आदमी खुद से अधिक किसी को प्यार नहीं करता। निश्चय ही इसीलिए, नोट बन्दी के तुमुल कोलाहल के बीच अपने कल की चिन्ता मेरी धड़कन बढ़ा रही है। तसल्ली है तो केवल यही कि मेरा भय, मुझ अकेले का नहीं, अधिसंख्य बूढ़ों का है।
सरकार का सारा ध्यान और सारी कोशिशें विकास दर बढ़ाने की हैं। उद्योगों को बढ़ावा देने और व्यापार को अधिकाधिक आसान बनाकर ही यह किया जा सकता है। इसके लिए अधिकाधिक पूँजी, कम से कम कठिनाई से इन क्षेत्रों को उपलब्ध कराना पहली शर्त है। सो, सरकार यही कर रही है। उर्जित पटेल के, भारतीय रिजर्व बैंक का गवर्नर बनने के बाद सबसे पहला काम इसी दिशा में हुआ। फलस्वरूप बैंकों ने अपनी ब्याज दरें घटा दीं। तमाम अखबार और चैनलों पर मकान और कारों की ईएमआई कम होने की शहनाइयाँ बजीं। अब सुन रहे हैं कि नोट बन्दी के के कारण तमाम बैंकों के पास अतिरिक्त पूँजी आ जाएगी और वे एक बार फिर अपनी ब्याज दरें घटा देंगे।
लेकिन ये घटती ब्याज दरें मुझ जैसे बूढ़ों के दिल बैठा रही है। हम बूढ़े विचित्र से नैतिक संकट में हैं। अपने बच्चों को कम दर पर पूँजी मिलने की खुशी मनाएँ या बुढ़ापे में कम होती अपनी आमदनी पर दुःखी हों? आँकड़े और तथ्य तो ऐसा ही कहते लग रहे हैं।
केन्द्रीय सांख्यिकी कार्यालय की महानिदेशक सुश्री अमरजीत कौर ने 22 अप्रेल 2016 को रिपोर्ट जारी करते हुए बताया कि 2001 से 2011 के बीच देश में 60 वर्ष से अधिक आयुवाले नागरिकों की वृद्धि दर अभूतपूर्व रही है। वर्ष 2001 में देश की सकल जनसंख्या में वृद्धों की संख्या 7.6 प्रतिशत थी जो 2011 में बढ़कर 8.6 प्रतिशत (कुल 10.39 करोड़) हो गई। यह वृद्धि दर 35.5 प्रतिशत है जो न केवल अब तक की सर्वाधिक है बल्कि राष्ट्रीय जनसंख्या वृध्दि दर से दुगुनी भी है। तब से अब तक के पाँच वर्षों में इस संख्या में निश्चय ही वृद्धि हुई ही होगी।
छोटे होते परिवार, बच्चों का घर से दूर रहकर नौकरी करना और छिन्न-भिन्न हो रहा हमारा सामाजिक ताना-बाना। इस सबके चलते बूढ़े लोग अकेले होते जा रहे हैं। पूँजीवाद हमें लालची बना रहा है। हमारी सम्वेदनाएँ भोथरी होती जा रही हैं। बच्चों द्वारा अपने माता-पिता की जिम्मेदारी से पल्ला झटकने के समाचार अब आम होने लगे हैं। अपने भरण-पोषण के लिए और अपने ही बनाए मकान में जगह पाने के लिए बूढ़े लोग अदालतों के दरवाजे खटखटाते मिल रहे हैं। वृद्धाश्रमों की और उनमें रहनेवालों की संख्या दिन-प्रति-दिन बढ़ती जा रही है। पूर्णतः निराश्रितों के बारे में सोेचने की हिम्मत नहीं होती। लेकिन सेवानिवृत्त बूढ़े भी अब अपनी आय में होती कमी से भयभीत हैं।
बैंकों द्वारा ब्याज में कमी करने का सीधा असर इन बूढ़ों पर पड़ने लगा है। अगस्त 2016 के आँकड़ों के मुताबिक रेल, रक्षा, अर्द्ध सैनिक बलों, सार्वजनिक उपक्रमों, परिवार पेंशनधारियों और केन्द्र सरकार के पेंशनरों की कुल संख्या एक करोड़ से ज्यादा थी। राज्य सरकारों के और निजी क्षेत्र के पेंशनर इनमें शामिल नहीं हैं। ये तमाम लोग बैंक एफडी और डाक घर की विभिन्न लघु बचत योजनाओं से मिलनेवाले ब्याज की रकम पर आश्रित हैं। कम हुई (और निरन्तर कम हो रही) ब्याज दरों का सीधा प्रभाव इन सब पर पड़ेगा ही। आय में कमी और मँहगाई में वृद्धि इन बूढ़ों की रातों की नींद और दिन का चैन छीन लेगी। म्युचअल फण्डों में बेहतर आय मिल सकती है किन्तु वहाँ, बैंकों और डाकघर जैसी पूँजी की सुरक्षा और निश्चिन्तता नहीं। उम्र भी ऐसी नहीं कि अपनी रकम खुले बाजार में ब्याज पर लगाने की जोखिम ले सकें। ऐसे में ये बूढ़े अपने चौथे काल में राम-नाम भूल कर जीने के अधिक ठोस आधार की तलाश में लग जाएँगे। लेकिन सुरक्षित निवेश की विकल्पहीनता इन्हें निराश ही करेगी। मैं भी इन्हीं में से एक हूँ। अपने बेटों की संस्कारशीलता पर भरोसा होते हुए भी मुझे भी घबराहट हो रही है। लेकिन करूँ क्या? इस यक्ष प्रश्न का सामना करने में पसीने छूट रहे हैं।
