नोटबन्‍दी के खलनायक : सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक

तय कर पाना कठिन हो रहा है कि इस सब को क्या मानूँ - आश्चर्यजनक, निराशाजनक या हताशाजनक? क्या यह मात्र संयोग है कि अलग-अलग जगहों पर, अलग-अलग घरों में बैठे लोग किसी विषय पर अलग-अलग समय पर बात करते हुए लगभग एक ही निष्कर्ष पर पहुँचते अनुभव हों? क्या सबको पूर्वाग्रही या सन्देही मान लिया जाए? क्या परस्‍पर विरोधी राजनीतिक विचारधाराओं के लोग एक ही मुद्दे पर, समान-पूर्वाग्रही या समान-संशयी हो सकते हैं?

एक पारिवारिक प्रसंग में इस बार पूरे सात दिन ससुराल में रहना पड़ा। बहुत बड़ा कस्बा नहीं है। ऐसा कि घर पर नियमित रूप से आ रहे अखबार के अतिरिक्त कोई और अखबार नहीं मिल सकता। सब अखबारों की गिनती की ग्राहक-प्रतियाँ ही आती हैं। अतिरिक्त प्रति उपलब्ध नहीं। सो पूरे सात दिन एक ही अखबार पर आश्रित रहना पड़ा। काम-धाम कुछ नहीं। पूरी फुरसत। ऐसा कोई व्यक्तिगत सम्पर्क भी नहीं जहाँ जाकर दस-बीस मिनिट बैठ सकूँ। मैं आराम कर-कर थक गया। अखबार में, नए नोटों की थोक में बरामदगी की खबरों ने विचार दिया-अपने परिचय क्षेत्र के अधिकाधिक बैंककर्मियों से बात की जाए। मेरे सम्पर्क क्षेत्र में यूँ तो सभी विचारधारााओं के लोग हैं किन्तु संघी-भाजपाई अधिसंख्य हैं जबकि बैंक कर्मचारी संगठनों में वामपंथी अधिसंख्य हैं। किन्तु अनेक बैंककर्मी ऐसे हैं जो सुबह शाखा में जाते हैं और दिन में, प्रबन्धन के विरुद्ध प्रदर्शनों में ‘लाल सलाम! लाल सलाम!’ और ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ के नारे लगाते हैं। सुबह वैचारिक निष्ठा और दिन में रोटी बचाने की जुगत। कुछ कर्मचारी ऐसे हैं जो लिपिक के रूप में नियुक्त हुए थे और पदोन्नत होते-होते शाखा प्रबन्धक बन गए हैं। मैंने  यथासम्भव अधिकाधिक परिचितों से बात की। अपनी फुरसत और पिपासा शान्ति की भरपूर कीमत चुकानी पड़ मुझे। कुल मिलाकर कम से कम पाँच घण्टे तो बात की ही होगी मैंने। 

दो बातें समान अनुभव हुईं - लिपिक वर्ग के कर्मचारियों ने सामान्यतः आक्रामक हो कर बात की तो अधिकारी बन चुके कर्मचाािरयों ने मुद्दों पर, गम्भीरता से, लगभग तटस्थ भाव से बात की। किन्तु निष्कर्ष सबका एक ही था - ‘यह सब सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के विरुद्ध, इन्हें बदनाम कर ध्वस्त करने का, कार्पोरेट घरानों और सरकार में बैठे पूँजीवादियों का सुनियोजित, गम्भीर षड़यन्त्र है जिसमें पूरा मीडिया तीव्र उत्प्रेरक की भूमिका निभा रहा है।’ मैंने अधिकारी बन चुके मित्रों की बातों को तनिक अधिक महत्व दिया।

अधिकारी बन चुके मित्रों का कहना रहा कि सरकारी बैंकों के कर्मचारियों में न तो सबके सब ‘पवित्र गायें’ हैं न ही सबके सब ‘काली भेड़ें’ हैं। सब तरह के लोग सब जगह हैं। भले, ईमानदार, कर्तव्य निष्ठ लोग अधिक हैं और बेईमान, कामचोर बहुत कम। किन्तु जैसा कि होता है, जिक्र बेईमानों का ही होता है, ईमानदारों का नहीं। ऐसे लोग निजी बैंकों में भी हैं। किन्तु सरकारी और निजी बैंकों में बहुत बड़ा अन्तर यह है कि सरकारी बैंकों में यह बेईमानी व्यक्तिगत स्तर पर है जबकि निजी बैंकों में संस्थागत रूप से है। इसका मतलब यह भी नहीं कि सारे के सारे निजी बैंक संस्थागत रूप से बेईमान हैं। इन मित्रों ने कहा - ‘किन्तु तनिक ध्यान से देखिए! थोक में नए नोट सामान्यतः निजी बैंकों से ही बरामद हो रहे हैं। किसी बैंक से इतनी बड़ी मात्रा में नए नोट कोई अकेला कर्मचारी, ‘प्रबन्धन’ की सहायता और सुरक्षा के बिना, व्यक्तिगत स्तर पर उपलब्ध नहीं करा सकता।’ इन्होंने याद दिलाया कि कम से कम दो निजी बैंक अतीत में एण्टी मनी लाण्डरिंग अधिनियम के गम्भीर उल्लंघनकर्ता के रूप में चिह्नित और चर्चित हो चुके हैं। एक साथी ने याद दिलाया तो मुझे याद आया कि गत वर्ष ही भोपाल में एक बीमा एजेण्ट ने एक निजी बैंक की सहायता से, एण्टी मनी लाण्डरिंग एक्ट का उल्लंघन करते हुए, बिना पान कार्ड और बिना ग्राहक-पहचान-पत्रों के, अपने ग्राहकों के लाखों रुपये एक निजी बैंक में जमा करवा दिए थे। चूँकि देश में सरकारी बैंकों की उपस्थिति सर्वाधिक है इसलिए जनसामान्य का साबका इन्हीं से पड़ता है। यही इनका दोष है। जबकि सरकारी बैंकों के कर्मचारी अधिक मानवीय, अधिक सम्वेदनशील होकर काम करते हैं। 

