सारे परीक्षार्थी जेल में

अफसर कुर्सी पर हो या सेवा निवृत्त, अफसरी की उसकी आदतें नहीं जातीं। कामकाजी दिन हो या छुट्टी का दिन, उसे कोई बहाना मिल जाना चाहिए। खुद तो अपनी आरामगाह में ऐश करता रहता है और बाकी सबको काम पर लगा देता है। वाधवाजी ने मेरे साथ यही किया। सत्रह बरस पहले सेवानिवृत्त हो गए, लेकिन अफसरी नहीं गई। अच्छे-भले रविवार को मुझे काम पर लगा दिया। 

नींद तो रोज की तरह वक्त पर ही खुल गई थी किन्तु उठने को जी नहीं किया। अलसाया हुआ बिस्तर में पड़ा था। दस बजे बाद दिन की शुरुआत की। बारह भी नहीं बजे थे कि फोन घनघनाया। पर्दे पर वाधवाजी का नाम उभरा हुआ था। इन्हें क्या हो गया? ये तो कभी फोन करते नहीं! लपककर फोन उठाया। नमस्कार कर पूछा - ‘आपकी तबीयत तो ठीक है?’ बोले - ‘अच्छा-भला हूँ। ईश्वर की कृपा और आपकी दुआएँ असर किए हुए हैं।’ आयु के चौहत्तरवें बरस में हैं, बीमार हैं लेकिन आवाज वैसी की वैसी - विक्टोरिया कल्दार सिक्के की टनटनाती, कड़क, खनकदार। मैंने पूछा - ‘आज कैसे याद कर लिया?’ बोले - ‘आपने ही उकसाया।’ मैं चकराया। महीनों हो गए इनसे बात किए! जोर से हँसे- ‘सामूहिक नकलवाला  आपका लेख अभी पढ़ा। उसी ने उकसाया।’ मुझे तसल्ली हुई। 

वाधवाजी से कोई बीस-इक्कीस बरस का परिचय है। अपनी किस्म के अनूठे आदमी हैं। नौकरी तो शुरु की थी एक साधारण लिपिक के रूप में लेकिन प्रधान लिपिक, नायब तहसीलदार, तहसीलदार की, पदोन्नति की पायदानें चढ़ते-चढ़ते सेवानिवृत्त हुए अनुभाग दण्डाधिकारी (एसडीएम) के पद से। नियमों, कानून-कायदों की आत्माएँ तक इनकी हाजरी में खड़ी रहें। फाइलबाजी और प्रक्रिया के सारे पेंच इनसे पनाह माँगें। पेचीदा मामले उलझाने में विशेषज्ञ। स्वभाव से मस्तमौला। व्यवहार का आधार ‘जैसा तेरा गाना, वैसा मेरा बजाना’। आप साीधे तो वाधवाजी आपसे भी अधिक सीधे। आप तनिक तिरछे हुए तो वाधवाजी पूरे टेड़े। 
बोले - ‘आपका किस्सा पढ़कर मुझे सुसनेर की आपबीती याद आ गई। मैंने तमाम परीक्षार्थियों को जेल में बैठा दिया था।’ मेरा आलस्य छू हो गया। अब तक चाय ही पी थी। नाश्ते से आगे बढ़कर पूरी खुराक सामने आ गई। मैंने कहा - ‘ऐसा कैसे? बात समझ में नहीं आई। आपको फुरसत हो तो विस्तार से पूरी बात बताइए।’ उसी तरह खनखनाते हुए बोले - ‘यहाँ तो पूरी तरह फुरसत है। आप अपनी देख लो।’ मैंने मौका लपका - ‘लीजिए! मैं भी पूरी तरह फुरसत में हो गया। सुनाइए।’

और वाधवाजी ने कुछ इस तरह आपबीती सुनाई -

यह 1991-92 की बात है। मैं सुसनेर में तहसीलदार था। सुसनेर तब शाजापुर जिले की एक तहसील था। आगर से लगभग तीस किलो मीटर और इन्दौर से करीब डेड़ सौ, एक सौ साठ किलो मीटर दूर। वहाँ राणाजी नाम के एक वकील साहब थे। पूरे इलाके में उनकी तूती बोलती थी। इसी के चलते सुसनेर को ‘राणाजी की सुसनेर’ के नाम से जाना-पहचाना जाता था।

