सामूहिक नकल: दरोगा ने दोस्ती नहीं की

‘बैरागीजी हैं?’

मैं अगले कमरे में बैठकर अपनी लिखत-पढ़त कर रहा था। अपने नाम की हाँक सुन, तनिक ऊँची आवाज में जवाब दिया -‘जी। अन्दर आ जाईए। दरवाजा खुला है।’

वे अदब से अन्दर आए। मुझे नमस्कार किया। मुझे लगा, प्रीमीयम जमा करने आए हैं। मैंने उनकी ओर देखे बिना, लापरवाही से कहा - ‘प्रीमीयम जमा करनी है? बैठिए। पॉलिसी नम्बर दीजिए।’ धीमी आवाज में जवाब आया - ‘नहीं। प्रीमीयम जमा नहीं करनी है। आपसे थोड़ी बात करनी है।’ अब मैंने उनकी ओर देखा। उम्र सत्तर के आसपास। लेकिन चेहरा और कद-काठी पचपन जैसी। सफेद कुर्ता-पायजामा, काला जॉकेट। माथे पर भूरे रंग की टोपी। जेब में दो पेन। दोनों ही स्याहीवाले। हाथों में ‘हंस’ और ‘वीणा’ के मार्च महीने के अंक। 

अपना नाम बता कर बोले - ‘मैं सेवानिवृत्त हायर सेकेण्डरी लेक्चरार हूँ। पास ही के गाँव में रहता हूँ। पढ़ाना मेरा व्यवसाय था। पढ़ने का शौक है। सुबह भोजन कर रोज रतलाम आ जाता हूँ। साहित्यिक रुचिवाले मित्रों, परिचितों से मिल कर, बतिया कर शाम को लौट जाता हूँ। आज एक मित्र के बेटे ने आपका लेख पढ़वाया। बिलकुल वैसे ही एक किस्से का अनुभव मुझे भी है। वही सुनाने आया हूँ। सुन लीजिए और हो सके तो इस पर भी एक लेख लिख दीजिए।’ उन्हें लेकर मेरी सोचने की दिशा और धारणा एक झटके में बदल गई। वे अपने लिए नहीं, मेरे लिए आए थे। मैंने चाय की मनुहार की। सहजता से बोले - ‘बात में थोड़ा समय तो लगेगा ही। बनवा लीजिए। पी लूँगा।’

बिना किसी विस्तृत परिचय और भूमिका के उन्होंने कुछ इस तरह अपना अनुभव बताया।

यह कोई दस बरस पहले की बात है। हायर सेकेण्डरी की वार्षिक परीक्षा में उनकी डयूटी लगी थी। परीक्षा केन्द्र शहर के एक छोर पर स्थित स्कूल में था। इस दो मंजिले स्कूल भवन का मुख्य दरवाजा आम स्कूलों की तरह खूब चौड़ा, चेनल वाला ही था। परीक्षार्थियों की बैठने की व्यवस्था दोनों मंजिलों पर थी। यह स्कूल इनका नहीं था। इसमें ये पहली बार आए थे। योग-संयोग कुछ ऐसा रहा कि यहाँ ये किसी को नहीं जानते थे। 

केन्द्राध्यक्ष द्वारा बताए कमरे में गए तो पाया कि उनका कमरा ठीक चेनल गेट के पासवाला है। समयानुसार परीक्षा की कार्रवाई शुरु हुई। कमरों में प्रश्न-पत्र पहुँचे, बँटे। बच्चों ने अपनी-अपनी उत्तर पुस्तिकाओं में माथा गड़ाया। सब कुछ शान्त, संयत, नियन्त्रित। 

पाँच-सात मिनिट ही बीते होंगे कि चेनल गेट बन्द होने की आवाज आई। इन्हें अटपटा लगा। जिज्ञासावश गेट तक आए। देखा, चपरासी गेट पर ताला लगा रहा था। इन्हें कुछ समझ में नहीं आया। परीक्षा ड्यूटी का बरसों का अनुभव। किन्तु इस तरह मुख्य दरवाजे पर ताला कभी, कहीं नहीं लगा। चपरासी से पूछा। जवाब मिला - ‘यहाँ ऐसे ही परीक्षा होती है।’ अब कुछ जानने, समझने की जरूरत नहीं रह गई थी। जी कसैला हो गया। डर भी लगने लगा। ऐसा सुना तो जरूर था किन्तु देखा कभी नहीं था। आज न केवल देख रहे थे बल्कि इसका हिस्सा भी हो रहे थे। मन ही मन भगवान का नाम लिया-‘बचाना भगवन्। रिटायरमेण्ट के दो बरस बचे हैं। बुढ़ापा मत बिगाड़ देना।‘ अब इनका ध्यान परीक्षा पर कम, खुद के बचाव पर ज्यादा हो गया।

तकदीर बहुत अच्छी थी कि इनके कमरे में नकल नहीं हो रही थी। लेकिन मनोदशा ऐसी हुई कि हर बच्चा नकल करता नजर आ रहा था। एक-एक पल भारी पड़ रहा था। आज सब राजी-खुशी निपट जाए तो गंगा नहाए। कल, कुछ भी करके अपना केन्द्र बदलवा लेंगे।

