तरालीस डिग्री की, चमड़ी झुलसा देनेवाली गर्मी-धूप की सुनसान दोपहरी में वे पाँचों मेरे घर आए तो उनकी शकलों पर गर्मी के कोप की छाया के स्थान दहशत छायी हुई थी। गर्मजोशी भरे मेरे ‘आओ! आओ!!’ स्वागत के जवाब में पाँचों ने ‘नमस्कार दादा’ कहा तो सही किन्तु मरी-मरी आवाज में। कुछ इस तरह मानो कोई उनसे जबरन कहलवा रहा हो।
उनकी यह दशा देख मैं घबरा गया। रुक नहीं पाया और उनमें से कोई कुछ बोलता उससे पहले ही पूछा बैठा - ‘सब ठीक-ठाक तो है? कोई बुरी खबर तो लेकर नहीं आए?’ मेरे सवाल ने मानो उन्हें हिम्मत दी। प्रदीप जादोन बोला - ‘नहीं। कोई बुरी खबर नहीं। लेकिन आप बताओ! यह कब हुआ?’ मैंने कहा - ‘जैसा कि तय था, अभी आठ दिन पहले। बीस मई को।’ प्रदीप तनिक चिहुँक कर बोला - ‘तय था मतलब? हार्ट अटेक और उसका ऑपरेशन कब से पहले से तय होने लगा?’ अब मैं चिहुँका। प्रतिप्रश्न किया - ‘कौनसा हार्ट अटेक? किसे हुआ? कब हुआ?’ जवाब में सवाल इस बार कैलाश शर्मा ने किया - ‘क्यों? आप बड़ौदा नहीं गए थे? आपका ऑपरेशन नहीं हुआ?’ मैंने कहा - ‘हाँ। मैं बड़ौदा गया था और मेरा ऑपरेशन भी हुआ। लेकिन आपसे किसने कहा कि वह ऑपरेशन हार्ट अटेक की वजह से था?’ मेरी यह बात सुनते ही पाँचों ने मानो राहत की साँस ली। सबके चेहरे तनिक खिल गए।
लेकिन अब मैं उलझन में था। मैंने कैलाश की ओर सवालिया मुद्रा में मुण्डी उचकाई। तनिक झेंपते हुए कैलाश बोला - ‘वो, परसों शाम को आपके घर आया था। ताला लगा था। गुड्डू भैया (अक्षय छाजेड़, जिसका मैं पड़ौसी हूँ) की मिसेस बाहर ही थीें। उन्होंने बताया कि आप बड़ौदा गए हैं, आपका ऑपरेशन हुआ है और कल शाम को आप लौटनेवाले हैं। मैंने सोचा कि अब आपको फोन करके क्या कहूँ और क्या पूछूँ? सीधे मिल कर बात करूँगा।’ मैं कुछ कहता उससे पहले ही राजेन्द्र मेहता ने ‘मैं गुनहगार नहीं हूँ’ का उद्घोष करने की तरह हस्तक्षेप किया - ‘मुझे तो दादा! इसीने (कैलाश ने) कहा कि आपका हार्ट का ऑपरेशन हुआ है और बताया कि आप कल आनेवाले हो। मैंने भी सोचा कि अब फोन करने के बजाय खुद मिलना ही अच्छा। इसीलिए आपको फोन नहीं किया।’ मेरी हँसी तो चल गई किन्तु मेरे ऑपरेशन को हार्ट अटेक से जोड़नेवाली बात अब भी समझ में नहीं आई थी। मैंने कैलाश से पूछा - ‘उन्होंने (गुड्डू की मिसेस ने) कहा था कि मेरा हार्ट ऑपरेशन हुआ है?’ तनिक याद करते हुए कैलाश बोला - ‘नहीं। यह तो उन्होंने नहीं कहा था।’ मैंने पूछा - ‘तो फिर आपने कैसे कह दिया कि मेरा हार्ट का ऑपरेशन हुआ?’ कैलाश अब मानो सफाई देता हुआ बोला - ‘क्यों! सर? आप तो जानते हो कि अपने रतलाम का कोई आदमी अगर ऑपरेशन कराने बड़ौदा जाता है तो उसका एक ही मतलब होता है कि उसे हार्ट अटेक हुआ है। फिर, आपको तो साल-डेड़ साल पहले हार्ट अटैक हो चुका है जिसका इलाज आपने बड़ौदा में ही कराया था! तो बस! मैंने सोचा कि आपको हार्ट अटेक हुआ है और ऑपरेशन भी उसी का हुआ है। आप ही बताओ! मैंने क्या गलत सोचा?’ कैलाश की बात से इंकार कर पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं था। हमारे रतलाम में, बड़ौदा जाकर ऑपरेशन कराने का लोक प्रचलित अर्थ ‘हार्ट का ऑपरेशन’ ही होता है। इस लिहाज से कैलाश ने कुछ भी गलत नहीं सोचा।
बाकी चारों मानो कैलाश पर टूट पड़ना चाहने लगे। मैंने उन्हें ‘नियन्त्रित’ किया। तनिक झंुझलाहट और ढेर सारी प्रसन्नताभरे स्वरों में प्रदीप बोला - ‘चलो! इससे (कैलाश से) तो हम बाद में निपट लेंगे। पहले आप बताओ कि यदि यह ऑपरेशन हार्ट का नहीं था तो किस बात का था?’