इन इधिकारी मित्रों ने बड़ी पीड़ा से कहा - ‘हमारी कठिनाई यह है कि हमारी स्थिति कोई समझने को तैयार नहीं। समझे तो तब जब सुने!  सरकार ने 85 प्रतिशत मुद्रा वापस ले ली। इसके एवज में दस प्रतिशत मुद्रा ही बैंकों को उपलब्ध कराई है। यह सामान्य बात कोई सुनने-समझने को तैयार नहीं कि 85 प्रतिशत की पूर्ति दस प्रतिशत से होगी तो हल्ला तो मचेगा ही! यह तो सब कहते हैं कि सरकार ने 24 हजार रुपये निकालने का अधिकार दिया है। लेकिन लाइन में लगे प्रत्येक व्यक्ति को इतनी रकम देने जितनी रकम कितने बैंकों को उपलब्ध कराई जा रही है? ऐसे में, बैंकों की कोशिश यह है कि अधिकाधिक लोगों को रकम दी जाए। इसके लिए बैंक मेनेजर लोग अपनी सोच-समझ के अनुसार कहीं दस हजार तो कहीं पाँच हजार प्रति व्यक्ति दे रहे हैं। लेकिन इसके बाद भी कतार में खड़े तमाम लोगों को रकम दे पाना सम्भव नहीं है। आखिकार बैंक उतनी ही रकम तो देगा जितनी उसे मिली है! ऐसे में सरकारी बैंक अपना उत्कृष्ट देने के बाद भी लोगों की घृणा झेलने को अभिशप्त हैं। कुछ निजी बैंकों के किए की सजा तमाम सरकारी बैंकों को केवल इसलिए मिल रही है वे देश में सर्वाधिक नजर आ रहे हैं। सरकारी बैंकों की सम्पत्तियों को नुकसान पहुँचाया जा रहा है, कर्मचारियों के साथ मारपीट हो रही है। 

अधिकांश कर्मचारियों ने कहा-‘कोई रिजर्व बैंक से पूछताछ क्यों नहीं करता? उनके पास तो पूरी सूची है कि उन्होंने किस जगह, किस बैंक को, कितनी रकम उपलब्ध कराई है! यह सूची जगजाहिर हो जाए तो दूध का दूध, पानी का पानी हो जाएगा। थोक में नए नोट उपलब्ध कराने के मामले में अब तो रिजर्व बैंक के कर्मचारी भी पकड़े जा रहे हैं।’ इन लोगों ने बहुत बारीक बात कही-‘आप ध्यान से देखिए। तमाम चैनलों पर बहस के लिए, वर्तमान/भूतपूर्व अधिकारी हों या कर्मचारी संगठनों के लोग, केवल सरकारी बैंकों से जुड़े लोगों को ही बुलाकर सवाल पूछे जा रहे हैं। सवाल भी ऐसी भाषा और अन्दाज में मानो किसी अपराधी से सफाई माँगी जा रही हो। रिजर्व बैंक या निजी बैंक के एक भी अधिकारी, कर्मचारी को कभी, किसी चेनल ने बुलाकर अब  तक पूछताछ नहीं की। पूरी दुनिया जानती है कि अधिकांश चेनलें कार्पोरेट घरानों की मिल्कियत हैं। ये सब सरकारी बैंकों को बदनाम कर अपने मालिकों की स्वार्थ-पूर्ति कर रही हैं।’

अपने राजनीतिक रुझान छुपाने में असमर्थ मित्रों ने खुल कर कहा कि नोटबन्दी के समस्त चार लक्ष्य (नकली नोटों से मुक्ति, काला धन उजागर करना, भ्रष्टाचार दूर करना और आतंकियों की फण्डिंग) विफल हो चुके हैं। सरकार अपनी विफलता सरकारी बैंकों पर थोप कर गंगा स्नान करना चाह रही हैं। दो कर्मचारियों ने आकर्षक शब्दावली प्रयुक्त की - ‘खलनायक बन चुका विफल नायक, एक निर्दोष को खलनायक साबित करने हेतु प्रयत्नरत है।’ और ‘मलिन हो चुकी अपनी सूरत को उजली साबित करने के लिए बैंकों की सूरत पर कालिख पोती जा रही है।’

मैं इन सारी बातों पर आँख मूँदकर भरोसा नहीं कर रहा। सब कुछ एक पक्षी है। किन्तु इनमें वे लोग भी शरीक हैं जो ‘अपनी सरकार’ का लिहाज पाल पाने में असुविधा महसूस कर रहे हैं। ऐसे में इन सारी बातों को खारिज भी नहीं कर पा रहा। न सबकी सब सच और न ही सबकी सब झूठ। इन दोनों के बीच में आपको क्या नजर आता है?
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