परीक्षाओं के दिन थे। और जगहों की तरह, नकल की शिकायतें यहाँ भी आ रही थीं। चौहान साहब कलेक्टर थे। उनका पूरा नाम याद नहीं। बस! इतना याद है कि वे नीमच या जावद के थे और उनके पिताजी को लोग ‘जापानी वकील साहब’ कहते थे। उन्हें नकलपट्टी पसन्द नहीं थी। उन्होंने पूरे जिले में इस पर नकेल कसने की ठान रखी थी। अपने मनमाफिक नतीजे हासिल करने के लिए वे अपने अधिकारियों को खुल कर काम करने की छूट देते थे। मैं भी पूरी ताकत से इस काम में लगा हुआ था। मुझे तो आप जानते ही हो। जानबूझकर बुरा कभी किसी का किया नहीं लेकिन किसी को यह छूट भी नहीं दी कि मुझे ‘टेकन ग्राण्टेड’ ले ले। दादाओं की तरह पेश आता था। 

उस दिन शनिवार था। मेरी सख्ती से गिनती के लोग नाराज थे जबकि ईमानदार बच्चे और उनके माँ-बाप तो खुश थे। किन्तु आप ही खुद ही कहते हो कि भले लोग चुप रहते हैं और घरों से बाहर नहीे आते। सो, मेरी सख्ती से गिनती के जिन लोगों और बच्चों को असुविधा हो रही थी उन्होंने कुछ और बच्चों को एकट्ठा किया और जुलूस बनाकर, ‘तहसीलदार तेरी दादागीरी, नहीं चलेगी! नहीं चलेगी’ के नारे लगाते हुए आए। मैंने देखा, कोई 60-70 बच्चे चले आ रहे हैं। पुलिस सर्कल इंस्पेक्टर जुलूस के आगे-आगे चल रहा था। बाली सरनेम था उसका। बच्चे तो बच्चे थे। उस उम्र में वे अपना भला-बुरा क्या समझते? उनसे क्या कहना, सुनना? सो मैंने बाली को निशाना बनाया। सबके सामने उसे खूब डाँटा-फटकारा। कुछ गालियाँ भी दीं। वह कुछ भी नहीं समझ पाया कि उसका कसूर क्या था? हक्का-बक्का, परेशान हो मेरा मुँह ताक रहा था। मेरे ऐसे तेवर और बाली की दशा देखकर तमाम बच्चे दहशतजदा हो, बिना किसी के कहे, खुद-ब-खुद चुपचाप बिखर गए। मैं भी चुपचाप अन्दर चला आया। बाली शायद मेरी बात समझ गया था। जब तक हम दोनों सुसनेर रहे, उसने कभी इस बात की शिकायत नहीं की।

जुलूस तो बिखर गया लेकिन बात खत्म नहीं हुई थी। कलेक्टर तक पहुँची। चौहान साहब ने मुझे फोन किया। पूरी बात जानी। फिर पूछा - ‘चाहे जो हो, नकल तो नहीं होगी। बताओ! क्या करना चाहिए और तुम क्या कर सकते हो?’ मैंने कहा कि जहाँ अभी परीक्षा हो रही है वहीं होती रही तो नकल नहीं रुकेगी। परीक्षा की जगह बदली जानी चाहिए। उन्होंने पूछा - ‘तुम करवा सकते हो कहीं और परीक्षा?’ मैं इस सवाल के लिए तैयार था। केवल जवाब ही नहीं सोच रखा था, पूरा एक्शन प्लान भी बना रखा था। जवाब दिया - ‘आज शनिवार है। अगला पेपर सोमवार को है। आप यदि मुझे विशेष सशस्त्र बल (एस ए एफ) का एक-चार (एक हेड कांस्टेबल और चार जवान) का फोर्स दे दें तो मैं दूसरी जगह परीक्षा करा सकता हूँ।’ उन्होंने कहा - ‘फोर्स की कोई दिक्कत नहीं। जितना चाहोगे मिल जाएगा। लेकिन जगह कहाँ से लाओगे?’ मैं पूरी तरह तैयार था। एक सेकण्ड की देर किए बिना बोला - ‘नए जेल की बिल्ंिडग तैयार खड़ी है। उसका उद्घाटन भी नहीं हुआ है। पूरी की पूरी खाली है। वहीं परीक्षा हो जाएगी। जेल का उद्घाटन होगा जब होगा, इस बहाने एक नेक गतिविधि से इसका दरवाजा खुल जाएगा।’ बात सुनकर चौहान साहब बहुत खुश हुए। इतने कि मैं सामने होता तो मेरी पीठ ठोकते। बोले - ‘बहुत बढ़िया विचार है। प्रोसीड।’