मैंने सविस्तार बताया कि मेरी मूत्रेन्द्री की बाहरी चमड़ी संक्रमित हो गई थी। उसे कटवाने के लिए फरवरी 2015 में एक छोटा सा ऑपरेशन डॉक्टर यार्दे से करवाया था। ऑपरेशन के बाद उन्होंने कहा था मेरी उम्र को देखते हुए उन्होंने संक्रमित चमड़ी सारी की सारी नहीं काटी है। इस ऑपरेशन के बाद दवाइयों से उस संक्रमण को दूर करने की कोशिश करेंगे और यदि सफलता नहीं मिली तो फिर एक ऑपरेशन और करना पड़ेगा। डॉक्टर यार्दे का आशावाद फलीभूत नहीं हुआ और मेरा दूसरा ऑपरेशन जनवरी 2016 में बड़ौदा में डॉक्टर नागेश कामत ने किया। ऑपरेशन पूरी तरह सफल रहा। संक्रमित चमड़ी पूरी काट दी गई। बायोप्सी रिपोर्ट भी पक्ष में आई। अब मैं संक्रमण मुक्त था। इस बीच इसी बारह मार्च को मुझे अचानक तेज बुखार आया। गुड्डू ने ही मुझे सुभेदार साहब के अस्पताल में भर्ती कराया। विभिन्न परीक्षणों का निष्कर्ष रहा कि मैं ‘मूत्र नली संक्रमण’ (यूरीनरी ट्रेक इंफेक्शन) का मरीज हो गया हूँ। सत्रह मार्च को छुट्टी हुई तो इस हिदायत के साथ कि मैं किसी यूरोलाजिस्ट से सलाह हूँ। मैंने ऐसा ही किया तो यूरोलाजिस्ट ने कहा कि संक्रमण ने मेरी मूत्र नली को बहुत सँकरा कर दिया है। अब मैं उनका नहीं, किसी ‘यूरोसर्जन’ का केस हो गया हूँ। मुझे फौरन ही ऑपरेशन करा लेना चाहिए।
यह संयोग ही रहा कि जनवरी में मेरा ऑपरेशन करने के बाद डॉक्टर कामत ने ‘फॉलो-अप’ के लिए मुझे सत्ताईस अप्रेल को बड़ौदा बुलाया था। डॉक्टर कामत ने मेरे, यूटीआई उपचार के और यूरोलाजिस्ट के कागज देखे। मेरी जाँच की और यूरोलाजिस्ट के निष्कर्ष की पुष्टि की। मैंने तत्क्षण कहा - ‘ऑपरेशन की तारीख तय कीजिए।’ उन्होंने बीस मई तय की। निर्धारित तारीख और समय पर मेरा ऑपरेशन हुआ और निर्धारित कार्यक्रमानुसार सत्ताईस मई की शाम मैं रतलाम लौट आया।
पाँचों ने तसल्ली की साँस ली। ईश्वर को धन्यवाद दिया। अमृत जैन ने कहा - ‘अन्त भला सो सब भला दादा! आप राजी-खुशी हो, यही ऊपरपावले की मेरबानी है। आप तो मेरे जैसा कोई काम हो तो जरूर बताना।’ लेकिन पाँचवा, संजय शर्मा इन चारों से अलग निकला। ‘हो! हो!’ कर हँसता हुआ बोला- ‘दादा! मजा आ गया। आपसे जब भी मिलना होता है, आप मजा ला देते हो।’ लेकिन इस बीच वे चारों कैलाश को कनखियों से देखते रहे। मैंने ‘कुछ ठण्डा-गरम’ की मनुहार की तो राजेन्द्र बोला - ‘हाँ! हाँ! क्यों नहीं! ठण्ठा पीएँगे। जरूर पीएँगे। लेकिन यहाँ नहीं। अब यह (कैलाश) हम सबको जूस पिलाएगा।’ पाँचों ने विनम्रतापूर्वक नमस्कार कर विदा ली।
