मन्दोदरी! काश! तुम वोट दिला पाती


दैनिक भास्कर के, 15 मई के रविवारी जेकेट पर आठ कॉलम में प्रकाशित इस विस्तृत सचित्र समाचार के अनुसार, गाँधीजी के हत्यारेे नाथूराम गोड़से को, जान पर खेलकर पकड़नेवाले बहादुर सिपाही रघु नायक की पत्नी, 85 वर्षीया मन्दोदरी अपनी बेटी के घर, बदहाली की जिन्दगी जी रही है। उसे सरकार से कुल एक सौ रुपया मासिक सहायता मिल रही है। यह रकम 50 रुपये मासिक थी। कोई तीन साल पहले बढ़ाकर 100 रुपये की गई है। यह रकम साल भर में एकमुश्त दी जाती है। रघु नायक को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने 500 रुपये पुरुस्कारस्वरूप दिए थे। 1983 में रघु नायक की मृत्यु के बाद उसका पुलिसकर्मी बेटा भी एक हादसे का शिकार हो गया। जीने के लिए बेटी के पास रहना एकमात्र विकल्प बचा था। सो, बेटी के यहाँ आ गई। लेकिन दुर्दिनों ने पीछा नहीं छोड़ा। बेटी बासन्ती का पति भरी जवानी में केंसर का शिकार हो गया। उसके तीन बच्चे हैं-बड़ा बेटा डेड़ एकड़ का खेत सम्हाल रहा है। छोटा बेटा गरीबी के कारण पढ़ नहीं पाया। कोई पन्द्रह बरस पहले पंचायत ने इन्दिरा आवास योजना के तहत मकान बनाने के लिए जमीन दी। साल भर बाद, बेटी की मदद से दो कमरे बनवाने चाहे लेकिन ढाँचा खड़ा करने से आगे बात नहीं बनी। बिना छत, बिना खिड़की-दरवाजे, बिना प्लास्टर की दीवारोंवाला  मकान भी खण्डहर हो गया है। इस बीच मन्दोदरी मधुमेह और मोतियाबिन्द की मरीज हो गई। बेटी बासन्ती ने माँ से सरकार के नाम चिट्ठी लिखवाई। कोई साल भर पहले अचानक सरकारी बुलावा आया और उड़ीसा सरकार ने अभी ही उसे पाँच लाख रुपये दिए हैं। अखबार के मुताबिक, बेटी के साथ जोरल गाँव में रह रही मन्दोदरी, अपने ‘मकान’ के दो कमरों में 20-30 वाट के बल्बों की रोशनी में जी रही है। सामान के नाम पर कुछ पुराने बर्तन हैं। ज्यादातर सामान टूटा-फूटा है।

मेरे परिचय क्षेत्र के लोगों ने समाचार को अपनी-अपनी मानसिकता और मनःस्थिति के अनुसार पढ़ा और समझा। अधिकांश की प्रतिक्रिया एक जैसी ही रही। सबने मन्दोदरी के प्रति दया, करुणा जताई और अपनी-अपनी पसन्द की सरकारों का बचाव करते हुए बाकी सरकारों को और सरकारी तन्त्र को धिक्कारा।

ऐसा यह इकलौता और अनूठा समाचार नहीं है। भीख माँग रहे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी, सायकलों के पंक्चर पकाते हुए, पानी पूरी का ठेला लगाए, बरफ के गोले बेचते हुए, हम्माली करते हुए, चाय की दुकानों, ढाबों पर झूठे कप-प्लेट, बरतन साफ करते हुए राष्ट्रीय/प्रान्तीय स्तर के महिला-पुरुष खिलाड़ियों, कलाकारों के सचित्र समाचारों की अब हमें आदत हो गई है। ऐसे सचित्र समाचार अब हमें न तो चौंकाते हैं न ही सिहरन पैदा करते हैं। अखबारों के लिए वे ‘एक्सक्लूसिव स्टोरी’ होते हैं और हमारे लिए ‘च्च्च! च्च्च! च्च्च!’ की ध्वनि निकालने की औपचारिकता पूरी करने के काम आते हैं। 

मन्दोदरी की दुर्दशा 1983 में पति की मृत्यु के बाद शुरु हुई। याने, लगभग तैंतीस बरस पहले। इस बीच लोक सभा, विधान सभाओं, स्थानीय के निकायों के चुनाव अपने समय पर होते रहे, उनके खर्चे चुनाव-दर-चुनाव बढ़ते रहे, नेताओं के आश्वासनों, वादों के ढेर लगते रहे, सरकारें बनती रहीं, गिरती रहीं, फिर और फिर-फिर बनती गईं, कलफदार कुर्तों/शेरवानियों की भीड़ बढ़ती गई। इसी चलन को मजबूत करते हुए, राष्ट्रीय/प्रान्तीय स्तर के महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक व्यक्तियों की दुर्दशा के समाचार भी बढ़ते रहे। 

