यह आपबीती मुझे आज, 12 मई को मन्दसौर के एक ठेकेदार ने सुनाई।
मध्य प्रदेश सरकार ने अपना एक काम अपने एक उपक्रम से कराने का फैसला किया। याने कि सरकारी भाषा में उस उपक्रम को, ‘नोडल एजेन्सी’ बनाया।
काम कराने के लिए इस नोडल एजेन्सी ने दिसम्बर 2014 में निविदा निकाली। इस काम के अनुभवी, प्रदेश के कुछ ठेकेदारों ने अपने-अपने भाव प्रस्तुत किए। सबसे कम भाव होने के कारण मन्दसौर के इस ठेकेदार को ठेका मिला। शर्तों के मुताबिक इस ठेकेदार ने, निविदा की शर्तें पूरी करते हुए, जनवरी 2015 में 8,00,000/- रुपये अमानत राशि के रूप में जमा कराए। लेकिन उसके नाम पर कार्यादेश (वर्क आर्डर) जारी होता उसके पहले अचानक ही सरकार ने नोडल एजेन्सी बदल दी।
नई निविदा में किसी और ठेकेदार को काम मिल गया। मन्दसौर के इस ठेकेदार ने मार्च 2015 में, विधिवत आवेदन प्रस्तुत कर अपनी, अमानत की रकम माँगी।
ठेकेदार जानता था कि सरकार आसानी से रकम वापस नहीं करती। सो, आवेदन देकर प्रतीक्षा करने लगा। ‘सामान्य प्रतीक्षा अवधि’ निकल जाने पर ठेकेदार ने सम्बन्धित कार्यालय से फोन पर सम्पर्क किया। जवाब मिला-‘रकम जल्दी ही वापस कर रहे हैं।’ लेकिन इस ‘जल्दी’ को ‘बहुत जल्दी’ (शायद फोन पर जवाब देने के अगले ही क्षण) भुला दिया गया। ठेकेदार यह जानता था। सो, हर महीना-पन्द्रह दिन में फोन करता रहा। लेकिन पूरा एक साल बीत जाने के बाद भी वह ‘जल्दी’ किसी को याद नहीं आई।
हारकर ठेकेदार ने मार्च 2016 में पंजीकृत पत्र भेज कर अपनी रकम माँगी। जवाब आया तो जरूर लेकिन कागज पर नहीं। फोन पर कहा गया कि (प्रक्रिया के अधीन) स्टाम्प पेपर पर रकम की अग्रिम पावती (एडवांस रसीद) भेजें। ठेकेदार ने अगले ही दिन अग्रिम पावती भेज दी। लेकिन भरपूर समय निकल जाने के बाद भी कोई खबर नहीं मिली। ठेकेदार ने फोन किया। जवाब मिला - ‘पावती तो मिल गई किन्तु वह एक सौ रुपयों के स्टाम्प पेपर पर होनी थी।’ ठेकेदार ने याद दिलाया कि निविदा के समय पचास रुपयों के स्टाम्प पेपर पर ही पावती दी जाती थी। जवाब मिला - ‘तब की बात तब गई। आज की बात करो।’ अप्रेल 2016 में ठेकेदार ने एक सौ रुपयों के स्टाम्प पेपर पर पावती भेज दी।
लेकिन कोई महीना भर बाद भी न तो रकम मिली और न ही कोई खबर तो ठेकेदार ने आज फोन किया। जवाब मिला - ‘बहुत जल्दी पड़ी है आपको! चलो! खुश हो जाओ। आपको रकम लौटाने के आदेश पर आज साहब के दस्तखत हो गए हैं। जल्दी ही आपको आपकी रकम मिल जाएगी।’
जवाब में यह ‘जल्दी’ सुनकर खुश होने के बजाय ठेकेदार चिन्तित हो गया है। इस कार्यालय का, उसका अनुभव कह रहा है - ‘जल्दी’ का मतलब है, कम से कम एक साल बाद।
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ReplyDeleteनिज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।
बात मात्र लिख भर लेने की नहीं है, बात है हिन्दी की आवाज़ सुनाई पड़ने की ।
आ गया है #भारतमेंनिर्मित #मूषक – इन्टरनेट पर हिंदी का अपना मंच ।
कसौटी आपके हिंदी प्रेम की ।
जुड़ें और सशक्त करें अपनी हिंदी और अपने भारत को ।
#मूषक – भारत का अपना सोशल नेटवर्क
जय हिन्द ।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (16-05-2016) को "बेखबर गाँव और सूखती नदी" (चर्चा अंक-2344) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
इन ठेकेदार साहब को उपभोक्ता फोरम से शायद कुछ सहायता मिल जाये।
ReplyDeleteठेकेदार साहब ने बिना गुनाह की सज़ा पाई।
ReplyDeleteठेकेदार साहब ने बिना गुनाह की सज़ा पाई।
ReplyDeleteठेकेदार साहब ने बिना गुनाह की सज़ा पाई।
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