कोई डेड़ घण्टा बीता होगा कि मुख्य दरवाजे पर कार रुकने की आवाज आई। फिर, कार की फाटकें खुलने और बन्द होने की। सीढ़ियों पर कुछ लोगों के चढ़ने की आहट हुई। फिर, चेनल खड़खड़ाने के साथ ही किसी ने रोबदार आवाज में आदेश दिया - ‘दरवाजा खोलो।’ चपरासी बहुत दूर नहीं था। लेकिन वह भागकर नहीं आया। आना तो दूर, पहली बार तो उसने मानो आवाज सुनी ही नहीं। पल भर की प्रतीक्षा के बाद चेनल जोर-जोर से खड़खड़ाने के साथ बावाज गूँजी ‘अरे! सुना नहीं? दरवाजा फौरन खोलो।’ इस बार चपरासी भाग कर आया। पूछा - ‘आप लोग कौन हैं?’ बौखलाई हुई आवाज ने बुरी तरह से फटकारते हुए कहा - ‘कौन हैं? समझ में नहीं आता? इंस्पेक्शन टीम आई है। चलो! फटाफट दरवाजा खोलो।’ चपरासी ने हाथ जोड़कर, नम्रतापूर्वक माफी माँगी और पूरी ताकत से केन्द्राध्यक्ष को पुकारा - ‘सर! चाबी दीजिए। गेट खोलना है। इंस्पेक्शन टीम आई है।’ 

होना तो यह चाहिए था कि केन्द्राध्यक्ष पहली मंजिल से कूद कर आते। लेकिन इसके बदले जवाब आया - ‘रुकना जरा! सर बाथरूम गए हैं। आते हैं।’ 

इसके बाद, जो होना था, वही हुआ। केन्द्राध्यक्ष आए। क्षमा याचना करते हुए खुद ताला खोला। कहा-सुनसान इलाके के कारण सुरक्षा की दृष्टि से दरवाजे पर ताला लगाना पड़ा। 

लेकिन इसके बाद वह नहीं हुआ जो इंस्पेक्शन टीम को करना था। निरीक्षण दल के प्रमुख ने निरीक्षण से इंकार कर दिया। कहा-‘अब केन्द्र का नहीं, आपका निरीक्षण करेंगे। वह भी यहाँ नहीं, कलेक्टर के दफ्तर में।’ 

दल प्रमुख ने वहीं, वस्तुस्थिति के विस्तृत ब्यौरे सहित रिपोर्ट बनाई। केन्द्राध्यक्ष के हस्ताक्षर लिए और लिखित में आदेश दिए - ‘उत्तर पुस्तिकाएँ सील कर आप कलेक्टर कार्यालय पहुँचें। अगली कार्रवाई वहीं होगी।’

घटना सुनकर मैंने पूछा - ‘उसके बाद क्या हुआ? केन्द्राध्यक्ष पर कोई कार्रवाई हुई? उन्हें कोई सजा मिली?’ ये बोले - ‘उस वक्त तो मुझे कुछ भी भान नहीं रहा। ड्यूटी के बाद घर जाने के बजाय सीधा जिला शिक्षाधिकारी के पास पहुँचा। पूरी बात सुनाई और साफ-साफ कह दिया कि मैं तो अब वहाँ ड्यूटी नहीं करूँगा। फिर चाहे मुझे बर्खास्त ही क्यों नहीं कर दें। उन्होंने मेरी सुनवाई कर ली। फौरन मेरी ड्यूटी बदल दी।’ मैंने अपनी जिज्ञासा दुहराई तो बहुत खुश होकर बोले - ‘सर! इंस्पेक्शन टीम के प्रमुख ने उस दरोगा की तरह केन्द्राध्यक्ष से दोस्ती नहीं की। उन्होंने पहली ही रिपोर्ट ऐसी बनाई कि केन्द्राध्यक्ष को निलम्बित कर जाँच बैठाई गई जिसमें वो दोषी साबित हुए। सजा के तौर पर उन्हें अपने घर से सैंकड़ों किलोमीटर दूर फेंक दिया गया। उनकी भविष्य की सारी वेतनवृद्धियाँ रोक दी गईं और ऐसी व्यवस्था कर दी गई कि वे फिर कभी परीक्षा केन्द्राध्यक्ष नहीं बन सके।’ 

मैंने देखा, उनके चेहरे पर परम प्रसन्नता व्याप्त है। उनके अनुसार वे दो बातों से बहुत खुश थे। पहली, उन पर कोई आँच नहीं आई और दूसरी, निरीक्षण दल के दरोगा ने दोस्ती नहीं की।

जिस तन्मयता और आत्मपरकता से उन्होंने आपबीती कही यह उसका ही प्रभाव था कि इस बीच कब चाय आई और कब हमने पी ली, हमें पता ही नहीं चला।

सुख और प्रसन्नता के क्षण सचमुच में बहुत तेजी से बीतते हैं।
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2 comments:

  1. यह त्रासदी लगभग सभी केन्दों में सही सुनी जाती है।
    छत्तीसगढ़ में जांजगीर जिला पोरा बाई के कारण चर्चित रहा और केंद्र के निष्ठावान शिक्षक भी दुःख के सागर में डूब गए आपका संस्मरण और भाई जी कथा ने बीते पलों को ताज़ा कर दिया

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