09 जनवरी 2017.
मैं इन्दौर में हूँ। कनाड़िया मार्ग स्थित शहनाई-2 के सामने, सर्व सुविधा नगर से मुझे और मेरी उत्तमार्द्धजी को ए. बी. रोड़ पर, सीएचएल अपोलो अस्पताल जाना है। मेरा परम मित्र रवि शर्मा वहाँ भरती है। सोमवार सुबह ही उसका, हर्निया का ऑपरेशन हुआ है।
मेरे बड़े बेटे वल्कल ने मेरे मोबाइल पर जुगनू ऑटो रिक्शा का एप स्थापित कर मुझे उसका उपयोग सिखा दिया है। उसी का उपयोग कर मैं एक ऑटो बुलाने का उपक्रम करता हूँ। मेरे मोबाइल के पर्दे पर एक ऑटो का नम्बर और ड्रायवर का नाम उभर आता है। कुछ ही क्षणों में मेरा मोबाइल घनघनाता है। उधर से ऑटो रिक्शा का ड्रायवर जानना चाह रहा है कि मैं कहाँ खड़ा हूँ। मैं अपनी जगह बताता, समझाता हूँ। वह पूछता है - ‘कहाँ जाओगे?’ मैं कहता हूँ - ‘अपोलो अस्पताल।’ वह पूछता है - ‘कौनसे वाला? विजय नगरवाला या एलआईजीवाला?’ मैं मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद देता हूँ कि मुझे दूसरे अस्पताल की जानकारी है। मैं ठसके से कहता हूँ - ‘एलआईजीवाला।’ वह कहता है - ‘अच्छा। थोड़ी ही दूर पर हूँ। बस! दो मिनिट में पहुँचता हूँ।’
दो मिनिटि, दो मिनिट में ही पूरे हो जाते हैं लेकिन उसका अता-पता नहीं। हम दोनों इन्दौर के भूगोल से अपरिचित हैं। नहीं जानते कि वह कौन सी दिशा से आएगा। सड़क किनारे खड़े हम दोनों दाँये-बाँये देखते हैं। कोई दस-बारह मिनिट बाद वह आता है। हम दोनों बैठने को होते हैं। वह पूछता है- ‘पेमेण्ट केश करोगे या पेटीएम करोगे?’ मैं कहता हूँ - ‘नगद करूँगा।’ वह शायद ‘नगद’ का मतलब समझ नहीं पाता है। तनिक ऊँची आवाज में कहता है - ‘नहीं! नहीं! मैं पूछ रहा हूँ कि पेमेण्ट केश करोगे या पेटीएम करोगे?’ मुझे अपनी चूक समझ में आ जाती है। कहता हूँ - ‘केश करेंगे।’ वह मानो राहत की साँस लेता है। कहता है - ‘तो ठीक है। बैठो।’
हम दोनों बैठ जाते हैं। रिक्शा चल पड़ता है। उसके सवाल मेरे पत्रकार को जगा भी देते हैं और उकसा भी देते हैं। रास्ते भर मैं उसके सवाल को लेकर उसे कुरेदता रहता हूँ। टुकड़ों-टुकड़ों में उसके जवाबों का समेकित जवाब कुछ इस तरह होता है - ‘पेटीएम में यूँ तो कोई तकलीफ नहीं सा’ब लेकिन भुगतान सात-सात दिन में मिलता है। अब, सात दिनों के लिए दाना-पानी कहाँ से लाऊँ। घर में तो रोज पैसे चाहिए होते हैं। पेटीएम के भरोसे रहने के लिए घर में एक मुश्त रकम चाहिए होती है। वो कहाँ से लाऊँ? कागजी बातें छोड़ दो तो ये रिक्शा भाड़े का है। मालिक को तो अपना भाड़ा रोज ही चाहिए। बहुत हुआ तो चौबीस घण्टों की उधारी कर ले। लेकिन उसके बाद? उसे तो भाड़ा चाहिए ही चाहिए और वो भी केश में। वो पेटीएम-वेटीएम नहीं जानता। इसलिए पेमेण्ट केश में लेना मेरी मजबूरी है। इस कारण कभी-कभी ग्राहक छोड़ भी देता हूँ। हम लोग ग्राहक के लिए घण्टों राह देखते हैं। इसलिए सामने आया धन्धा छोड़ने में बहुत तकलीफ होती है लेकिन क्या करूँ सा’ब! मेरी भी मजबूरी है।’
उसकी बात सुनकर मन में करुणा उपजती है। उसने मेरे सारे सवालों के जवाब दे दिए हैं। उससे असहमत होना कठिन है। फिर भी मैं कहता हूँ - ‘अपने मोदीजी तो भारत को केशलेस बनाना चाहते हैं। तुम उनकी मदद नहीं करोगे?’ निर्विकार भाव से वह कहता है - ‘मोदीजी की क्या बात करें सा’ब! वो तो बड़े आदमी हैं। उनके सामने तो, वो नहीं माँगें तो भी काजू-किशमिश आ जाते हैं। वो हमारी बात क्या समझेंगे! उनके बाल-बच्चे होते तो समझते। तब वो केशलेस की बात करने से पहले हजार बार सोचते सा’ब।’ मैं कहता हूँ - ‘तुम ऐसी बातें करोगे तो देश केशलेस कैसे बनेगा?’ उसी तरह, निर्विकार भाव से वह कहता है - ‘बन जाएगा सा’ब। पीएम ने कहा है तो कैसे नहीं बनेगा? मोदीजी हमारे जैसे लोगों के भरोसे थोड़े ही हैं। सब बड़े लोग उनके दोस्त हैं। वो सब मिलकर बना देंगे सा’ब।’
बात-बात में हम अस्पताल पहुँच जाते हैं। वह मोबाइल उठाकर ‘राइड एण्ड’ कर दो पल बाद रकम बताता है। मैं भुगतान करता हूँ। वह जाने के लिए ऑटो स्टार्ट करता है। मैं अस्पताल की ओर जाने को होता हूँ कि वह मुझसे कहता है - ‘सा’ब! आप मोदीजी की पार्टी के हो। उनसे कहना कि कोई भी फैसला लेने से पहले कम से कम एक बार हम गरीबों की जरूर सोच लें।’
मैं कुछ कहूँ, उससे पहले ही वह गाड़ी को गीयर में डाल, तेजी से चल देता है। उसे क्या पता कि मैं कहना चाहता था कि भाई! मोदीजी तक मेरी पहुँच नहीं है। लेकिन, होती तो भी नहीं कहता। वे किसी सुनते ही कहाँ हैं?
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ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (15-01-2017) को "कुछ तो करें हम भी" (चर्चा अंक-2580) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
मकर संक्रान्ति की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
कोटिश: धन्यवाद।
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