कल एक डॉक्टर मित्र के पास बैठा था। एक रोगी हर सवाल का जवाब बड़े ही अटपटे ढंग से दे रहा था। वह शायद शरीरिक नहीं, मनोरोगी था। तनिक विचार कर डॉक्टर मित्र ने अपनी दराज से एक शीशी निकाली और मरीज को कहा कि वह बाहर जाए और शीशी की बाम माथे पर लगा कर दस मिनिट बाद आए। मरीज ने निर्देश पालन तो किया किन्तु दस मिनिट के बजाय दो मिनिट में ही लौट आया। बोला कि उसे ललाट पर असहनीय जलन हो रही है। डॉक्टर ने बड़े ही प्यार से फटकारते हुए कहा कि वह बाहर ही बैठे और दस मिनिट बाद ही आए। मरीज ने कहा कि जलन बर्दाश्त से बाहर है, दस मिनिट तो क्या वह एक पल भी प्रतीक्षा नहीं कर सकता। डॉक्टर ने अचानक ही पूछा कि वह जो समस्या लेकर आया था, उसका क्या हाल है। मरीज झुंझलाकर बोला कि वह समस्या तो गई भाड़ में, डॉक्टर पहले उसे बाम की जलन की इस नई झंझट से मुक्त कराए। डॉक्टर ने दूसरा लेप देकर उसे कष्ट मुक्त किया। वह सन्तुष्ट और प्रसन्न हो चला गया। मुझे बात समझ नहीं आई। डॉक्टर ने कहा कि उसने रोगी की मौजूदा परेशानी से बड़ी परेशानी पैदा कर दी। रोगी अपनी सारी परेशानियाँ भूल गया और इस नई परेशानी से मुक्ति की कामना करने लगा। अपनी बात स्पष्ट करते हुए डॉक्टर मित्र ने कहा-‘‘मोदीजी बहुत समझदार डॉक्टर हैं। लोग नोटबन्दी में ऐसे व्यस्त हो गए हैं कि अपनी और देश की बाकी सारी समस्याएँ भूल गए हैं। देश के चर्चित सारे मुद्दे भूलकर अब उनकी एक ही चिन्ता है कि सुबह जल्दी से जल्दी बैंक की लाइन में लगें, उनका नम्बर जल्दी आए और वे दो-चार हजार रुपये प्राप्त कर सकें। रुपये मिलने की खुशी के साथ ही साथ वे अगले सप्ताह फिर लाइन में लगने की योजना और चिन्ता में व्यस्त हो जाते हैं। मैंने यही ‘मोदीपैथी’ अपनाई। किया कुछ नहीं और मरीज खुश। मेरी फीस भी वसूल।‘‘
और यह आज सुबह की बात है। एक वामपंथी मित्र मिल गए। भुनभुनाते हुए मोदी माला जप रहे थे। बोले-‘पूरा देश परेशान है। समूचा सर्वहारा वर्ग दाने-दाने को तरस गया है। काम पर जाने के लिए रोटी चाहिए और रोटी के लिए काम। लेकिन रोटी और काम-धाम छोड़ कर, भूखा-प्यासा बैंकों के सामने लाइन में खड़ा है। मध्यम वर्ग अपना ही पैसा पाने के लिए भिखारी बन गया है। ताज्जुब यह कि फिर भी नाराज नहीं है। छù देशभक्ति के नशे में मद-मस्त हैं। मार्क्स आज होते तो खुद की बात को अधूरा अनुभव करते और कहते कि धर्म के साथ-साथ देशभक्ति भी अफीम के नशे की तरह होती है।’
लोगों को बाम लगा दी गई है या देशभक्ति की अफीम पिला दी गई है? पता नहीं सच क्या है। लेकिन मैं ‘जेबी’ की बातों से दहशतमन्द हूँ और ईश्वर से प्रार्थना कर रहा हूँ कि ‘जेबी’ की कोई बात सच न हो। छप्पन वर्षीय, इजीनीयरिंग स्नातक ‘जेबी’ मुझ पर अति कृपालु रहा है। उद्यमी भी है और व्यापारी भी। व्यापार ऐसा कि न चाहे तो भी सौ-दो सौ लोगों से रोज मिलना ही पड़ता है। अर्थशास्त्र और मौद्रिक नीति भले ही न जानता हो लेकिन बाजार की और लोगों के व्यवहार की समझ उसके खून में है। सिद्धान्त और व्यवहार में समन्वय बैठाने में माहिर। कुछ लोग नोटबन्दी से उपजी परेशानियों का रोना रोने लगे तो बोला-‘अब तक जो भोगा-भुगता उसे भूलो और अगले सप्ताह की तैयारी करो। अगला सप्ताह और अधिक भयावह होगा।’ मित्रों की कृपा के कारण नोटबन्दी के कष्ट मुझे शून्यवत ही भुगतने पड़े। दो बार बैंकों की कतार में खड़ा हुआ जरूर लेकिन अनुभव प्राप्त करने के लिए। अनुभव सुखद नहीं रहे। सो, ‘जेबी’ की बात सुनते ही मेरे कान खड़े हो गए और दिल अधिक तेजी से धड़कने लगा। ‘जेबी’ के मुताबिक अगले सप्ताह लोगों के हाथों में पैसा होने के बावजूद चिल्ला-चोट मचेगी। पहली तारीख को लोगों को वेतन मिलेगा। वेतन खाते में जमा हो या नगद मिले, मिलेंगे दो-दो हजार के नोट ही। खुद सरकार के मुताबिक, चलन में हजार-पाँच सौ के नोट 86 प्रतिशत थे। याने, सौ, पचास, बीस, दस पाँच और दो रुपये के सारे नोट मिला कर कुल 14 प्रतिशत बाजार में उपलब्ध हैं। बन्द किए गए बड़े नोटों के बराबर नोट बाजार में आए नहीं। छोटे नोटों की उपलब्धता 14 प्रतिशत ही है। यहाँ अर्थशास्त्र का जगजाहिर, ‘माँग और पूर्ति’ का सिद्धान्त लागू होगा। रिजर्व बैंक खुद कह रहा है कि नए नोट समुचित मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं। सरकार संसद में कुछ भी कहे लेकिन बाहर सरकार के मन्त्री सार्वजनिक रूप से कबूल कर रहे हैं कि नोटों की कमी है। ऐसे में छोटे नोटों की माँग एकदम बढ़ेगी। लोग अपनी पत्नी के हाथ में वेतन देते हैं और पिछले महीने की छोटी-छोटी उधारियाँ चुकाते हैं। घर-गृहस्थी का रोज का खर्च छोटी-छोटी रकमों में होता है। लेकिन बाजार में 100 के नोट के बाद सीधे 2000 का नोट है। पाँच सौ के नए नोट सरकार ने बाजार में उतारे जरूर हैं लेकिन वे न तो पूरे देश में एक साथ उपलब्ध हैं न ही उनकी संख्या पर्याप्त है। ऐसे में सौ के नोट की माँग एकदम बढ़ेगी और उसकी काला बाजारी शुरु हो जाएगी। नोटबन्दी के पहले दौर में लोग रुपये न मिलने के कारण रोटी हासिल नहीं कर पा रहे थे। लेकिन इस दूसरेे दौर में हो सकता है कि हम, हाथ में रुपये होते हुए लोगों को रोटी के लिए तरसते हुए देखें।
‘जेबी’ के मुताबिक, निजी क्षेत्र के कर्मचारियों, मजदूरों में से अधिकांश के बैंक खाते नहीं हैं। उन्हें नगद भुगतान होता है। यदि बैंक खातों की बाध्यता हुई तो ऐसे तमाम लोग ‘सम्पन्न भिखारी’ की दशा में आ जाएँगे। ऐसे लोगों के खाते तत्काल ही खोलना आसान नहीं है। बैंक कर्मचारी पहले ही काम के बोझ से दबे हुए हैं। छोटे नोटों की कमी से उपजी इस नई स्थिति में उनकी और अधिक दुर्दशा होना तय है। ऐसे में नए खाते खोलने का काम उनके लिए ‘कोढ़ में खाज’ जैसा होगा। इन नए खातों के लिए छोटे नोट उपलब्ध कराना याने एक और मुश्किल। ‘जेबी’ ताज्जुब करता है कि एक छोटे व्यापारी को नंगी आँखों नजर आ रही इन सारी बातों का पूर्वानुमान सरकार क्यों नहीं कर पाई? ‘जेबी’ इस बात पर भी चकित है कि सरकार को दो हजार के बजाय दो सौ रुपयों का नोट निकालने का विचार क्यों नहीं आया। सरकार यदि दो सौ रुपयों का नोट निकाल देती तो इस अनुमानित संकट की भयावहता दस प्रतिशत ही रह जाती।
