस्सा आ गया। मैंने तमक कर कहा-‘मैं तो आपको एडीएम सा'ब, एडीएम सा'ब, जमाईजी, जमाईजी किए जा रहा हूँ और आप हैं कि भाव ही नहीं दे रहे। मत करो ड्यूटी केंसिल। बच्ची ड्यूटी पर नहीं जाएगी। क्या कर लोगे आप?’ सारस्वतजी ने पूरे शान्त भाव से मुस्कुराते हुए जवाब दिया - ‘कुछ नहीं करेंगे। मत भेजिए अपनी बच्ची को।’
मैं एक बार फिर आसमान से जमीन पर गिरा। इस बार चारों कोने चित। मैं अचकचा गया। बोल नहीं फूटे मेरे मुँह से। बौड़म की तरह उनको देखते हुए तनिक मुश्किल से बोला - ‘क्या मतलब आपका?’ इस बार मुस्कुराहट से आगे बढ़ कर सारस्वतजी तनिक हँस कर बोले - ‘मेरे कहने का मतलब यह कि रखिए अपनी बच्ची को अपने पास। मत भेजिए चुनावी ड्यूटी पर।’ सारस्वतजी ने बात तो मेरे मन की कही किन्तु मुझे विश्वास नहीं हुआ। भला ड्यूटी केंसिल हुए बिना बच्ची गैर हाजिर रही तो उसकी नौकरी पर नहीं बन आएगी? मेरी शकल यकीनन, देखने लायक हो गई होगी।
मेरी दशा देख सारस्वतजी इस बार खुल कर हँसे। बोले - ‘आप क्या समझते हैं कि एक मास्टरनी के दम पर चुनाव हो रहे हैं। अरे! हमने स्पेशल पोलिंग पार्टियाँ बना रखी हैं। कोई ड्यूटी पर नहीं आएगा तो क्या चुनाव का काम रुक जाएगा? अरे! भाई सा’ब। किसी न किसी को भेज दिया जाएगा।’ मैंने घुटी-घुटी आवाज में कहा - ‘लेकिन उसकी नौकरी?’ सारस्वतजी इस बार ठहाका मार कर हँसे। बोले - ‘कुछ नहीं होगा उसकी नौकरी को। आपने पूछा था न कि हम क्या कर लेंगे? तो सुनिए! हम उसे एक कारण शो-काज नोटिस जारी कर स्पष्टीकरण माँग लेंगे। वो जवाब दे देगी कि उस दिन उसका निकाह था इसलिए ड्यूटी पर नहीं आ पाई। कागज फाइल में लग जाएगा। बस। बात खतम।’
सब कुछ मेरे मन का हो रहा था किन्तु जिस अन्दाज में हो रहा उससे मेरी धुकधुकी बन्द नहीं हो रही थी। सारस्वतजी ने दिलासा देते हुए कहा - ‘भाई सा’ब! आप तो जेन्युइन केस लेकर आए हो। लेकिन यदि मैंने यह एक ड्यूटी केंसिल कर दी तो मेरे दफ्तर के बाहर लाइन लग जाएगी और अपात्रों की लॉटरी लग जाएगी। इसलिए आप तो बेटी के बाप से कहिए कि ड्यूटी-व्यूटी को भूल जाए और बेटी के हाथ पीले करे।’
सारस्वतजी के कमरे से बाहर आते हुए मैं तय नहीं कर पा रहा था कि सारस्वतजी को धन्यवाद दूँ या उन पर गुस्सा करूँ? उन्होंने मेरा कहा तो माना नहीं लेकिन मेरा काम कर दिया था।
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (21-05-2016) को "अगर तू है, तो कहाँ है" (चर्चा अंक-2349) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
कोटिशः धन्यवाद। कृपा बनाए रखें।
Deleteकोटिशः धन्यवाद। कृपा बनाए रखें।
Deleteआप मेरे ब्लॉग को प्रेमपूर्वक शेयर करें।
ReplyDeleteइस क्षण बड़ौदा के एक अस्पताल में भर्ती हूँ। यदि सब योजनानुसार हुआ तो 27 की शाम को घर पहुँचूँगा। 'मूषक' और माइक्रोब्लॉगिंग के बारे में कुछ नहीं जानता। मेरा मोबाइल फोन नम्बर 98270 61799 है। सम्भव हो तो 28 की शाम को बात कर लें या अपना सम्पर्क नम्बर दे दें। मैं अपनी सुविधा से बात कर लूँगा।
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