मन्दोदरी का यह समाचार छपने के कोई एक पखवाड़े के बाद मैंने इस समाचार के बारे में लगभग साठ लोगों से उनकी राय पूछी। लगभग 95 प्रतिशत तो इसे भूल चुके थे। शेष में से अधिकांश ने ‘अच्छा! वो समाचार? हाँ। ऐसा समाचार पढ़ा तो था किन्तु ठीक-ठीक याद नहीं।’ जैसा जवाब दिया।

मन्दोदरी ऐसी अकेली ‘समाचार कथा’ (याने कि ‘न्यूज स्टोरी’) नहीं है। प्रत्येक कस्बे की ऐतिहासिकता और महत्व से जुड़े ऐसे कई लोग हमें हर जगह मिल जाएँगे। मेरे कस्बे के भी कम से कम चार लोगों के नाम तो मेरे जिह्वाग्र पर हैं। ऐसे सब लोगों के गम्भीर अपराध शायद यही हैं कि इनमें से कोई भी वोट दिलाऊ नहीं है और न ही ये लोग हमें ‘दो पैसे’ का लाभ दिला सकते हैं। 

हम बरस-दर-बरस शिक्षित होते जा रहे हैं। देश प्रगति के सापान, एक के बाद एक चढ़ता जा रहा है, देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ती जा रही है। हम दुनिया की सबसे शक्तिशाली अर्थ व्यवस्था बनने की दिशा में तेजी से अग्रसर हैं। राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रीय भावना नसों में बहती थम नहीं रही, हमारी सम्वेदनशीलता का स्तर यह कि शौच-मूत्र-त्याग जैसी बातों पर भी हमारी भावनाएँ आहत हो रही हैं, राष्ट्र के प्रति निष्ठा का ज्वार ऐसा कि जिसे जी चाहे, देशनिकाला दे रहे हैं, राष्ट्र के सपूतों और शहीदों की रंचमात्र अवमानना हमें पल भर भी सहन नहीं हो रही और धर्म गंगा तो इतने वेग और इतनी विशालता/विकरालता से बहने लगी कि देश की जमीन कम पड़ती लग रही है। नहीं हुए तो बस दो काम नहीं हुए। पहला-हमारी सरकारें और सरकारी मशनरी मानवीय सन्दर्भों में जिम्मेदार नहीं हो पाईं और दूसरा हमारी सामाजिक चेतना-सम्वेदनशीलता और उत्तरदायित्व बोध नष्ट होने के कगार पर आ गया।

गए दिनों मेरे कस्बे के एक मन्दिर की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा का वार्षिक समारोह सम्पन्न हुआ। एक सप्ताह चले इस समारोह में प्रभातफरियाँ, झाँकियाँ, धर्म यात्राएँ निकलीं। कस्बे के जिस-जिस क्षेत्र में ये उपक्रम सम्पन्न हुए वहाँ, जगह-जगह पर स्वागत मंच बने, फूल बरसाए गए, उपक्रमों में शामिल भक्तों की यथाशक्ति (‘प्रसादस्वरूप’) खान-पान सेवा की गई। मन्दिर के देवता पर केन्द्रित नाटक खेले गए, नृत्य नाटिकाएँ प्रस्तुत की गईं। समारोह का समापन ‘विशाल सार्वजनिक भण्डारा’ से हुआ। भण्डारे में ‘प्रसादी’ ग्रहण करनेवाले भक्तों का कोई अधिकृत आँकड़ा तो सामने नहीं आया किन्तु (लगभग तीन लाख की आबादी वाले मेरे कस्बे में) सबसे छोटा आँकड़ा सवा लाख लोगों का आया। 

मेरी गणित बहुत कमजोर है। मैंने मन्दिर और समारोह की प्रबन्ध व्यवस्था से जुड़े कुछ लोगों से पता करने की कोशिश की। ‘फायनल अकाउण्ट’ तो अभी नहीं हुआ है किन्तु, अलग-अलग लोगों द्वारा बताए गए आँकड़ों का औसत कम से कम सोलह लाख रुपये रहा। इसमें से भण्डारे पर कम से कम सात लाख रुपये तो खर्च हुए ही होंगे।