लेकिन कैलाश को ‘हार्ट अटेक’ वाली बात सूझने के पीछे मुझे रतलाम में व्याप्त लोकधारणा के अतिरिक्त ‘सम्पर्कहीनता/सम्वादहीनता’ भी लगी। ये पाँचों ही भारतीय जीवन बीमा निगम के ऐसे एजेण्ट हैं जिनसे रोज का मिलना-जुलना है। कोई काम हो, न हो, मैं थोड़ी देर के लिए ही सही, हमारे शाखा कार्यालय जरूर जाता हूँ। सबसे मिलना-जुलना हो जाता है। बाजार की और हमारे धन्धे की काफी-कुछ जानकारियाँ मिल जाती हैं। लेकिन मैं एक काम ऐसा करता हूँ जो बाकी एजेण्ट नहीं करते हैं। (आप इस ‘नहीं करते हैं।’ को ‘निश्चय ही नहीं करते हैं।’ पढ़ सकते हैं।) नियमित रूप से शाखा कार्यालय आनेवाले एजेण्टों में से कोई एजेण्ट यदि तीन-चार दिन लगातार नजर नहीं आता है तो मैं या तो सीधे उसे ही फोन लगाकर या फिर उसके अन्तरंग किसी एजेण्ट से उसका कुशल क्षेम पूछ लेता हूँ।
इस बार मैं खुद बीमार रहा। शाखा कार्यालय नहीं जा पाया। मेरी अनुपस्थिति सबने देखी और अनुभव की। आपस में जिक्र और पूछताछ भी की किन्तु किसी ने मुझसे सम्पर्क करने कर कोशिश नहीं की क्योंकि यह उनकी आदत में नहीं। सो, इस ‘सम्पर्कहीनता और सम्वादहीनता’ ने मुझे हृदयाघात से ग्रस्त रोगी और एक छोटे से ऑपेरशन को ‘हार्ट ऑपरेशन’ में बदल दिया।
अब मैं ठीक हूँ। दो नलियाँ लगी होने से घर से बाहर निकलना नहीं हो पा रहा। एक नली, जिसके कारण प्रायः ही मर्मान्तक पीड़ा होती थी, कल चार जून को निकाल दी गई है। तेरह जून को फिर बड़ौदा जाना है। तब दूसरी नली भी निकल जाएगी। उम्मीद है कि उसके बाद, जल्दी ही एक बार फिर अपना ब्रीफ केस लेकर ‘लो ऽ ऽ ऽ ओ! बीमा करा लो!’ की फेरी लगाता नजर आने लगूँगा।
वास्तविकता जानने से जैसी राहत और प्रसन्नता मेरे मित्रों को (और उनके प्रसन्न हो जाने से मुझे भी) मिली, ईश्वर करे, वही सब आप सबको और आपके आसपास के तमाम लोगों को मिले।
हाँ। अब तक एक काम आप न कर रहे हों तो करना शुरु करने पर विचार कीजिएगा। अपने मिलनेवालों से मिल कर या उन्हें फोन कर ‘कैसे हो? सब ठीक तो है? घर में सब राजी खुशी है? काम काज बढिया चल रहा है ना? बहुत दिनों से नजर नहीं आए। कुछ मिलने-मिलाने की जुगत करो यार! अच्छा लगेगा।’ जैसी पूछताछ कर लिया करें। सच मानिए, उनसे अधिक अच्छा खुद आप को लगेगा।
आदमी खुद को गुदगुदी कर हँस नहीं सकता लेकिन ऐसे छोटे-छोटे उपक्रम कर खुद ही खुश जरूर हो सकता है।
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आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति ब्लॉग बुलेटिन - स्वर्गीय सुनील दत्त में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।
ReplyDeleteआपकी रचना पढकर, सामाजिक सरोकार तथा आपसी संवाद की कमी से होने बाली परेशानियों के बारे में आपके अनुभवों से लाभ ही मिलेगा। भाषा शैली ने बहुत प्रभावित किया। रचना बहुत अच्छी लगी। धन्यवाद।
ReplyDeleteबात कान बदलते ही बतंगड़ बन जाती है
ReplyDeletebahut khub kripya hamare blog www.bhannaat.com ke liye bhi kuch tips jaroor den
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