‘जेबी’ की बातें सुन-सुन कर मेरा दिल बैठा जा रहा है। मैं अर्थशास्त्र का विद्यार्थी कभी नहीं रहा। रुपये-पैसों की समझ अब तक भी नहीं हो पाई है। उत्तमार्द्ध का कुशल प्रबन्धन और मित्रों के अतिशय-कृपापूर्ण और चिन्तापूर्ण सहयोग के कारण मुझे आटे-दाल का भाव कभी-कभीर ही मालूम हो पाता है। लेकिन बैंकों के सामने कतारों में खड़े आकुल-व्याकुल लोग नजर आते हैं, उनके पीड़ाभरे अनुभव व्यथित करते हैं। बाजार की स्थिति यह कि मेरे व्यापारी बीमा ग्राहक भी पुराने बीमों की किश्तें जमा नहीं कर पा रहे हैं। सत्तर से अधिक मौतें चित्त से ओझल नहीं होती। ये और ऐसी तमाम बातें उदास और निराश करती हैं।
उलझन में हूँ। यही सोचकर सन्तुष्ट होने की कोशिश कर रहा हूँ कि पूरे देश की प्रबल अपेक्षा-आकांक्षा बनी हुई नोटबन्दी को हम ‘सुखद भविष्य की प्रतीक्षा में दुःखद वर्तमान’ समझ कर सहयोग करें।
-----
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा आज शुक्रवार (02-12-2016) के चर्चा मंच "
ReplyDeleteसुखद भविष्य की प्रतीक्षा में दुःखद वर्तमान (चर्चा अंक-2544)
" (चर्चा अंक-2542) पर भी होगी!
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
देश की दशा, या यूँ कहें कि दुर्दशा, का सटीक चित्रण करता एवं सार्थक चिंतन के लिए प्रेरित करता बढ़िया आलेख ! बस एक ही बात से आपत्ति है कि आपके 'जेबी' के अनुसार सरकार इस भयावह स्थिति का पूर्वानुमान नहीं कर पाई ! यह स्थिति लोगों ने सरकार की बातों को अनसुना करके स्वयं निर्मित की है ! हर व्यक्ति का बैंक में खाता हो इसके लिए दो साल पहले १5 अगस्त २०१४ से जनता को जागरूक किया जा रहा है लेकिन लोगों ने अनसुना कर दिया ! अपनी अघोषित आय को उचित टैक्स देकर बैंक में जमा कराने के लिए हर बार कहा जाता रहा लेकिन लोगों की मानसिकता नोटों को बैंकों के स्थान पर तिजोरियों, गद्दों और ज़मीन में गड्ढा खोद कर रखने की अधिक बलवती है तो क्या किया जाये ! अब जब इन पर लगाम कसने के लिए नोट बंदी का फैसला लिया गया है तो भी सबको परेशानी हो रही है ! यह सच है कि आम जनता इन दिनों बहुत तकलीफ उठा रही है ! लेकिन कुछ दिनों की ही बात और है ! ३० दिसंबर की समय सीमा समाप्त होने बाद उम्मीद है कुछ आशाजनक परिणाम सामने आयेंगे ! इस समय देश हित में जनता का मनोबल उठाने की ज़रूरत है गिराने की नहीं !
ReplyDeleteयही सोचकर सन्तुष्ट होने की कोशिश कर रहा हूँ कि पूरे देश की प्रबल अपेक्षा-आकांक्षा बनी हुई नोटबन्दी को हम ‘सुखद भविष्य की प्रतीक्षा में दुःखद वर्तमान’ समझ कर सहयोग करें।
ReplyDelete