किन्तु कम होती ब्याज दरों का यह असर केवल बूढ़ों पर ही नहीं होगा। मुझे एक खतरा और नजर आ रहा है। जैसा कि मैं बार-बार कहता हूँ, मैं अर्थ शास्त्र का विद्यार्थी नहीं हूँ किन्तु बीमा व्यवसाय के कारण फौरी तौर पर कुछ बातें समझ में आने लगी हैं। मुझे लग रहा है कि कम होती ब्याज दरों का सीधा असर हमारी अल्प बचत पर पड़े बिना नहीं रहेगा। हमारी लघु बचतों में सबसे बड़ा हिस्सा घरेलू बचत का है। जो लोग जोखिम लेने की उम्र और दशा में हैं वे तमाम लोग बैंक एफडी और डाकघर की लघु बचत योजनाओं से पीठ फेर कर म्युचअल फण्डों की ओर मुड़ जाएँगे। हम सब जानते हैं कि बैंकों और डाक घर में जमा रकम का सीधा लाभ सरकार को मिलता है। लोक कल्याणकारी योजनाओं में यह रकम बड़ी सहायता करती हैं। किन्तु म्युचअल फण्डों की रकम पर सरकार का कोई नियन्त्रण नहीं होता। वर्ष 2008 में हमारा बचत का राष्ट्रीय औसत 38.1 प्रतिशत था जो 2014 में घटकर 31.1 रह गया। आज यह और भी घटकर 30.1 प्रतिशत रह गया है। गए तीस वर्षों में यह सबसे कम प्रतिशत है। हम भारतीय भूलने में विशेषज्ञ हैं इसलिए शायद ही किसी को याद होगा कि 2007 और 2008 के वर्षों में जब दुनिया मन्दी के चपेट में आ गई थी, दुनिया की सबसे ताकतवर अमरीकी अर्थ व्यवस्था अस्त-व्यस्त-ध्वस्त हो गई थी, लोगों की नौकरियाँ चली गई थीं तब भी हमारी अर्थ व्यवस्था जस की तस बनी रही। तनिक भी नहीं लड़खड़ाई। यह हमारी, अल्प बचतों में जमा पूँजी के दम पर ही सम्भव हुआ था। आज वे ही लघु बचतें मौत की ओर धकेली जा रही हैं। मैं डर रहा हूँ। लेकिन यह डर क्या मुझ अकेले का है?
मैं भारतीय जीवन बीमा निगम का अभिकर्ता हूँ। इसी कारण देश की प्रगति और विकास में इसके योगदान की और इसके महत्व की जानकारी हो पाई है। अपनी शाखाओं के जरिए यह ‘निगम’ प्रतिदिन तीन सौ करोड़ रुपये संग्रहित करता है। 1956 में इसकी स्थापना के समय भारत सरकार ने इसे पाँच करोड़ रुपये दिए थे। यह ‘निगम’ प्रति वर्ष अपने मुनाफे की पाँच प्रतिशत रकम भारत सरकार को देता है। अपनी स्थापना से लेकर अब तक यह संस्थान इस तरह अब तक भारत सरकार को एक पंचवर्षीय योजना के आकार की रकम भुगतान कर चुका है। अपने कोष का 75 प्रशित भाग इसे भारत सरकार की लोक कल्याणकारी योजनाओं के लिए अनिवार्यतः देना पड़ता है। यह वस्तुतः भारत सरकार का कुबेर है। घटती ब्याज दर का असर इसकी पालिसियों के बोनस पर भी पर पड़ेगा। 1991 में बीस वर्षीय मनी बेक पालिसी की बोनस दर 67 रुपये प्रति हजार, प्रति वर्ष और बन्दोबस्ती पालिसी की बोनस दर 72 रुपये प्रति हजार, प्रति वर्ष थी। 1997 के आसपास ब्याज दरों में कमी शुरु हुई। आज यह बोनस दर 42 रुपये प्रति हजार, प्रति वर्ष रह गई है। जाहिर है यह दर और कम होगी। केवल निवेश के लिए बीमा पालिसियाँ लेनेवाले तमाम लोग इससे दूर जाएँगे। जाहिर है, सरकार का कुबेर दुबला होगा ही। बढ़ते पूँजीवाद के समय में, इसकी इस भावी दशा को सरकार की ‘निजीकरण प्रियता’ से भी जोड़ा जा सकता है।
बात बूढ़ों से शुरु हुई थी और दूर तलक, अगली पीढ़ियों तलक चली गई। मेरा डर आपको वाजिब लगता है? और क्या यह डर मुझ अकेले का है?
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