किन्तु यह तो एक उपक्रम मात्र की बात हुई। ऐसे उपक्रम (कम से कम मेरे कस्बे में तो) अब ‘बारहमासी’ हो गए हैं। कभी कोई कलश यात्रा, कभी कोई चुनरी यात्रा, विभिन्न देवोत्सव और पर्वोत्सव, विशाल संगीतमय सुन्दरकाण्ड’, किसी नेता के जन्म दिन पर या किसी राजनीतिक उपलब्धि पर, भारी भरकम डीजेवाली संगीत/भजन निशा। नवरात्रि और गणेशोत्सव पर गली-गली में ‘झकास’ पण्डाल। यह सब तो केवल हिन्दू धर्म के हैं। दूसरे धर्मों के भी ऐसे ही उपक्रम अब प्रतियोगिता भाव से होने लगे हैं। प्रत्येक उपक्रम भारी-भरकम खर्चीली साज-सज्जा वाला। एक के बाद होनेवाला दूसरा उपक्रम मानो, ‘मेरी कमीज से उसकी कमीज से ज्यादा उजली क्यों?’ की तर्ज पर पहलेवाले से प्रतियोगिता करता हुआ। इस सबके लिए अखबारों के पूर-पूरे पन्नों के रंगीन विज्ञापन। अधिक हैसियत हुई तो विशेष परिशिष्ट।

हकीकत मैं नहीं जानता किन्तु आकण्ठ विश्वास है कि केवल मेरा कस्बा एकमात्र ऐसा सौभाग्यशाली और गौरवशाली कस्बा नहीं होगा। इन्दौर में तो कुछ नेताओं की तो पहचान ही केवल धार्मिक आयोजनों और विशाल सार्वजनिक भण्डारों की बन चुकी है।

लेकिन केवल ये ही पहचान के प्रतीक नहीं हैं। अतिक्रमण से घिरे, बिना बिजली-पानी, बाउण्ड्रीवालवाले सरकारी स्कूल, मोहल्ले में चल रहे, ‘अनाथ दशा’ वाले सरकारी उप-चिकित्सालय, कूड़े के भारी भरकम ढेर, गन्दगी से बजबजाते शौचालय, सड़ांध मारती नालियाँ, दुर्गन्ध के भभके मार रहे सार्वजनिक मूत्रालय, और....और.....और......। लगता है, ऐसे कितने ही ‘और’ लिखे जा सकते हैं। यह सब हममें से प्रत्येक को अपने-अपने कस्बे, शहर, नगर, महानगर का ही ब्यौरा लगता है।

यह सब देख-देख कर मन्दोदरी पर केन्द्रित यह समाचार (और ऐसा प्रत्येक समचार) और कुछ नहीं, हमारे पाषाण हृदय, सम्वेदनाहीन, बेशर्म-गैर जिम्मेदार हो जाने के प्रमाण-पत्रों, तमगों के सिवाय भला और क्या है? 

आईए! अपने-अपने घरों के अगले कमरे में इन्हें सजाएँ।  
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1 comment:

  1. इसे कहते हैं खबर में "फोकटिया तड़का" लगाना... ज्ञानी पत्रकार महोदय लिखते हैं गोडसे को "जान पर खेलकर"(??), "दबोचा(??)" था...

    अब इस छिछोरे भास्कर को कौन समझाए कि नथूराम गोड़से ने सिर्फ गाँधी के वध के लिए गोलियाँ चलाई थीं, एक भी गोली किसी दूसरे सामान्य व्यक्ति को ना लगे, इसलिए एकदम पास से गोली मारी थी और सबसे बड़ी बात यह कि गोड़से एकदम शांत बने रहे, और भागने की कतई कोशिश नहीं की थी... तो फिर "जान पर खेलना कैसा?" और "दबोचना" कैसे?

    लेकिन खबर को खामख्वाह सनसनीखेज बनाने, और गोड़से को कसाब के समकक्ष रखने की मानसिकता के चलते ऐसी घटिया रिपोर्टिंग की गई... २६/११ के समय हवलदार तुकाराम ओम्बले ने कसाब के साथ जो किया, उसे "जान पर खेलकर दबोचना" कहते हैं, लेकिन यह मामूली बात इस "Semi-पोर्न" और "Semi-अंग्रेजी" अखबार को कौन समझाए??

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    बाकी रही रघु नायक की इस गरीब विधवा की बात, तो उसकी इस हालत से मेरी भी सहानुभूति है...

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