इसके बाद मुझे और क्या चाहिए था? शनिवार की रात और रविवार का पूरा दिन मेरे पास था। मैं किसी से कुछ कहता उससे पहले ही सारा किस्सा पूरे सुसनेर में पसर चुका था। मेरा काम बहुत आसान हो गया था। हालत यह हो गई थी कि मैं एक कहूँ तो लोग दो मानने को तैयार। तैयारियाँ कुछ इस तरह हुईं कि रविवार को ही परीक्षा हो जाए।

सोमवार को बच्चे तो बच्चे, झुण्ड के झुण्ड लोग नई बनी जेल की तरफ उमड़ रहे थे। ऐसा लग रहा था मानो हर कोई जेल में हुई परीक्षा का चश्मदीद गवाह बनना चाह रहा हो। उम्मीद से कहीं ज्यादा शान्ति से परीक्षा पूरी हुई। उसके बाद जब तक मैं सुसनेर रहा तब तक मुझे ‘जेल में परीक्षा करानेवाला तहसीलदार’ के रूप में ही जाना-पहचाना जाता रहा।

वाधवाजी रुक गए। उनके हिसाब से उनकी आपबीती पूरी कही जा चुकी थी। लेकिन मेरे मन का पत्रकार अब भी कुलबुला रहा था। पूछा - ‘किसी पत्रकार ने आपको निपटाया नहीं?’ अचानक कुछ याद आया हो, कुछ इस तरह वाधवाजी बोले - खूब याद दिलाया आपने। यह बात तो मैं तो भूल ही गया था। पत्रकारों ने मुझे खूब घेरा। किसी ने तारीफ की तो किसी ने खुन्नस निकाली। लेकिन अगले दिन अखबारों में समाचार लगभग एक ही हेडिंग से छपा - सारे के सारे परीक्षार्थी जेल में।

अब कुछ भी बाकी नहीं रह गया था। इस पुछल्ले से मुझे वह भी मिल गया था जिसकी ओर वाधवाजी का ध्यान नही नहीं था। मैंने कहा - ‘आपकी आवाज से लग रहा है, आप थक गए हैं। आप हाँफ रहे हैं।’ बरसों का प्रशासकीय अनुभव परिहासपूर्वक बोला - ‘जान रहा हूँ कि आपका काम निकल गया है। चलिए, मैं थका ही सही। मैं भी अपना काम करता हूँ। आप भी अपना काम निपटाइए।’

और हम दोनों ने ठठाते हुए अपना-अपना फोन बन्द कर दिया।
-----

3 comments:

  1. Bharat ki janta multah bhrasht hai
    Dahej,bachcho ko nakal krana iske udaharan hain
    Mata pita dhan aur bahubal lagaate hain bachcho ko nakal krane kr liye
    Is prakar naukari ke liye
    Bhi ,galat tariko ka pryog karne men nahi chukte
    Sadak, park par kabja
    Pure paise grahak se lekar bhi bill n dena
    Tax n bharna,
    Auto valo ka meter laga hone ke baad bhi
    Feri walo se hafta lena
    Aise anek udaharan jeevan men roj dekhne ko me hain jahan
    Vykti par bhrasht hone ka koi dawab
    Nahi par vah garib aur kamzor logon ka shoshan karne se baaz nahi aata
    Pariksha ka tatha chunav ka aayojan aise do kaary hain jinamen
    Imaandar log duty lagne se bachte the

    ReplyDelete
  2. बेहतरीन अनुकरणीय संस्मरण और सराहनीय
    एक सजग अधिकारी और पिता का श्रेष्ठ प्रयास साधुवाद

    ReplyDelete
  3. ऐसे ही शानदार वयक्तित्व के अधीनस्थ मै भी2000 -2002 तक नायब तहसीलदार क्यामपुर उपखण्ड सीतामऊ जिला मन्दसौर रहा,आज भी उनका ऋणी हूँ,एक बड़े भाई, सख्त परन्तु अंदर मुलायम अपनत्व का भाव सदैव रहा,ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें व परिजनों को सहन की शक्ति दे।ॐ शान्ति, नमन।

    ReplyDelete

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.